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सोमवार, 17 नवंबर 2025

गीता जयंती विशेष

 गीता जयंती विशेष                                               डॉ. कृष्ण के आर्य       

          विराट रूप ही भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप

                       ‘मार्गशीर्ष की अमावस्या को दिया था गीता उपदेश’

Jagat Kranti   
             वैश्विक जनमानस की जीवनधारा को प्रभावित करने में गीता की अह्म भूमिका है। यह एक ऐसा सार्वभौमिक ग्रन्थ है, जिसकी व्यवहारिकता चिरकाल तक बनी रहेगी। कुरुक्षेत्र की धरा पर हुआ परस्पर संवाद कितना गहन था, इसका अनुमान अर्जुन की शंकाओं पर श्रीकृष्ण द्वारा की गई व्याख्या से ही स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसी संवाद को गीता कहा गया है। अर्जुन का मोहपाश कितना मोहित करने वाला था, उसे सहज ही जाना तो जा सकता है। परन्तु उसे समझने से जीवन के लक्ष्य बदल जाते हैं।

अर्जुन का वह एक प्रश्न, जिसे श्रीकृष्ण को अढ़ाई घड़ी का उपदेश देने के लिए विवश कर दिया, वह क्या था ? अर्जुन ने कहा कि

दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।।

रणभूमि में युद्ध की इच्छा से खड़े बन्धु-बांधवों को देखकर मेरे अंग शिथिल हो गए हैं। मुख सूखा जा रहा है और मेरे शरीर में कम्पन पैदा होने लगी है। हे वासुदेव! मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष खिसका जा रहा है, त्वचा जल रही है, मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़ा रहने में भी असमर्थ अनुभव कर रहा हूँ। हे मधुसूदन! पृथ्वी का राज्य तो क्या है, मैं तीनों लोकों के राज्य के लिए भी इन्हें मारना नहीं चाहता हूँ।

       ऐसी स्थिति का निर्माण कब हुआ अर्थात् वह कौन सा दिन था जब अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण के मध्य इस विषय पर वार्तालाप हुई। वही दिवस गीता जयंती का दिन था। उसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता ज्ञान का संदेश दिया। महाभारत युद्ध की यह अनूठी घटना थी, परन्तु इसके लिए परिस्थितियां कब, क्यों और कैसे बनी। इसे जानने की अभिलाषा सभी के मन में उठ रही होंगी।

 

शांति से युद्ध की ओर-

हस्तिनापुर के दूत संजय ने विराटनगर पहुंच कर पांडवों को महाराज धृतराष्ट्र का संदेश सुनाते हुए कहा कि आप जहाँ भी हो वहीं स्वस्थ रहो। उन्होंने कहा कि अपने सगे-सम्बन्धियों को मारने से तो भीख मांग कर जीवित रहना अच्छा है। इस घटना के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण ने पांडव सभा में कहा कि मैं  कृष्ण, दोनों पक्षों के कल्याण के लिए कौरव सभा में जाऊँगा और एक शान्तिदूत बन कर शान्ति वार्ता करूँगा। हालांकि संजय की बात सुनकर मैं कौरवों के व्यवहार के विषय में जान चुका हूँ, फिर भी मैं हस्तिनापुर जाकर कौरवों की सभा में दुर्याेधन के अच्छा और बुरा होने के सभी संशय दूर कर दूँगा। वहाँ पहुँच कर मैं तनिक भी त्रुटि किए बिना समस्त कौरवों और पांडवों के कल्याण और सन्धि स्थापना का प्रयास करूँगा।

       राजसभा में पहुंचने पर भीष्म, द्रोण तथा महाराज धृतराष्ट्र सहित अन्य महानुभावों ने अपने आसनों से खड़े होकर श्रीकृष्ण का स्वागत किया। वहाँ विराजमान अनेक देशों के राजाओं ने भी श्रीकृष्ण का अभिवादन किया और उन्हें टकटकी लगाकर निहारने लगे। सभा में सन्नाटा छा गया और सभी श्रीकृष्ण के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। इसके पश्चात् दुन्दुभि के समान गम्भीर स्वभाव वाले श्रीकृष्ण ने बोलना आरम्भ किया। उन्होंने अपने वक्तव्य की शुरूआत ठीक उसी प्रकार से की जैसे कोई वरिष्ठ व्यक्ति किसी कार्य के लिए बच्चों को मनाता है।

       श्रीकृष्ण ने महाराज धृतराष्ट्र की प्रशंसा करते हुए कहा कि कालातीत से समस्त राजाओं में कुरुवंश श्रेष्ठ रहा है। यहाँ शास्त्र और सदाचार का पालन किया जाता रहा है। यहाँ कृपा, अनुकम्पा, करुणा, विनम्रता, सरलता, क्षमा और सत्य आदि के जो गुण रहे हैं, वह अन्य राजाओं में नहीं रहे। हे राजन्! ऐसे उत्तम गुणयुक्त एवं प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न होकर भी आपके कारण हुए किसी अनुचित कार्य को कैसे उचित कहा जा सकता है।

       श्रीकृष्ण ने अपने विस्तृत वक्तव्य के दौरान कहा कि जहाँ अधर्म से धर्म और असत्य से सत्य का हनन होता है, वह सभा नष्ट हो जाती है। पांडव धर्म के मार्ग पर चलकर अपना राज्य लौटाने का अनुरोध कर रहे हैं। इसलिए अपने अनुज पुत्रों को पैतृक भाग देकर उनका मनोरथ पूर्ण करें। राजन् ! इससे पांडवों और कौरवों दोनों का समान रूप से कल्याण होगा। इस तरह से श्रीकृष्ण ने उन्हें युद्ध की भयावह स्थिति का भी आभास करवाया। परन्तु दुर्योधन द्वारा संधि प्रस्ताव न मानने पर भगवान श्रीकृष्ण विरक्त हो गए सभा से बाहर आ गए और न चाहते हुए भी शांति प्रस्ताव से युद्ध की स्थिति बन गई।

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गीता उपदेश स्थल-

युद्ध के लिए दोनों सेनाएं कुरुक्षेत्र की धरा पर एकत्र होने लगी। युद्धभूमि के पश्चिम की तरफ मुहं करके पूर्व दिशा में कौरव सेना खड़ी हो गई और पूर्व में मुख करके पश्चिम दिशा में पांडव सेना युद्ध के लिए डट गई। इस विषय पर उद्योगपर्व में दिया है कि

पञ्चयोजनमुत्सृज्य मंडलम् तद्रणाजिरम्।

सेनानिवेशास्ते राजन्ना विशञ्छतसंघशः।।

अर्थात् युद्ध के लिए दोनों सेनाओं के शिविरों के मध्य पांच योजन (लगभग 64 वर्ग किलोमीटर) का घेरा छोड़कर सौ-सौ की संख्या वाली श्रेणीबद्ध छावनियां डाल दी गईं। युद्धभूमि में प्रवेश के लिए चार द्वार बनाए गए और प्रत्येक द्वार पर एक-एक यक्ष को द्वारपाल रखा गया।

      सम्भवतः उस समय यह स्थान दोनों सेनाओं के मध्य और एक किनारे पर रहा होगा। इस स्थान पर अर्जुन और श्रीकृष्ण के मध्य हुई वार्त्ता को ही गीता उपदेश कहा गया है। मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में इसे ज्ञानगीत की संज्ञा दी हैं। वर्तमान में वह स्थान ज्योतिसर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है, जो कुरुक्षेत्र बस अड्डा से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।


गीता उपदेश तिथि-

कौरव सभा में हुई ख़ीचतान के उपरान्त भगवान श्रीकृष्ण और कर्ण की एकान्त में भेंट हुई। श्रीकृष्ण ने कर्ण के सामने प्रस्ताव रखा कि पांडव उसके भाई है। अतः वह पांडवों की ओर से युद्ध करें परन्तु कर्ण ने इसे ठुकरा दिया। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि हे कर्ण ! मेरा प्रस्ताव तुम्हें स्वीकार नहीं है और तुम मेरे द्वारा प्रदत्त पृथ्वी का राज्य भी ग्रहण नहीं करना चाहते हो। इसलिए तुम आचार्य द्रोण, पितामह भीष्म और कृपाचार्य से जा कर कहना कि इस समय सौम्य मार्गशीर्ष मास चल रहा है। इसमें जलाने की लकड़ियां और घास सुगमता से प्राप्त हो जाती है। सभी प्रकार की औषधियां एवं फल-फूल से समृद्धि होती है। धान के खेतों में खूब फल लगे हैं, मक्खियां भी कम है और कीचड़ का भी नाम नहीं है। इस सुखद मास में न अधिक गर्मी है और न ही अधिक सर्दी है।

इस पर महाभारत के उद्योगपर्व के अध्याय 29, श्लोक 33 में कहा है कि

सप्तमाच्चापि दिवसादमावास्या भविष्यति।

संग्रामो युज्यतां तस्यां तामाहुः शक्रदेवताम्।।

अर्थात् आज से सातवें दिन अमावस्या होगी, उसके देवता इन्द्र कहे गए हैं। उसी में युद्ध आरम्भ किया जाएगा। इसका अर्थ हुआ कि मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को श्रीकृष्ण हस्तिनापुर राजसभा में शान्तिदूत बन कर गए थे। परन्तु मौसलपर्व के अनुसार युद्ध वाले महीने में त्रयोदशी को अमावस्या थी। इस तरह श्रीकृष्ण ने कौरवों के सम्मुख कृष्ण पक्ष की सप्तमी को शान्ति प्रस्ताव रखा था।

      अतः मार्गशीर्ष की अमावस्या को ही कुरुक्षेत्र भूमि पर महायुद्ध आरम्भ हुआ था और मूलतः उसी दिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश दिया था। इस वर्ष गीता जयंती अमावस्या 20 नवम्बर 2025 को है। इसी अमावस्या को सही मानना चाहिए। परन्तु अनेक जानकार गीता जयंती को मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की एकादशी को मानते हैं, इसलिए इसे मोक्षदा एकादशी भी कहा गया है। यह इस वर्ष एक दिसम्बर 2025 को होगी

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गीता उपदेश-

मार्गशीर्ष की अमावस्या के उस दिन सूर्योदय के समय अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण रथ को दोनों सेनाओं के मध्य स्थान पर ले गए। वहां पर अर्जुन के विचलित होने की स्थिति, प्रश्न तथा उनके मोहपाश की स्थिति बड़ी दयनीय थी।  

