कोहरा
एक दिन जब कोहरे ने,
जब अपनी चुनरी फैलाई।
निकल कर देखा बाहर तो,
कुछ ना दिया दिखाई।।
जब सीढियों से मैं आया नीचे,
तो एक तंग गलि सामने पाई,
जान समझ कर रास्ता,
उधर चल पड़ा मैं भाई॥
दूर जग रहे दीपक ने,
मार्ग मुझे दिखाया,
बढ़कर देखा आगे तो,
एक बुजुर्ग खड़ा पाया॥
बुजुर्ग ने जब देखा मुझे,
थोड़ा हंसा, थोड़ा मुस्कराया,
बीच सड़क पर उसने मुझे,
हाथ पकडकर बैठाया।।
उसने चुपके से फिर यूं,
मेरे कान में ये बोला।
कोहरे से मुक्ति पाने को,
ले आओ किसी नेता का झोला।।
सोच समझकर फिर बोला वो,
वैसे कोहरे का नही होता ताला,
पर नेता जी ले जा सकते इसको,
कोई करके बड़ा घोटाला।।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’