आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आलेख लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

गणतंत्र


         त्याग एवं बलिदान ही जनतंत्र का प्रहरी

   भारत का इतिहास अति प्राचीन है। यह देवों की धरती है। इस पर महर्षि, मनस्वियों से लेकर भगवान श्रीराम, सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र एवं भगवान श्रीकृष्ण जैसे आप्त पुरुषों ने जन्म लिया है और संसार का मार्ग दर्शन किया है। इस दिव्य धरा पर सदैव सत्य सनातन वैदिक आचरण को ही व्यवहार में लाया जाता रहा है। महाभारत युद्ध के उपरान्त देश को भारी सामाजिक और आध्यात्मिक हानि उठानी पड़ी, जिसकी भरपाई आज 5 हजार से अधिक वर्ष बीत जाने पर भी नही हो पा रही है। 

आज से लगभग 2350 वर्ष पूर्व तक सब ठीक से चलता रहा, परन्तु महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य काल में सिकन्दर ने भारत के कुछ भाग पर हमला किया। मात्र 30 वर्ष की आयु में दुनिया जीतने वाले सिकन्दर को आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत-भूमि से भगा दिया। इसके सैकड़ों वर्षों बाद तक देश को सम्राट अशोक, सम्राट विक्रमादित्य, राजभोज जैसे अनेक आर्य प्रतापी राजाओं ने देश की शालीनता और संस्कृति को बचाकर रखा। परन्तु उनके पश्चात अनेक विदेशी हमलावरों का आना आरम्भ हो गया।

पुर्तगाली, फ्रांसिसी, यवन, मुगल तथा अंग्रेजों ने जमकर भारत का दोहन किया। इनसे मुक्ति पाने के लिए समय-समय पर असंख्य वीर बलिदानियों ने भारत माता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इन विदेशी हमलावरों को नाकों चने चबाने के लिए दक्षिण के महाराज कृष्णदेव राय, रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, टांत्या टोपे, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के नामों को भूलाया नही जा सकता है। इनके अतिरिक्त अनेक वीरों के बलिदानों से भारत माता ने 15 अगस्त 1947 को आजादी की खुली हवा में सांस लिया। इसको सुचारू रूप से चलाने के लिए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाए गए संविधान को 26 नवम्बर 1950 को अंगिकार कर लिया गया तथा आज ही के दिन 26 जनवरी 1950 से देश में संविधान लागू कर दिया गया।

इसी संविधान में दिए गए अधिकारों की बदौलत आज हमने अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराया है। यह तिरंगा हमारी आन, बान और शान का प्रतीक है, जो सदैव आसमान में यूं ही सबसे ऊंचा लहराता रहे। इसका दंड स्तम्ब सदैव मजबूत रहे, जिससे हमारा देश हमेशा बुलंदियों को छूता रहे। यह कामना हम सब करते हैं। इस पर किसी ने कहा कि..   

‘झंडा ऊंचा रहे हमारा, डंडा है झंडे का सहारा और डंडे ने दुष्टों को सुधारा’

हमारा झंडा ऊंचा कैसे रहेगा, हमारे देश का गणराज्य कैसे चिरस्थाई बना रहे। इसके लिए त्याग, बलिदान और दंड की आवश्यकता है। यह हमारी जन्मभूमि है, जो स्वर्ग से भी महान है। 

‘जननी जन्मभूमिस्य स्वर्गादपि गरीयसी’

अतः अपनी जन्मभूमि को कैसे महान बनाया जा सकता है। वेद में इस विषय पर संगठन सुक्त में कहा है।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनासि जानताम,

देवा भागं यथा पूर्वे सं जानाना उपासते।

कि हम एक साथ चले, एक जैसा बोले, हमारे मन एक समान हों ताकि हम अपने देवतुल्य पूर्वर्जों की भांति अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहें।

    परन्तु इसके लिए हमें तप करना होगा, स्वयं को साधना होगा तथा हमें उन दोषों से दूर रहना पडे़गा, जो महाभारत के शांतिपर्व में कहे गए हैं।

क्रोधो भेदो भयं दण्डः, कर्षणं निग्रहो वधः।

नयत्य रि वशं सद्यो गणान् भरत सत्तम।।

गणराज्य के लोगों में क्रोध, आपसी फूट, भय, एक-दूसरें को निर्बल बनाना, परेशानी में डालना या मार डालना की प्रवृति होने से हम, हमारे घर, परिवार तथा समाज शत्रुओं के आगोश में चला जाता है।

हमारा यह भारत युगों से ‘एक-भारत’ है तभी तो ‘श्रेष्ठ-भारत’ है। महाराज भरत के नाम से बने भारत में यह भावना कूट-कूटकर भरी थी। महाराज भरत ने अपने नौ पुत्रों में से युवराज पद के लिए किसी को भी योग्य नहीं समझा। मेरी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में इस संदर्भ में दिया है कि उनकी अयोग्यता के कारण महाराज भरत ने अपने राज्य के कुशल एवं योग्य युवक ऋषि भरद्वाज पुत्र भूमन्यु को देश की भागडोर सौंपी, जो एक उत्कृष्ट लोकतंत्र एवं गणतंत्र का उदाहरण है।

सैकड़ों वर्षों की गुलामी से हम आजाद हो गए हैं, जिससे हमें राजनैतिक, सामाजिक आजादी प्राप्त हुई है परन्तु क्या हम मानसिक रूप से आजाद हो सकें हैं। यह एक यक्ष प्रश्न है ! इसके बिना बौधिक आजादी तथा आध्यात्मिक आजादी भी नही हो सकती है। आज हमें अध्यात्म के नाम पर कोई भी हांक कर ले जाता है। यह कितना सही है, परन्तु विचारणीय है! इसलिए यह कहा जा सकता है कि...