अर्जुन की ‘किमकर्त्तव्य विमूढम्’ की स्थिति को भांपते हुए अर्जुन के उपरोक्त एक प्रश्न पर भगवान श्रीकृष्ण ने तीन तरफ से वार किया। श्रीकृष्ण ने त्रिविद्या के ज्ञान, कर्म और उपासना के गूढ़ रहस्य को समझाते हुए कर्म की महत्ता पर बल दिया। उन्होंने अर्जुन को ज्ञानयोग, कर्मयोग तथा भक्तियोग की धारा में प्रवाहित करते हुए कर्त्तव्य पालन का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि इस संसार में कर्म को करने और कर्त्तव्य के पालन से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नही है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि

न मे पार्थास्ति कर्त्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।

नान वाप्तम वाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तीनों लोकों में मेरे लिए न तो कोई कर्त्तव्य कर्म करना शेष है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु मुझे अप्राप्य है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न ही प्राप्त करने की इच्छा है, फिर भी मैं निरंतर कर्म में लगा रहता हूँ। पार्थ ! ज्ञानी मनुष्य अनासक्त भाव से लोक-संग्रह के लिए कर्म करते हैं और वह तुम्हें भी करने चाहिए।

        गीता का यह रहस्य वर्तमान में प्राप्त श्रीमद्भागवत के 18 अध्यायों में दिए 700 श्लोकों में सम्मिलित है। परन्तु महाभारत में गीता उपदेश को मात्र 70 श्लोकों में दिया हुआ है, जिसे मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में वर्णित करने का प्रयास किया है। श्रीकृष्ण और अर्जुन का यह वार्तालाप मात्र अढ़ाई घड़ी अर्थात् लगभग एक घंटे का हुआ था। श्रीकृष्ण और अर्जुन के परस्पर इसी संवाद को गीता उपदेश कहा गया है।


विराटरूप-

        गीता उपदेश के दौरान योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्त्तव्यवादी बनने और उनके संस्कारों को चित्त पर नहीं पड़ने देने का सूत्र दिया। उनके ज्ञान, कर्म और उपासना के संदेश के पश्चात् भी जब श्रीकृष्ण को लगा कि अर्जुन अभी संशय में घिरा है, तब उन्होंने योग का सहारा लिया और युद्धभूमि में ही समाधिस्थ हो गए। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त के अनुसार श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आत्मा को अपनी आत्मिक शक्ति के साथ संयोग करवाया। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन की आत्मा से मेल करते हुए प्राण की गति के रेचक को कुम्भक में परिणत कर दिया। उन्होंने अपने सभी दस प्राणों को मन से मिलाप कर परमात्मा के साथ एक सूत्र में पिरो दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आत्मा का अर्जुन की आत्मा से मिलन हुआ और आत्मा जागृत होने लगी।

       इससे अर्जुन की अन्तरात्मा अति हर्ष से भर गई और उन्हें दिव्य दृश्य दिखाई देने लगे। अर्जुन को जैसे ब्रह्मांड में अग्नि प्रदीप्त हो रही है, समुद्र स्थिर हो गया, वायु की गति का आभास होने लगा तथा जल तेज प्रवाह में चलता दिखाई दे रहा था। प्रकृति का चक्र भौतिक पिण्डों में गति कर रहा था। ईश्वर के आंगन में जीवन की गति का चक्र चलता दिखाई देने लगा था। इसमें कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा था तो कोई जन्म ले रहा था। इस प्रकार दोनों सेनाएं मृत्यु के आंगन में विराजमान दिखाई दे रही थीं। श्रीकृष्ण का यह आत्मिक मेल और भावों का अनूठा संचार था। इससे अर्जुन की बुद्धि निर्मलता को प्राप्त हो गई और वह ईश्वर के यर्थाथ स्वरूप के दर्शन कर पाये।यही विराटरूप भगवान श्रीकृष्ण का योगेश्वर स्वरूप कहलाया था, जो मात्र योग की उत्कृष्ठता से ही सम्भव हुआ।

      अतः श्रीकृष्ण और उनके संदेश की व्यवहारिकता को समझने के लिए केवल योग ही एकमात्र साधन है। व्यक्ति, योग को अपनाकर ही गीता के रहस्यों को जानने में सक्षम हो सकता है। यही गीता का मूल रूप है, जिससे मानव स्वयं और समाज का उत्थान करने में समर्थ होगा।

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बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

सांझी विशेष

  सांझी विशेष-        हरियाणा की सांझी का ही प्रतिरूप है माता दूर्गा पूजा

        

       भारत भूमि को देवभूमि कहा गया है। यहाँ समय-समय पर दैवी आत्माओं का प्रकटीकरण होता रहा है। उन्होंने विश्व में सुख, शांति और समृद्धि के विस्तारिकरण के लिए अनेक मर्यादाओं की स्थापना की, इन्हीं मर्यादाओं के समुचित पालन की नियमावली को ही त्यौहार की संज्ञा दी है। इन त्यौहारों को वर्षभर मनाने से न केवल लोगों का जीवन रसमय बनता है बल्कि देवी-देवताओं के आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। इससे घरों में खुशियांे का आगाज होता है तथा बन्धुत्व की भावना को बल मिलता है। ऐसे ही श्रृंखलाबद्ध रूप में माता के नौ रूपों को नौ दिनों तक मनाना ही नवरात्र कहा गया है। इन्हीं नवरात्रों को माता दूर्गा के नव-दिवस भी कहते हैं। नवरात्रों के दौरान हरियाणा में सांझी माता की पूजा की जाती रही है, जिसका बृह्द रूप ही माता दूर्गा पूजा है।

          विश्व में आश्विन एवं शारदीय नवरात्र के दौरान दूर्गा पूजा की धूम होती है। बडे़-बडे़ पांड़ाल लगाए जाते हैं, जिनमें माता दूर्गा की विशालकाय मूर्ति स्थापित की जाती है। पांड़ालों को रंग-बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, जिससे उसकी अद्भूत छटा दिखाई देती है। इन पांड़ालों में सूर्यास्त के उपरान्त बड़ी संख्या में श्रद्धालु माता दूर्गा की पूर्जा करते हैं। इतना ही नही, अपनी खुशी की अभिव्यक्ति करने के लिए उन्हें गायन एवं नृत्य से धूम मचाते भी देखा जा सकता हैं।

        दूर्गा पूजा को मनाने की परंपरा कब से आरम्भ हुई, इसका सही आंकलन तो नही किया जा सकता है। मान्यता है कि 16वीं शताब्दी में अविभाजित भारत का बंगाल तथा वर्तमान बांग्ला देश के ताहिरपुर के राजा कंसनारायण ने अश्वमेध यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। परन्तु कलियुग होने के कारण पूरोहितों ने उन्हें अश्वमेध यज्ञ के स्थान पर माता दूर्गा की पूजा करने की सलाह दी। इसके पश्चात बंगाल के बड़े जमींदारों द्वारा दूर्गा पूजा की शुरूआत हुई। आजकल विदेशों से लेकर भारत के बड़े नगरों, कस्बों तथा गांवों तक दूर्गा पूजा के मंडप सजाए जाते हैं। उनमें गरबा एवं डांडियां नृत्य की झंकार सुनाई देती है।

     पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महिषासुर नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसने देवताओं (श्रेष्ठ लोगों) को बन्दी बनाया और उन पर अत्याचार करने लगा। मुसिबत में फंसे देवताओं ने उससे छुटकारा पाने के लिए दुर्गा माता से प्रार्थना दी। देवताओं की प्रार्थना पर माता दुर्गा ने ‘अष्टभुज’ रूप धारण कर शेर पर सवार होकर महिषासुर का अन्त कर दिया। उसी समय से लोग इन दिनों को दुर्गा दिवसों अर्थात नवरात्रों के रूप में मनाते हैं। इसलिए दूर्गा पूजा भी बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में ही मनाया जाता है।

        हरियाणा राज्य में माता दूर्गा पूजा की परंपरा अति प्राचीन है, जिसको सांझी माता कहा जाता रहा है। माना जाता है कि 15वीं शताब्दी में वैष्णव मंदिरों में सांझी की पूजा आरम्भ की गई थी। हरियाणा के गांवों में सांझी पूजा सदियों से चली आ रही है। अतः प्रदेश में सांझी माता की पूजा का इतिहास आज मनाए जाने वाले दूर्गा महोत्सव से प्राचीन नजर आ रहा है। सांझी की पूजा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, राजस्थान सहित उत्तर भारत में धूमधाम से की जाती है।


       सांझी, शब्द सांझ से बना है। सांझ का अर्थ सांय अर्थात गोधूली का समय। माता दूर्गा की पूजा सांझ के समय की जाती है, इसलिए इसे सांझी कहा गया है। आज भी गांवों में लोग दिवार पर सांझी माई की मूर्ति उकेरते है। गाय के गोबर, मिट्टी की टिकड़ियों को रंगीन करके दिवारों पर चिपकाते हैं और इसे माता दूर्गा का रूप देते हैं। इसके अगल-बगल में चांद और सूरज बनाए जाते हैं। उसके मुहं पर कपड़ा लगाया जाता और सांझ के समय सांझी की आरती की जाती है। कुवांरी लड़कियां अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए नवरात्रों में सांझी की आरती इस प्रकार करती हैं।

आरता ऐ आरता, सांझी माई आरता,

क्यांहे का तेरा दीवा, क्यांहे की तेरी बाती,

चांदी का दीवा, सोने की बाती,

जाग सांझी जाग ऐ, तेरे माथा लाग्या भाग ऐ...

नवरात्रों के दौरान ही नौ दिनों तक सांझी माई की पूजा की जाती है। घर की लड़कियां तथा महिलाएं इस प्रकार के अनेक लोक गीतों से मां की आराधना करती हैं तथा उनसे मन चाहे आशीर्वाद मांगती हैं। माता का आरता के लिए घी का दीपक जलाया जाता है और माता को हलवा या अन्य मिष्ठ पदार्थों का भोग लगाया जाता है। उसके पश्चात नवरात्रों के व्रती अपना उपवास खोलने के लिए भोजन करते हैं।

नवरात्रों में भोजना का भी विशेष महत्व है। सांझी माई के नौ दिनों तक फलाहार किया जाता है। सुबह से शहद और नींबू पानी, दूध या छाछ का सेवन किया जाता है तथा दोपहर को केला, सेब या पपीता इत्यादि फलों को खाद्य रूप में लिया जाता हैं। सांझी का आरता करने के बाद रात्रि में शामक, आलु का हलवा या साबुदाने की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। इस प्रकार के आहार लेने के पीछे शरीर शौधन का ही कारण माना जाता है।

हमारे शास्त्रों में कहा है कि

 ‘आहार शुद्धो, सत्व शुद्धि, सत्व शुद्धि, ध्रुवा स्मृति’ 

अर्थात हमारे आहार के शुद्ध होने से बुद्धि तथा बुद्धि के पवित्र होने से हमारी स्मरण शक्ति का विकास होता है। नवरात्रों के दौरान अल्पाहार करने से शरीर की बीमारियों का भी शमन होता है। अतः नवरात्रों का न केवल धार्मिक महत्व है बल्कि वैज्ञानिक महत्व भी है।

हरियाणा की सांझी माई को नौ दिनों तक पूजा जाता है तथा दशहरे के दिन माई को तालाब या जोहड़ में इस प्रार्थना के साथ विसर्जित किया जाता है कि ‘माई तूं अगले साल फेर आईये और हमारे घरों मंे खुशियां लाईये’।

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                                                                                       डॉ. के कृष्ण आर्य    

बुधवार, 20 अगस्त 2025

वेद की ऋचाएं ही थी गोपियां ?



 वेद की ऋचाएं ही थी गोपियां ?

भगवान श्रीकृष्ण की महानता का बखान करना सहज नहीं है। उनके जीवन में गोपियांे का महत्ता प्रकाश रहा है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण सदैव गोपियों में रमण करते थे तथा नित्य उन्हीं के चिंतन में लगे रहते थे। इतना ही नही, वह गोपियों के वस्त्र चुराने, रासलीला करने तथा अपना अधिकतर समय उन्हीं के साथ व्यतीत करते रहते थे। परन्तु श्रीकृष्ण का जीवन इतना उत्कृष्ट था कि आमजन द्वारा उन्हें समझना तो दूर, पढ़ना भी आसान नहीं है।

श्रीकृष्ण जन्मजन्मातरों के ऋषि रहे। सत्य सनातन वैदिक साहित्य में उनके विषय में बड़ा गहरा चिंतन दिया है। यहां गोपियों का सूक्ष्म अर्थ बड़ा गहन और स्मरणीय दिया है। गो का अर्थ गाय तथा हमारी इन्द्रियां दोनों होता है। अपनी इंद्रियों के स्वभाव को समझने, परखने और यथानुकूल सात्विक आचरण करने वाले स्त्री-पुरुष को गोपी या गोप कहा गया है। श्रीकृष्ण भी ऐसे ही एक गोप थे, जो अपनी इंद्रियों को वासना रहित बनाने में लीन रहते थे। अतः इंद्रियों के आचरण को शुद्ध करने में प्रयासरत रहने के कारण ही उन्हें गोपिका रमण भी कहा गया, इसे ऐसे ही समझना चाहिए।

सोलह हजार गोपियों का सत्य-

पुराणों में श्रीकृष्ण की सोलह हजार गोपियां बताई गई है और वह सदैव उन्हीं में रमण करते रहते थे। इस संबंध में गर्ग मुनि महाराज ने सुन्दर व्याख्या करते हुए गर्ग संहिता में वेद की ऋचाओं को भी गोपियां कहा हैं। वेद के मंत्रों को ऋचाएं कहते हैं। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त की पुस्तकों में भी ऐसा ही स्वीकार किया है। अतः वेद की ऋचाओं अर्थात् वेद के गोपनीय मंत्र ही गोपियां है। 

महर्षि ब्रह्मा से लेकर जैमिनी और ऋषि दयानन्द पर्यन्त सभी ने चार वेद स्वीकार किए हैं। इनमें सृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित है। इन चार वेदों में सम्मिलित ऋग्वेद में ज्ञान, यजुर्वेद में कर्म, सामवेद में उपासना तथा अथर्ववेद में विज्ञान विषय निहित है, जिनमें कुल 20,346 मंत्र हैं। इनमें से भगवान श्रीकृष्ण को सोलह हजार से अधिक वेदमंत्र कंठस्थ थे। इतना ही नहीं श्रीकृष्ण इन्हीं वेदमंत्रों के अर्थों को समझने एवं उनमें छुपे रहस्यों पर नित्य अनुसंधान करते और यथानुकूल आचरण करते थे। श्रीकृष्ण इन्हीं वेदमंत्र रूपी गोपियों में सदैव रमण करते थे। 

इस कार्य में वह इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें कभी खाने-पीने तक का भी आभास नहीं रहता था। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त की पुस्तक ‘महाभारत एक दिव्य दृष्टि’ के अनुसार ‘श्रीकृष्ण को सोलह हजार आठ वेद की ऋचाएं कण्ठस्थ थी।’ इसका उल्लेख मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी किया है। श्रीकृष्ण ने अपने जीवन का अधिकतम समय इन्हीं वेद की ऋचाओं अर्थात् गोपियों के साथ व्यतीत किया। परन्तु आधुनिक काल में इसे भगवान श्रीकृष्ण की 16108 गोपियां (रानियां) बना दिया है, जोकि अर्थों का अनर्थ ही समझना चाहिए। 

राधा रमण-

लोकाचार में यह प्रचलित है कि श्रीकृष्ण की 16108 गोपियां थी। श्रीकृष्ण उनमें राधा से विशेष प्रेम रखते थे और वह सदैव राधा के साथ एकान्तवास में रमण रहते थे। यह स्थूल वाक्य है परन्तु यदि इसका सही अर्थ समझे तो इसमें भी श्रीकृष्ण की महानता का ही चित्रण होता है। परन्तु तथाकथित विद्वानों ने इसे भिन्न शरीरों से जोडक़र भगवान श्रीकृष्ण को बदनाम करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। इससे समाज में अनेक भ्रांतियों ने जन्म ले लिया और अंतरिक्ष को दूषित किया। अतः लोकाचार में राधा को कहीं कृष्ण की सखी, माता, पुत्री या मामी दिखाया गया है, जिसे कपोल-कल्पित समझना चाहिए। 

ऋग्वेद के भाग-1, मंडल-1, मंत्र 2 में राधस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ समस्त सुखों एवं वैभव का प्रतीक बताया है। ऋग्वेद (2/3,4,5) के मंत्रों में सुराधा शब्द श्रेष्ठ धनों के रूप में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद के ही एक मंत्र में राधा एवं आराधना शब्द को शोध कार्यों के लिए प्रयोग किया गया है। वस्तुतः सनातन वैदिक साहित्य में राधा शब्द संसार, ऐश्वर्य एवं श्री इत्यादि को धारण करने के लिए प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद (1,22,7) के एक मंत्र में कहा है।

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्।

यहाँ गोपियां हमारी इन्द्रियों तथा राधा आत्मा को कहा गया है। इसका काव्यांश अर्थ है कि ‘वह सब के हृदय में विराजमान, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्ट्रा जो राधा को गोपियों (इंद्रियां) से निकालकर ले गए’, वह ईश्वर हमारी रक्षा करें। अतः वह इन्द्रिय दोषों से हमारी आत्मा (राधा) की रक्षा करने वाला ईश्वर ही है। 

अर्थात् श्रीकृष्ण अपनी आत्मा रूपी राधा को गोपियां अर्थात् इन्द्रिय दोषों से निकाल कर एकांत में रमण करते थे। इसका अर्थ हुआ कि श्रीकृष्ण योग में इतने लीन रहते थे कि वह अपनी राधाई आत्मा को गोपीय (इंद्रिय) दोषों से दूर रखते थे। अतः श्रीकृष्ण की आत्मा सदैव एक द्रष्ट्रा की भूमिका में रहती थी। उनका स्वयं पर इतना नियंत्रण होता था कि वे अपनी पांचों ज्ञान इंद्रियों को किसी दोष की ओर आकर्षित नहीं होने देते थे। इतना ही नहीं, वह अपनी आंतरिक प्रेरणा से इंद्रिय दोषों के संस्कारों को आत्मा और चित्त पर भी नहीं पड़ने देते थे। इसके लिए श्रीकृष्ण सदैव चिन्तन, मनन और निदिध्यासन में रत रहते थे। इसलिए ही महर्षि दयानन्द सरस्वती ने श्रीकृष्ण को जीवन में कभी कोई अधर्म कार्य नहीं करने का प्रमाणपत्र दिया है। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त ने भी उन्हें आप्त पुरुष स्वीकार किया है। अतः राधा का पर्याय आत्मा और गोपिकाओं का दस इंद्रियां एवं उनकी वासनाओं को समझना चाहिए।

कैसे शुद्ध होगा ब्रह्मांड-

जब ब्रह्मांड की किसी भी धरा पर ईश्वरीय व्यवस्थाओं का लोप होता है तो उससे उत्पन्न नकारात्मक प्रभाव से अन्तरिक्ष दूषित होने लगता है। इससे जीवों को उत्तम वृष्टि, सद्भावनाओं से युक्त विचारधारा तथा खाद्य पदार्थों की कमी होने लगती है तथा व्यवस्थाएं चरमरा जाती हैं। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त के अनुसार ‘सुक्ष्म शरीर से अन्तरिक्ष में रमण करने वाली आत्माओं को देवता कहते हैं’। अर्थात वे आत्माएं अपने सूक्ष्म शरीर के माध्यम से सृष्टि पर दृष्टिपात करती हुई स्वछंद रूप से गमन करती हैं। 

ऐसी स्थिति में मुमुक्षु (मोक्ष के निकट) एवं सृष्टिद्रष्टा आत्माएं ईश्वर की प्रेरणा और व्यवस्था से धरा पर जन्म लेने का संकल्प लेती हैं ताकि व्यवस्थाओं में सुधार कर समाज में धर्म का पुनरुत्थान हो सके। इसी से ब्रह्मांड का शौधन होता है। इस तथ्य को स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता संदेश में अर्जुन के सामने प्रकट करते हुए भी कहा कि... 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे

अर्थात् संसार में जब-जब धर्म की हानि होती है, अत्याचार और अनाचार बढ़ता है तो उन (कृष्ण) जैसी आत्माएं संसार में पदार्पण करती हैं और लोगों को धर्म अर्थात् कर्त्तव्यपथ पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं। इतना ही नहीं, ईश्वरीय व्यवस्थाओं की स्थापना के लिए ऐसी दिव्य आत्माएं युग-युग में जन्म लेती हैं। 

अतः श्रीकृष्ण एक ऐसी महान आत्मा थे, जिन्होंने व्यवस्थाओं के सुधार के लिए कभी धर्म के मार्ग का त्याग नही किया। उनका जीवन न केवल युगों तक मानव जाति को प्रेरणा देता रहेगा बल्कि संसार के लिए सदैव अनुसंधानात्मक विषय रहेगा। उनके विषय में फैली गलत धारणाओं का समाप्त करने से ब्रह्मांड का शौधन भी होगा।

धन्यवाद।


                                                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

पूतना एक महामारी थी ?