राज आजाद, समाज आजाद, आजाद कृष्ण सब ओर,

बिन मन आजाद, अध्यात्म आजाद, नही कहीं पर ठोर।।


                           कृष्ण कुमार ‘आर्य’


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

हिन्दी दिवस

10 जनवरी विश्व हिन्दी दिवस पर विशेष

 

    भाषा किसी भी प्राणी की एक विशेष अभिव्यक्ति है, जिससे वह आसपास और समाज को अपने क्रियाकलापों की जानकारी देते हैं। भाषा न केवल मानवमात्र के लिए उपयोगी होती है परन्तु जीव-जन्तु भी इससे अछूते नही हैं। पक्षी अपनी चहचाहट, पशुओं का राम्बना (आवाज) तथा जानवर अपनी गर्जना से ही सभी सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। इसी प्रकार मानव भी अपने रहन-सहन की आदतों, क्षेत्र की परिस्थितियों तथा समाज के व्यवहार से बोलना सीखते हैं और भावनाओं को अपने भाव द्वारा प्रदर्शित करते हैं। इतना ही नही, भाषा उनकी जीवनशैली को ही प्रदर्शित करती हैं।

          विश्व में विभिन्न भाषाओं के बोलने वालों की कमी नहीं है। दुनिया में लगभग 7139 भाषाओं को बोला जाता है। विभिन्न देशों में अधिकतर बोले जाने वाले वाक्य वहां की बोली का रूप धारण कर लेते हैं, जिससे भाषा का प्रादुर्भाव होता है। दुनिया में मुख्य रूप छः भाषाएं से बोली जाती है। इसमें सबसे अधिक लगभग 145 करोड़ लोग अंग्रेजी भाषा बोलते है, चाईनिज 113 करोड़, हिन्दी लगभग 61 करोड लोगों द्वारा विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जानी वाली भाषा है, वहीं स्पैनिस भाषा को लगभग 56 करोड़, फैंच को लगभग 31 करोड़ तथा अरबी भाषा के जानकार लगभग 27 करोड़ लोग हैं। 

    इतना ही नही, किसी देश के अधिकतर भागों में बोली जाने वाली भाषा भी विभिन्न क्षेत्रों में बोली का रूप ले लेती है। भारत भी इससे अछूता नही है। भारत में मूल भाषा हिन्दी सहित कुल 22 भाषाएं अनुसूचित हैं, जो देश के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाती है। स्थानीय स्तर पर इन्हीं भाषाओं में कार्यों के निष्पादन को प्राथमिकता दी जाती है। भारत के विषय में कहावत है कि...

कोस-कोस पर बदले पानी, तो चार कोस पर वाणी

          भारत एक बहुभाषी देश है, जहां लगभग 780 बोलियां बोलचाल का माध्यम है। यदि किसी एक प्रदेश जैसे हरियाणा के विषय में समझने का प्रयास किया जाए तो, उसके एक ही शब्द को जीन्द में जो बोला जाता है तो उसी शब्द का भिवानी या सिरसा में रूपांतरण हो जाता है। परन्तु हमारी मूल भाषा हिन्दी ही है। हिन्दी को पूरे उत्तर भारत में बोला एवं समझा जाता है। हिन्दी भारत की मूल और आत्मिक भाषा है, जिसको बच्चा भी समझ और बोल सकता है। भारत के बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा उत्तराखंड सहित कुछ अन्य प्रदेशों में हिन्दी बोली जाती है। भारत में सबसे अधिक लगभग 57 करोड़ लोग हिन्दी को अपनी मूल भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं, जो देश की कुल आबादी का लगभग 44 प्रतिशत से अधिक है और लगातार बढ़ भी रहा है। भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, नेपाल, दक्षिणी अफ्रीका, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में भी हिन्दी बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयोग की जाती है।

          विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का विशेष स्थान है। प्राचीन भारत की एक नदी सिन्ध से हिन्द और सिन्धु से हिन्दु तथा सिन्धी से हिन्दी की उत्पत्ति मानी जाती है। भारत की राजभाषा भी हिन्दी ही है, जिसका मूल स्त्रोत संस्कृत भाषा को माना जाता है। हिन्दी एवं संस्कृत दोनों भाषाओं की लिपी देवनागरी है, इसमें 11 स्वर और 33 व्यंजन हैं। इस भाषा को बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है, जबकि कुछ भाषाएं दाईं से बाईं ओर लिखी जाती है। भारत में हिन्दी को राजभाषा के रूप में 10 जनवरी 1949 को अपनाया गया था। इसके बाद भारत सरकार ने वर्ष 2006 में इस दिन को विश्व हिन्द दिवस के रूप में मनाने की शुरूआत की ताकि हिन्दी को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाई जा सके। 

    व्यक्ति अपनी भाषा में ही स्वयं को पोषित कर सकता है। अपनी मातृ भाषा हिन्दी में संवाद, व्यवहार, लेखन और पठन करने से हम न केवल अपनी संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं बल्कि अपनी परम्पराओं तथा मूल्यों को भी सहजता से व्यक्त कर सकते हैं। आज अनेक लेखक विश्व स्तर पर हिन्दी को वैश्विक पहचान देने के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं। केन्द्र एवं हरियाणा सरकार भी हिन्दी भाषा लेखकों को साहित्य अकादमी के माध्यम से प्रोत्साहित किया जा रहा है। इससे अनेक साहित्यकार अपनी रचनाओं से हिन्दी को नई पहचान दिलवा रहे हैं।

    हमारे प्राचीन ग्रन्थ वेदों की रचना हिन्दी की जनक कही जाने वाली संस्कृत भाषा में ही हैं, वहीं रामायण, महाभारत तथा अनेक साहित्य हिन्दी एवं संस्कृत भाषा में लिखे गए है। हिन्दी भाषा भारत और भारत से बाहर रहने वाले लोगों को जहां एक कड़ी में पिरोने का कार्य कर रही है, वहीं इससे एक-दूसरे के मर्म समझना भी आसान बनाती है। अतः हिन्दी को वैश्विक स्तर पर पहुँचाने की जिम्मेदारी प्रत्येक भारतीय को समझनी चाहिए।

अन्त में कहना चाहँुगा कि हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए हमें, स्वयं हिन्दी के प्रति समर्पित होना चाहिए। हिन्दी को भाषा नही बल्कि एक संस्कृति का द्योतक और जीवनशैली है। एक कवि ने कहा कि ...