                                                     



पूतना एक महामारी थी ?

संसार में सबसे अधिक यदि किसी विषय पर लिखा जाता है तो वह श्रीकृष्ण है। उनका जीवन अनेक रहस्यों से भरा रहा है। हम कभी उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं तो कभी रसिया बोल देते है। कभी अवतार मानते हैं तो कभी गोपियों के वस्त्र चुराने वाला बता देते हैं। कभी हम उनकी बाल लीलाओं को सुनकर हर्षित होते है तो कभी सोलह कलाओं का बखान करने लगते हैं। हमारे दिमाग में कभी पूतना की विशालकाय आकृति तैरने लगती है, तो कभी हम राधा की मनमोहक छवि से अभिभूत हो जाते हैं। अतः भगवान श्रीकृष्ण एक ऐसे परमपुरुष थे, जिनके जीवन के रहस्यों पर अनेक विद्वानों ने अपनी समझ से व्याख्या की है।
यह महापुरुष 3170 वर्ष विक्रमी सम्वत् पूर्व भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण योग, वृष लग्न, अष्टमी तिथि, अर्ध रात्रि चन्द्रोदय शून्यकाल में माता देवकी के गर्भ से अवतरित हुए। बालक का श्याम वर्ण, घुंघराले केश, कमल की भांति सुन्दर एवं विशाल नयन, तेजोमय चेहरा तथा स्फटिक की भांति कांतिमय शरीर विशेष आभा से दमक रहा था। उनके नामकरण के समय गर्ग मुनि ने कहा कि यह बालक षड्विध ऐश्वर्य के स्वामी, भगवान विष्णु की भांति प्रजापालक होगा। नरों में सिंह के समान बल वाला यह बालक नरसिंह कहलाएगा। अतः इसके गुण स्वभाव के अनुरूप यह बालक कृष्ण नाम से विख्यात होगा। कृष्ण पक्ष की अन्धेर रात्रि में चन्द्रोदय काल में जन्में कृष्ण को कृष्ण चन्द्र के नाम से जाना जाएगा। परन्तु माता यशोदा बाल कृष्ण को पीताम्बर वस्त्रों से विभूषित कर लाड लड़ाती थी।
इस बालक के जीवनकाल में अनेक ऐसी घटनाएं घटित हुई, जिनकी तुलना इतिहास में अन्य किसी से नही की जा सकती है। उन्होंने अपने जीवनकाल में पूतना संहार, कालीदह की घटना, राक्षससों का दमन तथा अनेक असाधारण कार्यों को अन्जाम दिया। वह एक यशस्वी, तेजस्वी, बलस्वी, धनस्वी, तपस्वी तथा धर्मात्मा की पूर्णता को प्राप्त थे, जिसके कारण भगवान कहलाए। उनके जीवन में राधा रमण, गोपियों संग रासलीला जैसे अध्याय भी सम्मिलित हैं, जिनसे उनके जीवन का अलग पहलू दिखाई देता है। ऐसे प्रकरणों का विशुद्ध लेखन मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में प्रकट करने का प्रयास किया है ताकि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से संबंधित ऐसे अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सके।
पूतना संहार-
बचपन से ही श्रीकृष्ण का जीवन विस्मित करने वाली घटनाओं से भरा रहा है। मान्यता है कि कृष्ण के गोकुल पहुँच जाने की सूचना पर कंस आग बबूला हो गया और उसने उस रात्रि में पैदा हुए सभी बच्चों की हत्या करने के आदेश दे दिए। कंस ने यह कार्य करने के लिए पूतना को लगाया। वह एक विशालकाय राक्षसी बताई गई है। ऐसा मानते हैं कि पूतना ने जब कृष्ण (लल्ला) को मारने के लिए विषाक्त स्तनों से दूध पिलाना आरम्भ किया तो कृष्ण ने स्तनों को जोर से खींच दिया और पूतना की मौत हो गई।
हमारे वैद्यक शास्त्रों में पूतना को अन्य प्रकार से परिभाषित किया है। आयुर्वेद की एक विख्यात पुस्तक सुश्रुत में पूतना को प्रसूता माताओं से नवजात बच्चों में होने वाला बालरोग का नाम बताया है, जिसके कारण मां का दूध पीते ही बच्चे बीमार होकर मौत का ग्रास बन जाते हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय गोकुल एवं आसपास क्षेत्र की प्रसूता माताओं में ऐसा रोग फैला हो, जिनके स्तनपान से बच्चे बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते होंगे।
इस संबंध में आयुर्वेद के अन्य ग्रन्थ ‘कुमार तंत्र समुच्चय’ में विशेष जानकारी दी है। इस ग्रन्थ में बच्चों को होने वाले रोग और उनके निवारण के उपाय दिए हैं। ऐसी धारणा है कि इसकी रचना रावण द्वारा की गई थी। वर्तमान में श्री रमानाथ द्विवेदी एवं श्री अशोक कुमार वर्मा द्वारा इस पर टीका लिखी गई है। इसके अनुसार इस रोग से पीड़ित बच्चे अजीर्णता, पेट का बढऩा, शरीर कमजोर होना तथा मां का दूध नहीं पीने जैसी अन्य बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। यह रोग मृत्यु का कारण भी बन जाता है।
बालक कृष्ण के विषय में इस पर दो विकल्प हो सकते हैं। पहला उस समय बालक कृष्ण ने माता यशोदा का दूध पीया न हो, जिसके कारण उसे कोई हानि नहीं हुई होगी। दूसरा-माता यशोदा उस दौरान इस बीमारी से ग्रसित न रही हो। इसलिए पूतना नामक उस राक्षस का बालक कृष्ण पर कोई प्रभाव न पड़ा हो।
अथर्ववेद में रोग को भी राक्षस कहा है, इसलिए पूतना राक्षस का अर्थ पूतना रोग ही समझना चाहिए। सम्भव है कि इसी पूतना नामक रोग ने अधिकतर बच्चों को मौत का ग्रास बनाया हो। परन्तु शारीरिक बल, रोग प्रतिरोधक क्षमता और पारिवारिक सुरक्षा के कारण पूतना रोग बालक कृष्ण का कुछ नहीं बिगाड़ सका। इस तरह बालक कृष्ण पूतना को मारकर स्वयं को जीवित रखने में सफल रहे। इसी को अलंकारिक भाषा में कृष्ण द्वारा पूतना संहार माना जाए।
सुश्रुत एवं कुमारतंत्र के अनुसार यह रोग 3 दिन, 3 माह या 3 वर्ष की अवस्था में बालक को प्रभावित करता है। अतः सम्भव है कि उस समय कृष्ण की आयु 3 दिन से 3 महीने के आसपास रही होगी। इससे लगता है कि साहित्यकारों ने इस घटना को एक जीवित प्राणी के रूप में प्रस्तुत कर दिया है।
भागवत एवं अन्य पुराणों में पूतना का शरीर कहीं छह कोस तो कही 4-5 योजन बताया गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने पूतना के 4-5 योजन लम्बे शरीर पर प्रश्नचिह्न लगाया है, जिसकी गणना इस प्रकार है।
एक कोस = 3.62 किलोमीटर
छह कोस = 3.62 गुणा 6 = 21.72 किलोमीटर = लगभग 22 किलोमीटर
एक मील = 1.609 कि.मी. तथा एक योजन = 8 मील
अतः आठ मील = एक योजन = 1.609 गुणा 8 = लगभग 13 कि.मी
पांच योजन = 13 गुणा 5 = 65 कि.मी.
इस तरह पूतना नामक यह बीमारी न्यूनतम लगभग 20 कि.मी. से 60 कि.मी. क्षेत्र तक फैली होगी। इसका उदाहरण कोरोना राक्षस को समझा जा सकता है, जिसका शरीर पूरी पृथ्वी के समान था। अतः पूतना की लम्बाई के विषय में पुराणों की बात भी कहीं न कहीं सत्य प्रतीत होती है परन्तु उसके अर्थ बदल गए हैं।
कालीदह-
कालीदह घटना का वर्णन अनेक पुस्तकों में लगभग एक समान ही दर्शाया गया है कि यमुना नदी के आसपास कालिया नामक नाग परिवार रहता था। वह यमुना नदी के पास आने वाली गऊओं एवं बछड़ों का भक्षण करता था और अपना विष नदी में छोडक़र पानी विषैला कर रहा था। इससे गांव के ग्वाल-बाल एवं लोग दुःखी रहते थे। अतः वे सभी मिलकर कृष्ण के पास गए और उन्हें पूरा वृत्तान्त सुनाया। यह सुन कृष्ण ने खेल-खेल में एक गेंद को पानी में उसी स्थान पर फेंक दिया जहाँ कालिया नाग रहता था। गेंद को निकालने के लिए कृष्ण यमुना के गहरे पानी में कूद गये और युद्ध में कालिया नाग, उसकी पत्नियों तथा बच्चों सहित सभी को पछाड़ दिया। इससे भयभीत हो नाग पत्नियों की प्रार्थना पर कृष्ण ने कालिया को जीवनदान देते हुए उसे स्थान का त्याग कर रमणक द्वीप पर प्रस्थान करने की आज्ञा दी। इसके बाद कृष्ण, कालिया के फनों पर नृत्य करते हुए यमुना नदी से बाहर आए और गांव वालों को बड़ी राहत हुई।
इस विषय पर ब्रह्मचारी कृष्णदत्त की पुस्तक ‘महाभारत एक दिव्य दृष्टि’ में नाग मंथन विषय विस्तार से लिखा है। इस घटना का सुन्दर चित्रण करते हुए उन्होंने इसे कालीदह नाम से पुकारा है। ‘एक समय पातालपुरी (वर्तमान अमेरिका) में रक्तमयी क्रांति हुई, जिससे वहाँ पर राज्य और समाज पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप पातालपुरी के निवासी धरती के अनेक अन्य स्थानों पर जाकर निवास करने लगे। वहाँ से नाग सम्प्रदाय की बड़ी आबादी भारत में भी आकर बसने लगी। उन्होंने भारत के एक ‘कालीदय’ नामक स्थान पर अपना निवास बना लिया। यह स्थान पर्वतों के मध्य स्थित बताया गया है। वहाँ ये सभी वनवासियों की भांति अपना जीवन यापन करने लगे।’
श्रीकृष्ण जब कुछ बड़े हुए तो अपनी कुशाग्र बौद्धिक बल, वैदिक ज्ञान, वाकचातुर्य और नाग यज्ञ द्वारा उनकी सहायता करने का संकल्प लिया। कृष्ण ने उन्हें धर्म एवं शास्त्रों की जानकारी दी तथा योग एवं अन्य विधाओं की शिक्षा प्रदान की। इससे नाग समुदाय पूरी तरह से कृष्ण के पक्ष में हो गया और उनके अनुसार ही आचरण करने लगा। फलस्वरूप पूरा नाग समुदाय उनके अनुकूल हो गया और ऐसा लगने लगा था जैसे श्रीकृष्ण ने उन्हें स्वयं में धारण कर लिया। इसको नाग समुदाय को नाथने की संज्ञा भी दी गई, जिसे नाग मंथन कहा गया है। यह घटना कालीदह स्थान की है, इसलिए इसे कालीदह नाथन नाम भी कहा गया।
वसुदेव की पहली पत्नी रोहिणी को भी नाग समुदाय का बताया है। इस कारण नाग समुदाय के लोग कृष्ण को अपना देवता (दोहता) भी मानते थे, जिसके कारण वह सब कृष्ण की बातों को महत्व देने लगे। इसी कारण माता देवकी के शेष तथा नाग कन्या रोहिणी के गर्भ से प्रकट हुए दाऊ बलराम को शेषनाग से अवतरित माना गया और उन्हें शेषनाग का अवतार कहा जाने लगा। आजकल अधिकतर लोग नाग को एक सम्प्रदाय की बजाए उसे रेंगने वाला प्राणी सर्प समझते हैं, जो सही नही है।
डॉ. के कृष्ण आर्य