हिंद देश हिन्दुस्तां हमारा, हिंदी हमारी पहचान।

भारत के माथे की बिन्दी हिन्दी, देश का गौरव गान॥

 

कृष्ण कुमार आर्य


शनिवार, 9 अप्रैल 2022

सूर्य की गति का द्योतक है उगादी


        देश में मनाए जाने वाले त्यौहार भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता के परिचायक हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य की गति और सामाजिक परम्पराओं के आधार पर विभिन्न उत्सव मनाने की व्यवस्था दी है ताकि जीवन सदैव उल्लास से भरा रह सके। “उगादी” उसी भारतीय संस्कृति का संवाहक है, जो भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। 

      यह वह दिन है जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना की थी, जिससे युगों एवं वर्षों का आरम्भ हुआ था। यह दिन सृष्टिक्रम से जुड़ा हुआ है। इसलिए इसको सृष्टिवर्ष भी कहा जाता है। युगों की शुरूआत इसी दिन होने कारण इसे युगादि भी कहा जाता है। इतना ही नही वैदिक सनातन धर्म के अनुसार वर्ष की गणना इसी दिन से आरम्भ होती है, इसलिए भारतवंशी इसे नववर्ष के रूप में मनाते हैं। भारतीय संस्कृति के परिचालक दक्षिण भारत में इस पर्व को युगादि अर्थात ‘उगादि’ के नाम से जाना जाता हैं। यह पर्व चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है, अतः इसे वर्षी प्रतिपदा भी कहा जाता हैं। 

     ऐसी मान्यता है कि ईश्वर ने जिस दिन सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ किया था, उसी दिन को चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा कहा जाने लगा। सृजन का यह कार्य नौ दिन-रातों तक यह निरंतर चलता रहा, इसलिए इन्हें नवरात्र कहा गया। इसी दिन से पूरे देश में नौ दिनों तक नवरात्र मनाए जाते हैं और मातृशक्ति दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। वर्ष 2024 में यह दिन 9 अप्रैल को था। यह वह समय होता है जब बसंत ऋतु अपने यौवन पर होती है। प्रत्येक दिशा में प्रकृति का शोधन होता दिखाई देता है। इन दिनों में सभी पेड़, पौधों एवं झाड़ियों पर रंगबिरंगे फूलों से मन प्रफुल्लित हो उठता है और वातावरण में एक मंद-मंद सुगंध का प्रवाह रहता है। पौधों पर नई-नई पत्तियों तथा फलों का आगमन होता है। प्रकृति का यह मनोहर दृश्य वर्ष में केवल इन्हीं दिनों में दिखाई देता है। 

      हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ‘पिंडे सो ब्रह्मांडे’ अर्थात् जो हमारे पिंड यानि शरीर में है] वही ब्रह्मांड में है तथा जो ब्रह्मांड में है] वही हमारे शरीर में है। प्रकृति की भांति प्राणियों के शरीरों में भी नवरक्त और नवरसों का संचार होता है। इसलिए इस समय को नवरस काल कहा जाता है। हरियाणा में इसे न्यौसर कहते हैं। इस समय शरीर में बहने वाली नई ऊर्जा से मन उत्साह और उल्लास से भर जाता है। इस दौरान श्रद्धालु माता दुर्गा के अष्टरुपों की उपासना करते हैं और उपवास रखते हैं, जिससे हमारा शरीर निरोग एवं शुद्ध होता है। 

     युगादि सृष्टि सृजन का वह दिन है] जिसको देश में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश] तेलंगाना] कर्नाटक] महाराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों में इसे युगादि अर्थात उगादी के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत के पंजाब] हरियाणा] दिल्ली सहित कई राज्यों में इसे नवरात्र एवं बैशाखी भी कहते हैं। इसी समय नई फसल के आगमन पर घरों में खुशियों का माहौल होता हैं। विभिन्न प्रदेशों में जहां इस पर्व को अलग-अलग ढंग से मनाते हैं] वहीं उनके खाने का शौक भी भिन्न होता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में श्रद्धालु पच्चडी का सेवन करते हैं। पच्चडी को कच्चा नीम] आम के फूल] गुड] इमली] नमक और मिर्च के मेल से बनाया जाता है। वहीं उत्तर क्षेत्र में नवरात्रों पर फलाहार] शामक] साबुधाना की खीर खाते है। बैशाखी पर हलवा एवं रंगीन मीठे चावलों का भोग लगाया जाता है। 

      भारतीय नववर्ष एवं नवसंवत्सर का ऐतिहासिक महत्व भी है हमारे तपस्वी पूर्वजों ने इस दिन की प्राकृतिक महत्ता को समझते हुए, इसे हमारे सांस्कृतिक पन्नों में जोड़ा है ताकि हमारी भावी पीढ़ियां इसे जीवन का अंग बना सके। सत्य सनातन वैदिक शास्त्रों के अनुसार सृष्टि की रचना 1960853125 वर्ष पूर्व भारत की इसी धरा पर हुई थी। इसके पश्चात से ही निरंतर सृष्टिक्रम चलता रहा है। विभिन्न कालखंडों में अनेक यशस्वी राजाओं और महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है। उन्होंने लोगों के जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए अपनी संस्कृति के प्रसार हेतु अनेक प्रयास किए। इस दिन के महत्व को समझते हुए भगवान श्रीराम ने लगभग 9 लाख वर्ष पूर्व लंका विजय के उपरांत चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अयोध्या का राज सिंहासन ग्रहण किया था। महाभारत युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। महाभारत काल के बाद देश में महान एवं तपस्वी राजा वीर विक्रमादित्य हुए हैं] उनका राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हुआ था। 

     देश के इस महान सपूत एवं प्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य के नाम से आरम्भ हुए वर्ष को विक्रमी सम्वत कहा जाता है, जिसे 9 अप्रैल को आरम्भ हुए 2081 वर्ष हो गए हैं। कलियुग का आगमन भी चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही 5125 वर्ष पूर्व ही हुआ था। महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। इस तरह उगादी हमारे देश का महान और सृष्टि सृजन का त्यौहार है। परन्तु आज हम अपनी प्राचीन संस्कृति और मान्यताओं को भूल गए हैं, जिसके कारण हमारे आचार] विचार और व्यवहार में परिवर्तन हुआ है। भारतीय समाज और जनमानस के लिए यह विचारणीय है। 
     अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि--- 

मंद-मंद धरती मुस्काए, मंद-मंद बहे सुगंध। 
ऐसा ‘उगादी’ त्यौहार हमारा, सबके हो चित प्रसन्न।। 

 जयहिन्द

 कृष्ण आर्य

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014


आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए। 
इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।
वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ अंश - 
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।

5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।

6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।

7. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।
8. ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे विद्या ग्रहण करें। राजा का कर्तव्य है कि वे सैनिकों द्वारा अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों का कर्तव्य है कि वे व्यापार द्वारा धन बढ़ाएँ, शूद्रों का कर्तव्य श्रेष्ठ लोगों की सेवा करना है।
9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
14. चाणक्य कहते है कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
15. चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।
17. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
18. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।
19. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
                                                  साभ्‍ाारः चाण्‍ाक्‍य नीति                                                                                                                                                                                                           कृष्ण कुमार ‘आर्य’


सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण !


क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण !


भारत की देव भूमि पर अनेक ऋषि-मुनि तथा महापुरूष समय-समय पर जन्म लेते रहे हैं। इस धरती को जहां राम, कृष्ण तथा हनुमान जैसे मनीषी वीरों ने अलंकृत किया है वहीं रावण तथा कंस जैसे दुराचारियों ने सामाजिक मर्यादाओं को तार-तार भी किया है। राम ने अपने मर्यादित जीवन तथा कृष्ण ने गीता उपदेश से जहां समाज को बंधनमुक्त करने का कार्य किया वहीं रावण और कंस जैसे दुष्टों ने अपनी दुष्टता से समाज को बंदी बनाने में भी कमी नही छोड़ी। इसलिए त्योहारों के अवसर पर हम भी उन महापुरूषों के गुणों को धारण करने और अवगुणों को छोड़ने की शिक्षा देते रहते हैं।
समाज के उपकार के लिए ही हम इस प्रकार के कार्य करते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन मधुर हो सकें परन्तु हमें इस बात का जरा सा भी ईलम नही है कि क्या हम इतनी योग्यता रखते हैं? जिससे भोले-भाले लोगों का सही मार्गदर्शन कर सकें या क्या हम उस ज्ञान को रखते है? जिसे दूसरे लोगों के लाभ के लिए बांटना चाहते हैं या वह शिक्षा हमारी पथप्रदर्शक है? जिसकी सहायता से हम समाज को बदलने की कामना रखते हैं या हमारा आचरण उसी स्तर का है? जैसा हम दूसरों को बनने का उपदेश करते हैं अर्थात क्या हम वो कृष्ण है, जिसने अधर्मियों को सजा देकर एक महा-न-भारत की स्थापना की थी या फिर वह राम हैं, जिसने रावण जैसे आतताई से छुटकारा दिला कर जीवन में आदर्शों का पुनः उत्थान किया था।
इन सभी सवालों का जवाब यदि नही है! तो फिर क्यूं हम उन भोले भाले लोगों को दिग्भ्रमित कर स्वयं तथा समाज को दोखा दे रहे हैं; क्यों उस झूठी शिक्षा का प्रचार कर रहे हैं, जो हमारा भी उपकार करने में सक्षम नही है तथा क्यों उस रावण के वध करने का नाटक कर रहे हैं; जोकि हर वर्ष फिर पैदा हो जाता है और लोंगों को फिर से उसे जलाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। काश! हम अपने आचरण से समाज को बदलने का जज्बा रखते, जिससे समाज में व्यवहारिक बदलाव दिखाई दे सकता। परन्तु अपने आचारण के विपरित कर्म करके हम कहीं समाज में बुराईयों को बढावा तो नही दे रहे है या उस पाखंड की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जो हमें अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहा है। क्या? हम रावण की उन राक्षसी वृतियों का प्रचार-प्रसार तो नही कर रहे, जो कि हर वर्ष रामलिला के मंच से दिखाई जाती है। इन सभी बातों का जवाब हमें ढूंढना होगा और यह पता लगाना होगा कि वह रावण! जिसको अपमानित करके हर वर्ष जलाते है, वह फिर दोबारा जन्म कैसे ले लेता है?
रावण को सिर्फ व्यक्ति ही नही बल्कि बुराइयों का प्रतिक भी माना जाता है। ये बुराइयां ऐसी हैं, जो समाज को घुन की तरह खाये जा रही है। ऐसी बुराईयां हैं, जिनके कारण समाज तथा राजतंत्र को लकवा मार रहा है, इन्हीं बुराईयों के कारण ही आज समाज में बहन और बेटियों को सम्मानित जीवन जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है। हर वर्ष रावण को जलाने वाले राम की संख्यां लाखों होते हुए भी हर वर्ष लाखों सीता माता जैसी देवियों की इज्जत तार-तार की जाती है, हजारों कन्याएं अपने सतीत्व की रक्षा करने में असमर्थ होकर आत्महत्या कर लेती है परन्तु उन्हें अपने आंसू पौछने वाला कोई राम नही मिलता।
राम के चरित्र को दर्शाने के लिए देशभर में हजारों मन्दिर बनाये गए है परन्तु उन्हीं दक्षिण के मन्दिरों में तथाकथित लाखों देवदासियां बेबसी, लाचारी तथा असहाय होकर रावण वृतिक अनेक पुजारियों की वासना का शिकार बनती आ रही है। हालांकि विभिन्न मत तथा सम्प्रदाय इस प्रकार की बातों को स्वीकार नही करते परन्तु कुछ तो हो ही रहा है। मध्यकालिन युग से शुरू हुई इस प्रथा में सूले, भोगम या सानी जैसे नामों से जाना जाता था, जिसका अर्थ धार्मिक वेश्या ही होता है।  
भाईयों! यह रावण हम सबके बीच में रहता है, हम हर रोज इससे दुआ-स्लाम करते है परन्तु कभी पहचान नही पाते। इसी कारण आज समाज में इस प्रकार की अस्थिरता का माहौल पैदा हो रहा है। यह रावण कोई ओर नही बल्कि केवल हमारा आचरण है, हमारी वासना और वे सभी दुष्वृत्तियां है, जिसने समाज की रीढ़ को तोड़ दिया है। यह रावण हमारे विचार है तथा हमारी उच्च-नीच भेद की मानसिकता है जो समाज को संगठित होने से रोक रही है। इन बुराईयों को मिटाने के लिए रामलीला में पर्दे के पीछे वाले राम की नही बल्कि सदाचारी, सहनशील तथा दूसरों की बहन-बेटियों को अपनी बहन-बेटियां से समान समझने और स्वीकार करने वाले राम की आवश्यकता है।
आज बड़े-बड़े नेता, मंत्री तथा उद्योगपति रामलीलाओं का उद्घाटन करते है, रामलीलाओं के मंचों से रावण, मेघनाथ तथा कुम्भकरण के पुतलों को आग लगाते है। परन्तु क्या इनको पता है कि राम के बाण और हनुमान की गद्दा केवल दुष्टों को दंड देने के लिए ही उठती थी। उनका बल असहाय, गरीब तथा सदाचारी, ईमानदार और योग्य लोगों की रक्षा और सुरक्षा के लिए प्रयोग होता था; व्यभिचारी, ढोंगी, बहरूपियों तथा कदाचिरों के बचाव में षडयंत्र रचने के लिए नही। आज के मंचनकर्ताओं को इस बात का अहसास होना चाहिए कि राम एक आदर्श पुत्र, सदाचारी, देश प्रेमी, हर प्रकार के नशों से दूर तथा सम्पूर्ण प्रजापालक श्रेष्ठ राजा थे तथा देश की बहन-बेटियों की आबरू की रक्षा के लिए स्वयं का जीवन आहूत करने के लिए तैयार रहने वाले महापुरूष थे।
दशहरे के पावन पर्व पर समाज के सभी वर्गों को चाहिए कि राम के जीवन को अपनाते हुए रावण जैसी दुष्वृत्तियों का नाश करें। राम के आदर्शों को अपनाते हुए समस्त बुराईयों पर विजय पताका फहराएं। राम की शिक्षाओं, आचार-विचार, व्यवहार तथा ब्रह्मचर्य जैसे अमोघ राम बाणों को अपना कर देश में राम राज्य लाने के लिए प्रयत्न करें, जिसमें न कोई चोर हो, न भूखा, न बिमार तथा न ही व्यभिचारी पुरूष हों। जब व्यभिचारी पुरूष नही होगा तो व्यभिचारिणी स्त्री स्वतः ही नही होगी और समाज कुदंन बन जाएगा। इससे समाज को नई दिशा, चेतना और जागृति मिल सकेगी औरदेश में कोई भी अहंकारी, दम्भी, द्वेषी, कपटी तथा धोखेबाज न रह सके।
यदि हम ऐसा करने में सफल होते है तो हमारी धरती से रावण जैसा भूत हमेशा हमेशा के लिए मिट जाएगा। इससे हमें बार-बार रावण को जलाना नही पडेगा अन्यथा वही रावण फिर हर वर्ष जन्म लेगा, बढे़गा तथा संसार को अंधकार और व्यभिचार की गर्त में धकेलता रहेगा और उस नकली रावण को मारने के लिए नकली राम बनते रहेंगे तथा समस्या जस की तस बनी रहेगी। हर वर्ष हम उसे मारने के लिए कागज के पुतले जलाते रहेंगे। इससे केवल पैसे की बर्बादी और प्रदूषण बढ़ने के सिवाय कुछ भी हमारे हाथ नही लेगेगा और हमें हर बार यह सोचना नही पड़ेगा कि ‘क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण
                           
                                           कृष्ण कुमार ‘आर्य




गुरुवार, 12 जुलाई 2012

एक अभिशाप


कन्या भ्रूण हत्या--- एक अभिशाप


         समय-समय की बात है कि किसी क्षण कोई वस्तु अच्छी लगती है तो दूसरे ही क्षण वही वस्तु बुरी लगने लगती है। व्यक्ति जिस ठण्डी हवा के लिए गर्मियों में तरस जाते हैं, उसे वही ठण्डी हवा सर्दियों में अच्छी नही लगती। भूखे व्यक्ति के लिए जो खाना अमृतमय होता है, कभी-कभी वही खाना पैसे वालों के लिए जहर का कार्य भी करता है अर्थात जब किसी वस्तु की अधिकता होती है तो उसकी कीमत में कमी आने लगती है परन्तु यहां एक ऐसा विरोद्घाभास है, जिसकी संख्या में न्यूनता होने पर भी वह अपने वजूद को बचाने मे सक्षम नही है। उसे भी भाग्यहीन लोग अपनी राक्षसी वृति के कारण जड़ से मिटाने पर तुले रहते हैं।
        आज के इस पाषाण पूजित युग में लोग मंदिरों में देवी माताओं की पूजा-अर्चना करने जाते है और फूल बतासों से देवी को प्रसन्न करने में कोई कमी नही छोडते, परन्तु जब वही देवी मां उनके घर के दरवाजे पर देवी (लडकी) का रूप धारण कर कदम रखती है तो अमानवीय प्रवृति के लोग उसके फूल जैसे कोमल शरीर को मंदिर में चढ़ाए जाने वाले फूलों की तरह शमशान की भेंट चढा देते हैं। ऐसे निर्दयी लोग उस नन्हीं सी जान को धरती माता की मिट्टी को छूने भी नही देते, जिस धरती माता ने उसके पूरे परिवार को सहारा दिया हुआ है। घरों में लडकी के पैदा होने पर जितना कोहराम मचाया जाता है, उतना रूद्घन तो लडकी के किसी जवान संबन्धी की मौत पर भी नही किया जाता होगा।
         यह शर्मनाक कहानी किसी ओर की नही बल्कि उस नन्ही सी जान की है, जो स्वयं अपनी रक्षा करने में पूरी तरह असमर्थ है परन्तु जिसकी रक्षा का भार उसके उन माता पिताओं पर है, जो रक्षक होते हुए भी भक्षक बनकर उसे निगल जाते हैं। ऐसे लोगों द्वारा माता के सुरक्षा कवच गर्भ में 9 महीने बिताने वाली उस कन्या को 9 मिनट भी धरती पर रहने नही दिया जाता। पहले गांवों में पैदा होने वाले लडकी के परिवार के तथाकथित शुभचिंतक बुढि़या ताई और दादी उस नन्हें फूल की हत्यारिन बन जाती और नवजात लडकी को उसी चारपाई के पांवे के नीचे दबा देती थी, जिस चारपाई पर उसने जन्म लिया होता है। इतना ही नही उस समय दिल ओर कांप उठता था, जब वे उस नन्ही सी जान को मिट्टी की हांडी में डाल और उसके हाथ में रूई देकर यह कहते हुए कन्या को जिंदा दफना दिया करते थे कि ‘बेटी सूत कातती ओई जाईए, ओर अपणे भाई न भेज दिए’। भाई का तो पता नही आता था या नही परन्तु यह कहते हुए शर्म अवश्य आ रही है कि हमेशा से ‘नारी, स्वयं नारी की दुश्मन रही है’।
        अब ये बातें भी बीते दिनों की हो गई है, क्योंकि अब विज्ञान का युग है और विज्ञान के अनेक तरीकों की सहायता से आज के तथाकथित माता पिता अपनी ही फूल सी बिटिया को पैदा होने से पहले ही मौत के घाट उतार देते हैं। विज्ञान की इन्हीं तकनीकों द्वारा की जा रही कन्या-भ्रूण हत्या की कहानी लिखने में बिल्कुल संकोच नही होता, जिसमें वह नन्हीं सी जान अपनी ममतामयी मां को पुकार-पुकार कर कह रही है कि मां, मुझे मत मारो! मत मारो! मेरी प्यारी मां, मुझे मत मारो....और इस तरह से बिलखती हुई वह असहाय कन्या-भ्रूण अपने आप को उन निर्दयी माता-पिता और लोभी डाक्टर के हाथों में सौंप देता है और अनेक लोभ लालचों से ग्रसित ये लोग उस कन्या-भ्रूण के रूद्घन को भी अनसूना कर देते है।
       महाभारत में अभिमन्यू के गर्भ में शिक्षित होने का उदाहरण आपने सूना होगा और डॉक्टर भी इस बात को मानते है कि गर्भ में पल रहा भ्रूण माता-पिता के हर क्रिया कलाप को बड़ी गहराई से अनुभव करता है। इसी प्रकार एक भ्रूण के अनुभव करने की क्षमता को जब एक अमेरिकी डाक्टर ने अपने कम्प्यूटर की सहायता से देखना चाहा तो वह अपने आंसुओं को रोक नही सका। उसी डाक्टर ने बाद लिखा कि ‘जब उसने गर्भवति स्त्री को ऑपरेशन बैंच पर लेटाया तो गर्भ के अन्दर का भ्रूण छटपटाने लगा और गर्भ में सुरक्षित स्थान तलाशने के लिए इधर-उधर भागने लगा और छटपटाता हुआ वह भ्रूण अपनी मां से प्रार्थना करता हुआ कहता है, हे माते! मेरी रक्षा करो! हाथ जोडता है और मिन्नते करता हुआ गर्भ गृह में स्वयं को सुरक्षित बचाने का प्रयास करता है। 
        इसके बाद भी जब निर्दयी डाक्टर उसे मारने के लिए चाकू उठाता है तो कन्या भ्रूण चिल्लाता है, रोता है और माता को ऐसा न करने के लिए प्रार्थना करता है। इसके उपरान्त भी जब डाक्टर और माता की क्रूरता समाप्त नही होती तो वह कन्या भ्रूण उनके आगे नतमस्तक हो जाता है और माता के गर्भ की बलिवेदी पर अपना बलिदान देता है। इस प्रकार उस कन्या भ्रूण के एक-एक अंग को कैंची और चाकू से काटकर अगल-अलग गिरा दिया जाता है और उस कन्या भ्रूण का दुखदः अन्त हो जाता है। वह कटता और चिल्लाता हुआ भ्रूण भगवान से यह प्रार्थना तो अवश्य करता होगा कि हे भगवन! ऐसी कठोर और निर्दयी स्त्री को पुनः कभी माता बनने का सौभाग्य प्रदान मत करना।