सोमवार, 31 मार्च 2025

नवरात्र

 नवरात्र पर देवलोक गमन कर गए थे भगवान श्रीकृष्ण


        हमारे त्यौहार हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य की गति और शारीरिक आवश्यकताओं पर आधारित विभिन्न उत्सव मनाने की व्यवस्था दी है ताकि जीवन सदैव उल्लास से भरा रह सके। तीज से लेकर होली के सभी त्यौहारों का रंग और ढ़ंग अलग-अलग है। एक त्यौहार तीज जहां सावन के झूलों के साथ मनाया जाता हैं वहीं दीवाली के दीप और होली के रंग जीवन को रंगीन बनाने वाले हैं। ऐसे ही पृथ्वी की गति और ‘अयन’ पर आधारित नवरात्र मनाए जाते हैं। यह वर्ष में दो बार ऋतु परिवर्तन पर आते हैं। एक बार उत्तरायण में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में होते हैं तो दूसरे दक्षिणायन में आश्विन मास में शुक्ल पक्ष में मनाए जाते हैं। परन्तु चैत्र मास का पहला नवरात्र हमारे सत्य सनातन वैदिक धर्म के अनुसार नववर्ष होता है। इसे नव-सम्वत भी कहा जाता है। 
           दक्षिण भारत में इसे “उगादी” के नाम से जानते हैं। ‘उगादी’ उसी भारतीय सनातन संस्कृति का संवाहक है, जो भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह वही दिन है जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना आरम्भ की थी, इसी दिन से युगों की गणना आरम्भ की जाती रही है। अतः यह दिन सृष्टिक्रम से जुड़ा है। इसलिए इसको सृष्टिवर्ष आरम्भ दिवस भी कहा जाता है। युगों की शुरूआत इसी दिन होने कारण इसे युगादि कहा गया है। इतना ही नही सनातन धर्म में वर्ष की गणना भी इसी दिन से आरम्भ की होती है, इसलिए भारतवंशी इसे नववर्ष के रूप में मनाते रहे हैं। यह पर्व चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है, अतः इसे वर्षी प्रतिपदा भी कहा गया हैं। 
            भारतीय सनातन संस्कृति के जानकार मानते हैं कि ईश्वर ने जिस दिन सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ किया था, उसी दिन को चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा कहा जाने लगा। मान्यता है कि सृजन का यह कार्य नौ अहोरात्र तक यह निरंतर चलता रहा, इसलिए इन्हें नवरात्र कहा गया है। इसी दिन से पूरे देश में नौ दिनों तक नवरात्र मनाए जाते हैं और मातृशक्ति दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब बसंत ऋतु अपने यौवन पर होती है। प्रत्येक दिशा में प्रकृति का शोधन होता दिखाई देता है। इन दिनों में सभी पेड़, पौधों एवं झाड़ियों पर रंगबिरंगे फूलों से मन प्रफुल्लित हो उठता है और वातावरण में एक मंद-मंद सुगंध का प्रवाह रहता है। पौधों पर नई-नई पत्तियों तथा फलों का आगमन होता है। प्रकृति का यह मनोहर दृश्य वर्ष में केवल इन्हीं दिनों में दिखाई देता है। 
        हमारे शास्त्रों में कहा है कि ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ अर्थात् जो हमारे पिंड यानि शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है तथा जो ब्रह्मांड में है, वही हमारे शरीर में है। इस दौरान प्रकृति की भांति प्राणियों के शरीरों में भी नवरक्त और नवरसों का संचार होता है। इसलिए इस समय को नवरस काल कहा जाता है, जो प्रकृति के साथ-साथ शरीरों में आई जड़ता को भी दूर करता है। पंजाब, हरियाणा में इसे न्यौसर कहते हैं। इस समय शरीर को सक्रिय रखने वाली ऊर्जा से मन में उल्लास भर जाता है। इस दौरान श्रद्धालु माता दुर्गा की उपासना और उपवास रखते हैं, जिससे हमारा शरीर निरोग एवं शुद्ध होता है। यह समय जल, वायु, मन, बुद्धि और शरीर के शौधन का समय होता है। इसलिए शास्त्रों में नित्य यज्ञ करने का विधान बताया है ताकि यज्ञ की अग्नि से शरीर और पर्यावरण गतिशील बन सके। यह समय शक्ति संचय और ब्रह्मचर्य पालन के लिए उत्तम बताया है, जिसके लिए योग के सभी आठ अंगों को अपनाना आवश्यक है।
         नवरात्र सृष्टि सृजन के वह दिन हैं, जिसे देश में विभिन्न रूपों में मनाए जाते हैं। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों में इसे युगादि अर्थात उगादी के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मु-कश्मीर, उत्तरप्रदेश, दिल्ली सहित कई राज्यों में इसे नवरात्र कहते हैं। इस पर्व को विभिन्न प्रदेशों में जहां अलग-अलग ढंग से मनाते हैं, वहीं उनके खाने के शौक भी भिन्न होते हैं। इस समय दक्षिण भारतीय राज्यों में श्रद्धालु पच्चडी का सेवन करते हैं। पच्चडी को कच्चा नीम, आम के फूल, गुड, इमली, नमक और मिर्च के मेल से बनाया जाता है। वहीं उत्तर क्षेत्र में नवरात्रों पर फलाहार, शामक, साबुधाना की खीर का सेवन करते हैं। इससे रक्त का शौधन होकर शरीर व्याधियांे से मुक्त होता है। इतना ही नही नवरात्रों में नई फसल के आगमन पर घरों में खुशियों का माहौल भी होता हैं।
      भारतीय नववर्ष एवं नव-संवत्सर का ऐतिहासिक महत्व भी है। हमारे तपस्वी पूर्वजों ने इस दिन की प्राकृतिक महत्ता को समझते हुए, इसे हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक पन्नों में जोड़ दिया है ताकि हमारी भावी पीढ़ियां इसे जीवन का अंग बना सके। सत्य सनातन वैदिक शास्त्रों के अनुसार 1,96,08,53,126 वर्ष पूर्व भारत की इसी धरा पर सृष्टि की रचना हुई थी। इसके उपरान्त निरंतर सृष्टिक्रम चलता आ रहा है। विभिन्न कालखंडों में अनेक यशस्वी राजाओं और महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है। उन्होंने लोगों के जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए अपनी संस्कृति के प्रसार हेतु अनेक प्रयास किए। इस दिन के महत्व को समझते हुए भगवान श्रीराम ने लगभग 9 लाख वर्ष पूर्व लंका विजय के उपरांत चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अयोध्या का राज सिंहासन ग्रहण किया था। महाभारत युद्ध के उपरांत महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था।  
         इसके साथ ही भारत के इतिहास की एक बड़ी घटना भी इसी दिन घटित हुई थी, जिसको कम लोग जानते होंगे। यह माना जाता है महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात 3045 वर्ष विक्रमी सम्वत पूर्व कलियुग का आरम्भ हुआ था। इसी दिन कलियुग प्रारम्भ होने से ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्राण त्यागकर देवलोक को गमन किया था। इस संबंध में मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि लगभग 5127 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण इसी दिन धरा को त्याग गए थे। 

        महाभारत काल के बाद देश में महान एवं तपस्वी राजा वीर विक्रमादित्य हुए हैं, उनका राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हुआ था। देश के इस महान सपूत एवं प्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य के नाम से आरम्भ हुए वर्ष को विक्रमी सम्वत कहा जाता है, जिसे 30 मार्च 2025 को आरम्भ हुए 2082 वर्ष हो गए हैं। महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। अभी भी विद्यालयों में दाखिले और व्यापारियों के बही-खातों का आरम्भ होता है। इस तरह नवरात्र हमारे देश के महान और सृष्टि सृजन का त्यौहार है। परन्तु आज हम अपनी प्राचीन संस्कृति और मान्यताओं को भूलते जा रहे हैं, जिसके कारण हमारे आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन हुआ है। अतः भारतीय समाज और जनमानस के लिए यह विचारणीय विषय है। अंत में मैं कहना चाहूंगा कि... 
मंद-मंद धरती मुस्काए, मंद-मंद बहे सुगंध।

ऐसा ‘नवरात्र’ त्यौहार हमारा, सबके हो चित प्रसन्न।।


 डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’


बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

बसंत पंचमी विशेष

 