       पेट में पल रहे भ्रूण को कन्या भ्रूण जानकर गर्भपात करवाना अब लोगों के लिए आम बात हो गईर् है। डॉक्टर भी एमटीपी एक्ट का दुरूपयोग करते हुए परिवार नियोजन, गर्भ में बच्चे का अस्वस्थ होना या जन्म समय माता को मृत्यू से बचाने के बहाने भ्रूण हत्या कर मोटी रकम डकार लेते है। दिनों दिन बढ रही इस मानसिक ता के कारण आज हरियाणा में स्थिती चिंताजनक होती जा रही है।
        जनता द्वारा भविष्य में कन्या-भ्रूण हत्या पर रोक लगाने पर पहल करनी चाहिए, जिससे स्थिती को ओर अधिक भयावह होने से बचाया जा सके। गांवों की अपेक्षा शहरों में स्त्री, पुरूष का अन्तर अधिक पाया जाता है और शहरी लोग इस अभिशाप से करीब 5 से 10 फीसदी अधिक शामिल पाये जाते हैं अर्थात यह अपराध शहरी पढा लिखा वर्ग, गांवों के लोगों से अधिक करता है। ग्रामीणों के साथ-साथ शहरी लोगों को भी कन्या भ्रूण हत्या से होने वाले  दुष्परिणामों के बारे में सरकारी व गैर सरकारी संगठनों द्वारा जागरूक किया जा रहा हैं। पुत्र प्राप्ती की इस अन्धी दौड़ ने आज हरियाणावासियों को पुत्र-पैदा करने वाली दुल्हनों के लिए तरसा दिया है।
        हमारे महापुरूषों ने नारी जाति का हमेशा सम्मान किया है और महर्षि दयानन्द ने तो स्त्री जाती के सम्मान में यहां तक कह दिया कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहां स्त्रियों का सम्मान होता है वहीं देवता निवास करते हैं। गुरू गोबिन्द सिंह जी ने भी नारी सम्मान को बचाने के लिए कहा था कि ‘कुडी मार ते नडी मार, रिश्ता नइ करणा’ अर्थात लडकी हत्यारों और नशेडियों के घर कभी शादी नही करनी चाहिए। स्त्री जाति के सम्मान के लिए हरियाणा सरकार ने भी अनेक प्रभावी योजनाएं शुरू की है, जिनका लाभ उठाने के लिए लोगों आगे आना चाहिए और कन्याओं को उनका अधिकार प्रदान करते हुए कन्या भ्रूण हत्या पर पूर्ण रोक लगानी चाहिए।
हरियाणा सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं-
1.      हरियाणा सरकार ने उन महिलाओंको जिनके नाम पर सम्पत्ती तथा घरेलू बिजली कनैक्शन भी है उनके बिजली बिलों में 10 पैसे प्रति यूनिट छूट देने का निर्णय लिया है।
2.      हरियाणा सरकार ने किसी भी महिला द्वारा अचल सम्पति खरीदने पर उन्हें सैटम्प शुल्क में 2 फीसदी छूट देने का निर्णय लिया है।
3.      हरियाणा सरकार ने महिलाओं को शिक्षक की सीधी भर्ती में 33 फीसदी आरक्षण देने का निर्णय लिया है।
4.      हरियाणा सरकार ने महिलाओं के सुरक्षित प्रसव के लिए साफ सुथरा वातावरण प्रदान करने हेतु प्रदेश में 510 डिलिवरी हट्स का निर्माण करवाया है, जहां जन्म प्रमाण पत्र भी दिया जाता है और इससे पुरूष स्त्री अनुपात की बेहतर मॉनिटरिंग में भी सहायता मिलेगी।
5.      भारत सरकार ने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए जननी सुरक्षा योजना के तहत ग्रामीण महिलाओं को घरों में करवाए गए प्रसव के लिए 500 रुपये तथा संस्थानों में करवाए गए प्रसव के लिए 700 रुपये की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया है, जबकि शहरी महिलाओं को 600 रुपये उपलब्ध करवाए जाते हैं।
6.      जननी सुरक्षा योजना के तहत राज्य सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को प्रत्येक प्रसव के दौरान 1500 रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान करने की शुरूआत की है, यह सहायता ऐसी सभी महिलाओं को दी जाती है जिन्होंने सरकारी या निजि क्षेत्र के किसी भी स्वास्थ्य संस्थान में प्रसव करवाया हो।
7.      राज्य के महिला और बाल विकास विभाग द्वारा ‘लाडली योजना’ लागू की गई है, जिसके तहत सरकार द्वारा दूसरी बेटी के जन्म पर 2500 रुपये प्रति लड़की के हिसाब से प्रतिवर्ष 5000 रुपये की आर्थिक सहायता 5 वर्ष तक दी जाती है।
सजा का प्रावधान-
        कन्या-भ्रूण हत्या करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी की जाती है और इसके लिए सजा का भी प्रावधान है। हरियाणा में 1996 में लागू हुए पीसी एंड पीएनडीटी एक्ट को सख्ती से लागू करवाने के लिए अनेक पहल की है। इनमें राज्य स्तर पर उपयुक्त प्राधिकारी, सुपरवाइजरी बोर्ड, सलाहकार समिति तथा टास्क फोर्स का गठन किया गया है। इसी प्रकार जिला स्तर पर भी जिला उपयुक्त प्राधिकारी, जिला निरीक्षण समिति तथा निरीक्षण टीमों का गठन किया गया है।
        ये समितियां सरकारी व गैर सरकारी संगठनों की सहायता से लोगों को कन्या भ्रूण हत्या के विरोध में जागरूक करने, सख्ती से नियम लागू करवाने, अल्ट्रासांऊड मशीनों का निरीक्षण, कारण बताओं नोटिस जारी करने, छापामारी करना तथा आरोपियों के खिलाफ कोर्ट पैरवी करने का कार्य करती हैं।
           कृष्ण कुमार आर्य