बसंत पंचमी को ही मृत्यु लोक त्याग गए थे पितामह भीष्म

बंसत ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। यह शिशिर ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का परिचायक है। बंसत ऋतु ठंड के जाने और गर्मी के आने का बौद्ध करवाती है। सर्दी से सिकुड़े प्राणियों के शरीरों में पुनः ऊष्मा का संचार होने लगता है। शरीर की अकड़ाहट दूर होने लगती है। सर्दी के कम होने से बुजुर्ग जहां राहत का अनुभव करते हैं वहीं विद्यार्थी परीक्षाओं की तैयारी के प्रति गंभीर हो जाते हैं। 

     बसंत को प्रकृति के नवसृजन का समय माना जाता है। प्रकृति भी अपना श्रृंगार बिखेरने लगती है। खेतों में गेहूं की फसल पर आ रही बालियां और सरसों के पीले फूलों की बयार लोगों के मन को हर्षित करती है। मंडियों में धान की फसल आने से किसानों के घरों में खुशहाली का संचार होता है। इससे बाजारों में रौनक बढ़ने लगती है तथा विवाह-शादियों का सीजन आरम्भ हो जाता है। अतः लोगों के चेहरे का ओज उनकी प्रसन्नता का बखान करने लगता है।

      इस दौरान ब्रह्मांड के महत्वपूर्ण अवयव सूर्य के तेज में उत्तरोतर वृद्धि आरम्भ हो जाती है। वर्ष के 12 महीनों में सूर्य की रश्मियों की गर्माहट 12 कलाओं के रूप में प्रदर्शित होने लगता हैं। चैत्र से फाल्गुण मास तक सूर्य की गति भिन्न-भिन्न होती जाती है, जिनसे ऋतुएं बनती हैं। सूर्य की गति और कलाओं से अयन बनते हैं, जिन्हें उत्तरायण और दक्षिणायन कहा जाता है। प्रत्येक अयन में तीन-तीन ऋतुएं आती हैं। मकर सक्रांति से लगे उत्तरायण में शिशिर, बसंत और ग्रीष्म तथा दक्षिणायन में वर्षा, शरद् तथा हेमन्त ऋतु रहती हैं।

          बसंत पंचमी, माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है। इसे श्री पंचमी या ज्ञान पंचमी भी कहा जाता है। इस दिन विद्या की देवी माता सरस्वती की पूजा की जाती है। सत्य सनातन वैदिक काल से ही बसंत पंचमी का अति महत्व रहा है। इस दिन सभी आम एवं खास परिवारों के बच्चों का दाखिला गुरुकुलों में करवाया जाता था। विद्यार्थियों का उपनयन संस्कार करवाया जाता है, जिससे उन्हें विद्या की देवी माता सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। 

      हमारे शास्त्रों में कहा है कि...

‘आहार शुद्धो सत्व शुद्धि, सत्व शुद्धो ध्रुवा स्मृति’

इन दिनों खाने-पीने पर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। गुरुकुलों में आयुर्वेद के अनुसार आहार की आदतों को एक दिशा दी जाती है। इससे बालकों का सर्वांगीण विकास होता है और वे पढ़ाई के साथ-साथ वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से बलिष्ठ बनते हैं। बसंत ऋतु के दौरान आहार-विहार पर ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि यह प्रकृति के करवट लेने का समय होता है। हमारा शरीर प्रकृति का ही रूप है, उसके बदलने के साथ ही हमें भी अपनी दिनचर्या में बदलाव करने की आवश्यकता होती है। इसका बौद्ध बसंत पंचमी ही करवाती है। इस दिन से होलिका त्यौहार का आरम्भ माना जाता है तथा श्रद्धालु यज्ञ, पूजा तथा अग्निहोत्र करते हुए मीठे चावलों का भोग लगाते हैं।

      भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का सम्बन्ध भी बसंत पंचमी से रहा है। हमारे देश के एक महान राजा भोज का जन्म इसी दिन हुआ था। इस दिन एक वीर बालक हकीकत राय ने अपने सत्य सनातन वैदिक धर्म पर अड़िग रहते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। पंजाब के सियालकोट में जन्मे हकीकत राय ने मात्र 12 वर्ष की आयु में जिंदा रहने के लिए मुस्लिम बनने की शर्त को ठुकरा कर गर्दन कटवाना बेहतर समझा। इसके फलस्वरूप ही हकीकत राय ने 1734 ईस्वी में धर्म की रक्षार्थ मौत को गले लगा लिया। इसी दिन इतिहास की एक और महत्वपूर्ण घटना घटी थी, जिसको अवश्य याद रखना चाहिए। 

     कुरुवंश के ज्येष्ठ और महाभारत के महान यौद्धा पितामह भीष्म ने बसंत पंचमी के दिन ही अपने प्राण त्यागे थे।महाभारत के अनुशासन पर्व के 32 वें अध्याय के 25 श्लोक में कहा है कि...

माघोऽयं समनुप्राप्तो मासः सौम्यो युधिष्ठिर।

त्रिभागशेषं पक्षोऽयं शुक्ला भवितुमर्हति।।

अपने प्राण त्यागते हुए पितामह कहते है युधिष्ठिर ! इस समय चन्द्रमास के अनुसार माघ का महीना प्राप्त हुआ है। इसका यह शुक्लपक्ष चल रहा है, जिसका एक भाग बीत चुका है और तीन भाग शेष हैं। इस आधार पर उस समय माघ माह शुक्ल पक्ष की पंचमी का दिन बनता है, जिसे बंसत पंचमी कहा जाता है। 

     तब भीष्म ने कहा कि धृतराष्ट्र ! तुम अपने पुत्रों के लिए शोक मत करना, वह सब दुरात्मा थे। युधिष्ठिर शुद्ध हृदय है वह सदैव तुम्हारे अनुकूल रहेगा। इसके पश्चात् पितामह ने श्रीकृष्ण से कहा हे बैकुण्ठ ! हे पुरुषोत्तम ! अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। श्रीकृष्ण ने कहा कि हे महातेजस्वी भीष्म जी ! मैं आपके लिए प्रार्थना करता हूँ कि आप वसुलोक (मोक्ष) को प्रस्थान करें। इस प्रकार अपनी मातृ भूमि को प्रणाम करते हुए पितामह भीष्म ने बसंत पंचमी को अपनी देह का त्याग कर दिया। मैंने इसका उल्लेख अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी किया है।

      वर्तमान में बसंत पंचमी पर उल्लास का प्रतीक माने जाने वाली पतंगबाजी भी की जाती है। परन्तु इससे अनेक दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं। कहते हैं कि पतंगबाजी चीन, कोरिया और जापान के रास्ते से भारत आई है। हालांकि पूरे भारत में बसंत पंचमी के त्यौहार को अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल सहित अनेक प्रदेशों में इसे हर्षोल्लास से मनाया जाता है। बसंत हमारे जीवन में नवशक्ति का संचार करने वाला वह त्यौहार है, जिसके लिए कहा जा सकता है कि.. 

बसंत है त्यौहार निराला, उल्लास भरा अमृत प्याला।

चिर चेतना का संवाहक, सनातन की धधकती ज्वाला


   कृष्ण कुमार ‘आर्य’

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

कर्मयोगी कृष्ण



        
         कर्मयोगी कृष्ण पुस्तक का लेखन एक वैचारिक क्रांति और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर अन्तरिक्ष में फैली भ्रांतियों को दूर करने का एक छोटा सा प्रयास है। इस पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण से पहले की 60 पीढियों से लेकर उनके बाद की दो पीढियों का विवरण दिया है। 
          इसमें श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की वास्तविक घटनाओं, उनके द्वारा ग्रहण की गई शिक्षाएं, वैज्ञानिक उपलब्धियां, मूल द्वारका तथा श्रीकृष्ण की दिनचर्या विशेष रूप से दी गई हैं। 
        इतना ही नही एक तत्त्वद्रष्टा के तौर पर श्रीकृष्ण द्वारा युद्ध के मैदान दिया गया गीता का मूल उपदेश भी पुस्तक में दिया है। इस पुस्तक का दृष्टिकोण अभी तक श्रीकृष्ण के जीवन पर लिखी गई पुस्तकों से बिल्कुल अलग है। यह एक अनुसंधानात्मक पुस्तक है, जिसे लिखने में लगभग 40 महीने का समय लगा है। 




 

बुधवार, 6 नवंबर 2024

कुशल शिल्पी का शिल्प है-- ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’

 एक कुशल शिल्पी का शिल्प है-- ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ 



            भारत ऋषि परम्परा से अनुप्राणित दिव्य भूमि रहा है। इस दिव्य परम्परा में योगिराज शिव तथा ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यंत ऋषियों ने अपनी मनीषा से विश्व को आध्यात्मिक तथा भौतिक विज्ञान से साक्षात्कार कराया है। श्रीकृष्ण के अलौकिक जीवन में मानव जीवन की सम्पूर्णता दृष्टिगोचर होती है। श्रीराम ने जहाँ अपने जीवन से सामाजिक मर्यादाओं को स्थापित किया वहीं श्रीकृष्ण ने मानवमात्र को कर्म की महता के प्रति अनुप्रेरित किया है। 

        आर्य कृष्ण कुमार ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित पर आधारित ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ लिखा है। मैंने इस पुस्तक की मूल प्रति अच्छे से पढ़ी है। लेखक, पुस्तक में श्रीकृष्ण के जीवन तथा इतिहास के साथ न्याय करते हुए नज़र आ रहे हैं। श्रीकृष्ण चरित से सम्बन्धित फैले भ्रामक विचारों से अन्तरिक्ष को कुलीन करने का उद्देश्य लेखक ने प्रारम्भ में ही घोषित कर दिया है। 

         श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भ्रम फैलाने का सबसे अधिक काम ’सुखसागर’, ’प्रेमसागर’ तथा ’भागवत पुराण’ आदि पुस्तकों के प्रचारक एवं कथावाचकों ने किया है। इन सबने माखन चोर, मटकी फोड़, रास रचैया तथा नचकैया आदि आक्षेप लगाकर श्रीकृष्ण को उच्छृंखल ठहराने का प्रयास रहा है। लेखक लिखता है कि ‘योगबल से स्वयं को तपाने वाले श्रीकृष्ण का चरित्र अग्नि में तपे सोने के समान था, जिन पर कोई आक्षेप ठहर ही नहीं सकता।’ श्रीकृष्ण ने अनेक युद्धों का संचालन करते हुए भी कभी अपनी दिनचर्या का त्याग नहीं किया। अतः वह जीवनपर्यन्त एक महान् अग्निहोत्री, महान् योगी, महान् वैज्ञानिक तथा महान् ब्रह्मचारी बने रहे। 

        लेखक ने पुस्तक के माध्यम से अनेक अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने का भी सफल प्रयास किया है। उदाहरणतः ’श्रीकृष्ण की आत्मा के विषय में धारणा है कि वह क्षीर सागर में निवास करती थी।’ यहाँ लेखक क्षीर सागर को मोक्ष के रूप में व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि क्षीर सागर वह स्थान है जहाँ निरन्तर पवित्रता हो। यहाँ पर जीवात्माएं अपनी ज्ञानन्द्रियों से विभिन्न रसों की अनुभूति करते हुए स्वच्छन्द विचरण करती हैं। ऐसा वह स्थान केवल अन्तरिक्ष ही हो सकता है। जो विशुद्ध है, सीमातीत और सदैव है। श्रीकृष्ण जैसी अनेक आत्माएं वहां से ही ब्रह्मांड की घटनाओं को निहारती रहती हैं।

        भागवत आदि पुस्तकों में भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का घृणित व्याख्यान है। महाभारत में युवा श्रीकृष्ण और उसके बाद के जीवन एवं कार्यों का वर्णन है। इन ग्रन्थों में श्रीकृष्ण का अपूर्ण जीवन मिलता है। किन्तु लेखक ने अपनी विवेकशील लेखनी से भगवान श्रीकृष्ण जी के जन्म से पूर्व की परिस्थितियों से लेकर निर्वाण गमन तक के सम्पूर्ण जीवन को सप्रमाण क्रमबद्ध प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। लेखक ने जहां जैन परम्परा के ग्रन्थों को उद्धृत किया है, वहीं ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी (पूर्वजन्म के श्रृंगी ऋषि) के सुषुप्ति अवस्था में दिए गए प्रवचनों से महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं। 

        लेखक ने श्रीकृष्ण की वंशावली को बड़े पुरुषार्थ तथा प्रामाणिकता से प्रस्तुत कर जहाँ हमारे प्राचीन इतिहास का गौरव बढ़ाया है वहीं श्रीकृष्ण के द्वारा किये अद्भुत कार्यों का प्रभावी ढंग से प्रस्तुतिकरण किया है। ऋषि सांदीपनि के गुरुकुल में विद्याध्ययन, गृहस्थ जीवन तथा युद्धों में रहते हुए भी श्रीकृष्ण की दिनचर्या कैसे नियमित थी, यह केवल इसी पुस्तक में मिलेगा अन्यत्र कहीं नहीं। पुस्तक के पठन में कहीं-कहीं तो पाठक शून्य सी अवस्था में पहुँच जाता है। यथा द्वारिका में यदुकुल का विनाश तथा श्रीकृष्ण का निर्वाण प्रकरण बहुत मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी है। सारांश रूप में कहूँ तो लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित के प्रत्येक प्रकरण को कुशल शिल्पी की भाँति प्रामाणिक तथा प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

       इस पुस्तक को लिखने के लिए लेखक के पुरुषार्थ की प्रशंसा करता हूँ तथा उनके सुन्दर स्वास्थ्य एवं उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। विश्वास हैं कि पाठक ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ को पढक़र भगवान श्रीकृष्ण के जीवन तथा इतिहास पर गर्व करेगा। मेरी इच्छा है कि यह पुस्तक प्रत्येक घर में तथा प्रत्येक युवा एवं विद्यार्थी के हाथ में पहुंचे, जिससे वे श्रीकृष्ण के आदर्श चरित्र को समझकर अपने स्वयं के जीवन को ऊँचा उठा सकें। 

        इस सफल लेखन पर मैं, लेखक श्री कृष्ण कुमार आर्य जी को पुनः हृदय से शुभ आशीर्वाद प्रदान करता हूं।


मंगलाभिलाषी

संत विदेह योगी, महर्षि दयानन्द सेवा सदन, कुरुक्षेत्र, हरियाणा 

                                                                                                                 कृष्ण आर्य


मंगलवार, 5 नवंबर 2024

पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ का विमोचन

             






पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ का विमोचन 
हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री नायब सिंह सैनी ने आज पंचकूला में आयोजित तीसरे पुस्तक मेले के उदृघाटन अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण की जीवनी पर आधारित पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ का विमोचन किया। इस पुस्तक का लेखन सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग हरियाणा में कार्यरत जिला सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी कृष्ण कुमार आर्य ने किया है। मुख्यमंत्री ने इस कार्य के लिए लेखक को बधाई और ऐसी कृति की रचना के लिए शुभकामनाएं दी।            
         उन्होंने मेले में सभी पुस्तक स्टॉलों का निरीक्षण किया। उन्होंने कहा कि पुस्तकें हमारी मार्गदर्शक होती है और अच्छी पुस्तकें तो हमारे जीवन की धारा को भी बदल देती है। इसलिए सभी को पुस्तकों का स्वाध्याय नियमित तौर पर करना चाहिए। उनके साथ पुस्तक मेले के आयोजक एसईआईएए के चेयरमैन श्री पी के दास, कालका की विधायक श्रीमती शक्ति रानी शर्मा सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति मौजद थे। लेखक कृष्ण कुमार आर्य ने पुस्तक के विषय में जानकारी देते हुए बताया कि इस पुस्तक मंे श्रीकृष्ण की पूरी जीवनी को लिखा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जीवन का आधार कर्म है और कर्म की सिद्घि केवल कर्तव्य पालन के मार्ग से होकर ही गुजरती है। कर्महीन और कर्त्तव्य विमुख व्यक्ति कभी धर्मात्मा नहीं हो सकता है। उनके इसी उपदेश को श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित नव संकलित पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में सहेजा गया है। 
          भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि 
 ’’न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किश्चन। नान वाप्तम वाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि’’ 
 भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नही है अर्थात् करने योग्य नही है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न ही आवश्यकता है, फिर भी निष्फल भाव से कर्म करता हूँ। इसी को आधार बनाकर लेखक ने इस पुस्तक की रचना की है। 

          आर्य ने बताया कि पुस्तक में श्रीकृष्ण की जीवनशैली को प्रदर्शित करने के लिए विषय-वस्तु को 244 पृष्ठों पर ग्यारह अध्यायों में विभक्त किया गया है। इसमें लगभग 130 मंत्र, श्लोक एवं सूक्तियां तथा पुस्तक को समझने में सहायक आठ आलेख दिए हैं। पुस्तक का पहला अध्याय ‘श्रीकृष्ण की वशांवली’, दूसरे व तीसरे अध्याय में उनके बाल्यकाल की प्रमुख घटनाएं तथा अध्याय चार में गोपी प्रकरण व कंस वध का विवरण दिया है। पुस्तक के पाँचवें अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा महर्षि सांदीपनी एवं अन्य ऋषि आश्रमों में ग्रहण की गई ‘शिक्षाओं तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों’ का वर्णन किया गया है। यह अध्याय अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान तथा सुदर्शन चक्र, सौमधुक, मौनधुक, सौकिक यान एवं सोमतीति रेखा का अन्वेषण श्रीकृष्ण की महानता का परिचय देता हैं। 
          उन्होंने बताया कि इसके छठे अध्याय में ‘द्वारका की अवधारणा’ तथा श्रीकृष्ण की दिनचर्या को प्रदर्शित करने वाला सातवां अध्याय ‘दैनंदिनी विमर्श’ दिया है। पुस्तक के आठवें अध्याय में महाराज युधिष्ठिर के ‘राजसूय में कृष्णनीति’ तथा नौवें अध्याय में ‘श्रीकृष्ण का तात्त्विक संप्रेषण’ पर विस्तार से उल्लेख है। जैसा कि माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण एक उत्कृष्ट एवं प्रभावी वाक्चार्तुय एवं वाक्माधुर्य से धनी थे, जिसका प्रत्यक्ष दर्शन पुस्तक में होगा। इसके साथ ही दसवें अध्याय में ‘जय में श्रीकृष्ण नीति’ तथा अन्तिम ग्यारहवें अध्याय में ‘महां-भारत में श्रीकृष्ण के महां-प्रस्थान’ का वर्णन किया है। 
पुस्तक में श्रीकृष्ण के यौगिक बल, दिव्य उपलब्धियां, उत्कृष्ट वैज्ञानिकता, महान तत्त्ववेत्ता, जनार्दन एवं ब्रह्मवेत्ता के तौर पर परिचय करवाया गया हैं। इसके साथ ही अकल्पनीय श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े अनेक ऐसे तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है, जिनको पढक़र विशेषकर नई पीढ़ी में विशेष आभा का संचार होगा। श्रीकृष्ण के महानिर्वाण की घटना का प्रस्तुतिकरण पाठक को शुन्य की अवस्था में ले जाने वाला है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण के सामने ही यदुवंश और उनके पुत्र-पौत्रों की हत्या की गई। परन्तु वे लेशमात्र भी अपने धर्म एवं कर्म से विमुख नही हुए। उनका कहना है कि पुस्तक को पूर्ण करने में लगभग 40 माह का समय लगा। पुस्तक में महाभारत, गर्ग संहिता, वैदिक साहित्य, उपनिषद्, श्रीमद्भगवत गीता तथा जैन साहित्य सहित लगभग दो दर्जन पुस्तकों के संदर्भ सम्मिलित किए गए हैं। पुस्तक सतलुज प्रकाशन द्वारा पंचकूला से प्रकाशित की है। उन्होंने बताया कि पुस्तक का पाँचवा एवं सातवाँ अध्याय अद्भूत है, जो श्रीकृष्ण को भगवान एवं योगेश्वर श्रीकृष्ण होने का परिचय देते हैं तथा इसके बाद के अध्याय श्रीकृष्ण की महानता के दिव्य दर्शन करवाते हैं।

कृष्ण कुमार आर्य 

गुरुवार, 31 मार्च 2011

नवरात्र


नवरात्र बन सकते है नवप्रभात, यदि...