शुक्रवार, 18 मई 2012

कसौटी--

                 जिन्दगी की  

 

भारत देश अनेक महापुरूषों की जन्म स्थली रहा है। समय-समय पर यहां दिव्य आत्माओं ने जन्म लेकर देश व काल के अनुसार देशहित में उत्तम कोटी के कार्य किये थे। चाणक्य भी इसी प्रकार की एक महान विभूति थे, जिन्होंने अभाव और विषमताओं में रहते हुए न केवल विखंडित भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया बल्कि मौर्य वंश के साम्राज्य को स्थापित कर देश को नई दिशा प्रदान की। आचार्य चाणक्य की नीति जहां आज भी उतनी ही प्रासंगिक है वहीं उनके व्यकितगत गुण आम आदमी का सही मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। उन्हीं में से उनका एक गुण यह भी था कि वे सहज ही अपने व पराये की पहचान कर लेते थे और उसी के अनुसार कार्य करते थे। आचार्य चाणक्य के जीवन की अनेक शिक्षाप्रद घटनाओं में से एक घटना लिखने का मन हुआ है।
आचार्य चाणक्य अपनी तार्किक बुद्घि, तर्क-शक्ति, ज्ञान और व्यवहार-कुशलता के लिए विख्यात थे। एक दिन आचार्य चाणक्य को उनका एक परिचित मिलने आया और उत्साह से कहने लगा, आचार्य ‘क्या आप जानते हैं कि मैंने आपके मित्र के बारे में क्या सुना?’  उन्होंने परिचित से कहा कि आपकी बात सुनने से पहले मैं चाहूंगा कि आप एक त्रिगुण परीक्षण से गुजरें अर्थात अपनी बात को तीन कसौटियों पर कस कर देख लें।
परिचित ने पूछा, यह त्रिगुण परीक्षण क्या होता है आचार्य। चाणक्य ने कहा कि आप मुझे मेरे मित्र के बारे में कुछ बताएं, इससे पहले अच्छा यह होगा कि जो आप कहने जा रहे हैं उसे तीन स्तरों पर परख लें। इसीलिए मैं इस प्रक्रिया को त्रिगुण परीक्षण कहता हूं।
परिचित ने पूछा इसकी क्या आवश्यकता है, मैं जो कहूंगा सत्य ही होगा। आचार्य ने कहा फिर भी सत्य का परिक्षण तो आवश्यक होता है। इससे आपको भी सत्य व असत्य का आभास आसानी से हो जाएगा, फिर आपको इससे कोई परहेज नही होना चाहिए। परिचित ने कहा कि ठीक है, आप बताईये मुझे क्या करना होगा। आचार्य ने कहा आपको कुछ नही करना, आप तो केवल बताते जाएं।
आचार्य ने कहा इसके लिए पहली कसौटी है-सत्य। इस कसौटी के आधार पर मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि जो आप कहने वाले हैं, क्या वह सत्य है और आप स्वयं उसके बारे में अच्छी तरह जानते हैं?' परिचित ने कहा ‘नही! ऐसा तो नहीं, 'वास्तव में मैंने इसे कहीं सुना था। खुद देखा या अनुभव नहीं किया था। आचार्य ने कहा ठीक है 'आपको पता नहीं है कि यह बात सत्य है या असत्य।
चाणक्य ने कहा दूसरी कसौटी है--अच्छाई। क्या आप मुझे मेरे मित्र की कोई अच्छाई बताने वाले हैं?' उस व्यक्ति ने कहा नहीं, ऐसा भी नही है। इस पर चाणक्य बोले,' जो आप कहने वाले हैं, वह न तो सत्य है, न ही मित्र की अच्छाई है। तो ठीक है चलिए, तीसरा परीक्षण भी कर लेते हैं।' 
आचार्य ने कहा कि तीसरी कसौटी है---उपयोगिता। आचार्य ने परिचित से पूछा कि जो बात आप मुझे बताने वाले हैं, वह क्या मेरे लिए उपयोगी है?' परिचित ने कहा नहीं, ऐसा तो नहीं है।' यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि आप मुझे जो बताने वाले हैं, वह न सत्य है, उसमें न कोई मेरे मित्र की अच्छाई है और न ही वह बात मेरे लिए उपयोगी है तो फिर आप मुझे वह बात बताना क्यों चाहते हैं?'
चाणक्य ने कहा कि लगता है कि तुम मेरे मित्र के विषय में मुझे भडकाना चाहते हो परन्तु ऐसा तुम किसके और क्यू कहने पर कर रहे हो यह जानना मेरे लिए आवश्यक है।