भारत एक प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का देश है। यहां के लोगों द्वारा समय-समय पर विभिन्न त्यौहार मनाए जाते हैं। इन त्यौहारों के माध्यम से हम प्राचीन महापुरूषों तथा उनकी शिक्षाओं का स्मरण करते हैं। इससे समाज में नया जोश व उमंग भर जाता है। गांवों में एक सामान्य कथन आमतौर पर सुना जा सकता है, जिसके तहत त्यौहारों के आवागमन को दर्शाया गया है कि
आई तीज, बिखेर गई बीज।
आई होली, ले गई भर के झोली।।
देश में हर वर्ष अप्रैल से मार्च माह तक दर्जनों त्यौहार मनाए जाते है। ये त्यौहार हरियाली तीज से शुरू होते हैं और जन्माष्टमी, अहोई अष्टमी, दूर्गाष्टमी, दशहरा दीवाली और होली पर समाप्त हो जाते है। इसी दौरान मार्च व अक्तुबर में वर्ष में दो बार नवरात्रों को लोग बड़े चाव से मनाते है। नवरात्रों में लोग देवी दुर्गा माता की पूजा-अर्चना करते है और उनके आर्शीवाद के लिए उपवास रखते हैं।
अधिकतर लोगों द्वारा नौ दिनों तक मनाए जाने वाले नवरात्रों को मनाने के तरीके अमूमन एक जैसे ही होते हैं और उनमें से एक तरीका है उपवास (व्रत) रखने का! नवरात्रों के दौरान श्रद्घालु वर्ग में से कुछ लोग सभी नवरात्रों का व्रत रखते है, तो कुछ एक, दो या इससे अधिक दिन तक भूखे रह कर माता के दरबार में मन्नत मांगते है। नवरात्रों पर वैदिक और पौराणिक दो प्रकार की मान्यताएं हैं। आम आदमी इन्हीं को सामने रखते हुए नवरात्रों में माता की पूजा करते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में महिषासुर नामक एक राक्षस हुआ करता था, जिसने चारों ओर उत्पात मचा रखा था। उसने देवताओं (श्रेष्ठ लोगों) को बन्दी बनाया और उन पर अत्याचार करने लगा। मुसिबत में फंसे देवताओं ने उससे छुटकारा पाने के लिए दुर्गा माता की उपासना और प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। देवताओं की प्रार्थना पर दुर्गा माता शेर पर सवार होकर ‘अष्टभुज’ रूप धारण करके महिषासुर का अन्त कर दिया। उसी समय से लोग इन दिनों को दुर्गा दिवसों अर्थात नवरात्रों के रूप में मनाते हुए माता की पूजा करते हैं।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र (मार्च माह)और आश्विन माह (अक्तुबर) के शुक्ल पक्ष में नवरात्र मनाए जाते है। इन दिनों मौसम की समावस्था होने के कारण गर्मी या सर्दी की अधिकता नही होती अर्थात यह समय गर्मी व सर्दी के आवागमन का होता है। चैत्र मास में पृथ्वी की गति तेज हो जाती है और सुर्य की गति धीमी होने लगती है। इसके कारण दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती है। सूर्य उत्तरायण में निकलने लगता है। इसके विपरित आश्विन मास में पृथ्वी और सूर्य दोनों की गति पर विपरित प्रभाव पड़ने से सूर्य दक्षिणायण में निकलने लगता है। परिणामतः दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती है।
यह समय नई फसल के आगमन का भी होता है, जिससे प्रत्येक घर खुशियों से भरा होता है। सभी लोग अपने-2 घरों में यज्ञादि शुभ कार्यों से परमपिता परमात्मा का आभार व्यक्त करते हैं। इन्हीं यज्ञों के अनुष्ठान से ही पृथ्वी की समावस्था को गति मिलती है।
ऋषियों और प्राचीन मान्यताओं को आधार माना जाए तो इन नवरात्रों में 9 प्रकार के यज्ञ किए जाते हैं। इन 9 यज्ञों को ही दुर्गा माता के नवरूपों के तौर पर माना गया है। मां दुर्गा के लिए किए जाने वाले ‘ब्रह्म यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शिव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, कन्या यज्ञ, वृष्टि यज्ञ, पुत्रेष्टि यज्ञ, सोमभूमि यज्ञ तथा अनुकृति यज्ञ सहित इन 9 यज्ञों में माता के दर्शन समाहित है।
शास्त्रों के अनुसार परमात्मा के गुणों का मनन, चिन्तन तथा स्वाध्याय करना ‘ब्रह्म यज्ञ’ कहलाता है। इनसे सदगुणों को जीवन में उतार कर दूसरों की रक्षा करना, उनका पालन व दुरितों का विनाश करना तथा विद्या प्राप्ति से स्वयं व दूसरों को आप्त पुरूषों के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना ही ‘विष्णु यज्ञ, शिव यज्ञ तथा ऋषि यज्ञ’ कहा गया है। दुर्गा माता के एक रूप को पृथ्वी एवं प्रकृति भी कहा गया है, इसी प्रकार कन्या को भी पृथ्वी कहा गया है। इस लिए अपने शुभ कार्यो द्वारा कन्या को पुष्ट करना तथा समय पर वर्षा होने व करवाने को ‘कन्या यज्ञ व वृष्टि यज्ञ’ कहते है।
देश, धर्म व मातृशक्ति का सम्मान करवाने वाला गुणवान, सदाचारी और मानवमात्र के लिए कार्य करने वाले पुत्र की प्राप्ति ही ‘पुत्रेष्टि यज्ञ’ होता है। वर्षा से सर्वसाधारण, गरीबों, किसानों व जरूरतमंदों की अन्न जल और औषधियों से रक्षा करना और करते ही रहना ‘सोमभूमि यज्ञ तथा अनुकृति यज्ञ’ कहलाता है। इन्हीं 9 यज्ञों को ही दुर्गा मां के 9 रूप माना गया है, जिन्हें नवरात्रों की परिभाषा भी जाती है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने गीता उपदेश में कहा है कि-
‘अष्टचक्राः नवद्वाराः देवनाम् पुःयोध्या’
भगवान श्री कृष्ण ने मानव शरीर को आठ चक्रों और नवद्वारों से बनी दिव्य नगरी माना है। ‘मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, हृदय चक्र,  विशुद्घि चक्र, सौषुम्ण ज्योति चक्र तथा चक्र दर्शन’ मानव शरीर के आठ चक्र है, जिन में ध्यान लगा कर व्यक्ति परमात्मा का आभास कर सकता है। नवद्वारों में ‘कान, आंखें, नाक (प्रत्येक दो), त्वचा तथा मल व मूत्र इंद्रियां मानव शरीर के 9 द्वार है। इन सभी चक्रों एवं द्वारों के योग से ही इस अयोध्या नगरी रूपी शरीर का निर्माण होता है। इन द्वारों पर संयम रखने से ही व्यक्ति परमात्मा तथा दुर्गा माता का आर्शीवाद प्राप्त करने का अधिकारी होता है। मानव शरीर का अध्ययन कर ही महर्षि मनु ने प्राचीन काल की अयोध्या नगरी का निर्माण कराया था।
गीता में आहार, निंद्रा और ब्रह्मचर्य के तप व नवद्वारों के शोधन से मानव शरीर रूपी इस अयोध्या नगरी को शोधित करने का उपदेश है। जिस प्रकार नवरात्रों में दुर्गा के नवयज्ञों द्वारा वायुमंडलीय गन्दगी को धोया जाता है, ठीक उसी प्रकार नवरात्रों में मनुष्यों को अपने नवद्वारों की वासनाओं पर काबू में रखना चाहिए, जिससे मां दुर्गा का आर्शीवाद सहजता से प्राप्त हो सके।
प्राचीन आचार्यों ने नवरात्रों की तुलना माता के गर्भ के नवमासों से भी की है, जहां मल और मूत्र की अधिकता होती है। इस दौरान यहां रूद्र रमण करते है, नाना रूपों में विभिन्न धाराएं मानो ठहर जाती है, जहां अन्धकार ही अन्धकार होता है। यही नवरात्र हैं यानि माता के गर्भ की 9 रातें।
इन्हीं नवरातों (नवमासों) में आत्मा, माता के गर्भ की काल कोठरी में वास करती हुई अपने शरीर का निर्माण करवाती है। यह सिलसिला जन्मजन्मान्तरों में चलता रहता है। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य, दुर्गा मां की अष्ट भुजाओं को अपना सकते है। इससे मानव अपने नवद्वारों का शोधन कर सकता है।
माता दुर्गा की ये आठ भुजाएं, महर्षि पांतजलि के योगदर्शन के वही आठ अंग है, जिनको अपना कर आत्मा ऊर्धव गति को प्राप्त होता है। योगदर्शन के ये आठ अंग है- ‘यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि’ हैं। महर्षि पांतजलि के अनुसार आत्मा इन्हीं आठ भुजाओं को अपना कर जन्मजन्मान्तरों तक माता के गर्भ में आने वाली आत्मा को उसके प्रारब्ध से छुटकारा दिला देती हैं और मुक्त हो जाती है। माता के गर्भ की इन नवरातों से छुटकारा पाकर ही आत्मा, परमात्मा के अमृतमय कोश मोक्ष यानि ‘नवप्रभात’ का अधिकारी बन जाता है।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार महिषासुर नामक कोई राक्षस नही था बल्कि हमारी आत्मा को मलिन कर रही मन की दूषित वृतियां ही महिषासुर है। इन दुःवृतियों ने ही देवताओं जैसी हमारी मन, बुद्घि, चेतना और शुभ संकल्पों को बंदी बना रखा है। शुभ विचारों के जागृत होने पर ये सभी आत्मा रूपी दुर्गा मां से इन राक्षसी दुष्वृतियों से रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं।
इनकी आवाज सुनकर आत्मा रूपी दुर्गा मां अष्टभुज रूप धारण कर यानि योग के आठ अंगों को अपनाकर और शेर रूपी प्राण पर सवार होकर आती है तथा मन व बुद्घि की दूषितवृतियों का नाश करती है।
महर्षि पांतजलि ने कहा कि प्राणायाम की सहायता से ही मन व बुद्घि के समस्त दोष नष्ट हो जाते है क्योंकि ‘ प्राणायामः परमम् तपः’ अर्थात प्राणायाम से बडा कोई तप नही है। यही प्राण हमारी दुर्गा मां ‘आत्मा’ का शेर है, जिस पर सवारी करके, अपने मन की महिषासुर नामक राक्षस जैसी दुष्वृतियों का विनाश किया जा सकता है। नवरात्रों (प्रतिदिन)के दिनों में यदि हम स्वयं को ‘ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकरार’ का त्याग और योग की आठ भुजाओं को अपनाएगें तो हम अपनी आत्मा पर जमे मैल को उतारने में सफल होंगे। यदि हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो यही नवरात्र, हमारे लिए नया सवेरा लेकर आएंगे और ‘नवप्रभात’ का कार्य करेंगे।

                                  कृष्ण कुमार आर्य

लोकभवन