     
संपादनकर्ता - कृष्ण कुमार ‘आर्य’
साभार- चाणक्य जीवनी   



मंगलवार, 2 अगस्त 2011

श्रृंगारों की तीज

                  श्रृंगारों की तीज



हमारे जीवन में त्यौहारों का विशेष महत्व है। इन त्यौहारों को यादगार बनाने के लिए महिलाएं काफी संजीदा होती है। महिलाएं अपने जीवन में त्यौहारों की भांति ही श्रृंगारों का रंग भरने की कोशिश करती है। महिलाएं स्वयं को खूबसूरत दिखाने के लिए खूब श्रृंगार करती हैं परन्तु अनेक ‌महिलाओं को पूरे श्रृंगारों की जानकारी तक भी नही होती, जिसके कारण वे स्वयं को दूसरों से पीछे महसूस करने लगती है।
        भारतीय समाज में 16 श्रृंगारों का विशेष स्थान है। विवाह शादियों या तीज त्यौहारों पर महिलाए इन श्रृंगारों से सज कर स्वयं को दूसरों से अलग दिखना चाहती है। ये श्रृंगार होते कौन से है, आओ इसका पता लगाए।
‌शरीर को कांतिमय बनाने के लिए उबटन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे त्वचा और चेहरा दमक उठता है। शरीर में सफूर्ति और तेज का संचार होता है तथा चेहरे पर लगातार लगाने और रगड़कर हटाने से चेहरे की झुरियां व दाग धब्बे समाप्त हो जाती है। उबटन का‌ निर्माण हल्दी, बेसन, कमल के फूल, हरसिंगार के पुष्प को गाय के शुद्ध दूध में मिलाकर बनाया जा सकता है।
बिन्दी- 
विवाहित महिलाएं अपने माथे पर बिन्दी लगाती हैं, यह महिलाओं की सुन्दरता को बढाने का कार्य करती है। इसमें रोली, सिंदूर और स्टिकर बिन्दी भी लगाई जाती है।
सिंदूर-  
        यह लाल रंग का पाऊडर होता है, जिसको महिलाएं अपनी मांग में भरती है। यह सुहाग का ‌प्रतिक माना जाता है।
मांग टीका- 
        सुहागिनें अपनी मांग को पूर्ण करने के लिए बालों से ‌जोड़कर मांग टीका लगाती है। यह सोने का बना होता है। सोना माथे पर होने के कारण इससे मस्तिक शांत रहता है।   
काजल- 
        नेत्रों को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए काजल का प्रयोग किया जाता है। अच्छे काजल से न केवल सुन्दरता ‌में निखार आता है बल्कि आंखों के रोगों को दूर करने में सहायता मिलती है। यह आंखों की बरौनियों तथा पलकों पर लगाया जाता है।
नथ-
        दुलहन को परम्परागत सौंदर्य प्रदान करने में नथ का विशेष महत्व है। यह बांये नथ में पहनी जाती है तथा सोनी की बनी होती है।
हार-
        हार या मंगल सूत्र को शुभ का प्रतिक माना जाता है। इसे गले में धारण किया जाता है तथा सोना का बना होता है। आजकल हार में रत्नों को जड़ा जाता है।
कर्ण पुष्प-
        कर्णपुष्प कानों में डाले जाने वाले सोने के रिंग होते हैं। इससे कानों की सुन्दरता बढती है। इसके अतिरिक्त शरीर को फूलों से सजाया जाता है। गले में फूलों की हार, कलाईयों पर फूलों या सोने के कंगन तथा बालों में फूलों के गजरे लगाये जाते हैं।
मेहंदी-
        मेहंदी एक ऐसा श्रृंगार है जो न केवल सुन्दर लगता है बल्कि शरीर के लिए लाभदायक भी होता है।  इसे अमुमन हाथों, अंगुलियों तथा हथेली पर लगाया जाता है। महावर भी एक प्रकार की मेहंदी ही होती है। इसको पांवों में लगाया जाता है। तीज पर महिलाएं विशेष तौर पर इसका प्रयोग करती है। इससे पांव सुन्दर दिखते हैं।
चूड़ियां-
        चूड़ियों को हाथों का गहना माना जाता है। यह सुन्दरता में बढौतरी करता है तथा इनके धारण करने से महिला या दुलहन नई नवेली दिखाई देती है। चूड़ियां प्रायः सोने, धातु या कांच की पहनी जाती हैं।
बाजूबंध-
        बाजूबंध बाजू के ऊपरी हिस्सों में धारण किए जाते हैं। इन्हें आर्मलैट भी कहा जाता है। इनका आकार चूड़ियों जैसा तथा थोडा भिन्न दिखाई देता है। आमतौर मुगल काल, जयपुरी या राजस्थानी बाजूबंध काफी प्रचलित हैं।
आरसी-
        आरसी भी अंगुठी ही होती है परन्तु इसे पांव के अंगूठे में धारण किया जाता है। इस पर आमतौर शीशा जड़ा होता है। इससे महिला या दुलहन स्वयं तथा अपने जीवन साथी की झलक देख सकती है।
केश सज्जा-
        महिलाओं में केश सज्जा एक विशेष श्रृंगार है। इससे महिलाएं सुन्दर व मनमोहक दिखाई देती है। बालों में सुगंधित व पौष्टिक तेल का प्रयोग करने से बालों की चमक बनी रहे। बालों का अच्छी तरह से बांधने से दुलहन और शोभामान हो जाती है।
कमरबंध-
        कमरबंध दुलहन की कमर पर बांधा जाता है, जिसको बैलेट भी कहा जाता है। यह रत्नों से जड़ित सोने या चांदी से बना होता है। इसको दुलहन के लिबास को कसने के लिए बांधा जाता है तथा यह दुलहन की सुन्दरता को भी बढाता है।
पायल-‌बिछवे-
        ये चांदी के बने होते हैं। पायल पांव के टकने पर डाली जाती है, जोकि एक चेन के साथ जुड़े कुछ घूंघरूओं से बनी होती है। बिछवे भी चांदी से बने होते है और हाथों की अंगुठियों की भांति इन्हें पांव की अंगुठियां माना जाता है।
इत्र-
        आजकल अनेक प्रकार के सुगंधित इत्र चले हुए है परन्तु पहले महिलाएं केसर जैसे सुगंधित पदा‌र्थों की लकीरे माथे पर लगाती थी, जोकि सुन्दरता व सुगंध को बढाती है।
       
स्नान का विशेष महत्व है, इसके करने से शरीर में ताजगी आती है। मौसम के अनुसार ठंडे या गुनगुने पानी से स्नान करना लाभदायक तथा शरीर को सुन्दरता प्रदान करने वाला होता है। पानी में गुलाब, केवड़ा या नींबू का रस मिलाने से शरीर की सुन्दरता में निखार आता है। मौसम, शरीर की प्रकृति और शारीरिक बनावट के अनुसार वस्त्रों का चयन करना एक महत्वपूण कलां है। सुन्दर व रेशमी वस्त्र महिलाओं या पुरूषों दोनों के सौंदर्य में चार चांद लगा देते है।
विवाह के समय दुलहन के मुहं से दुर्गंध न आए इसके लिए इलायची, लौंग या केसरयुक्त पान का सेवन किया जाता है। लाल होंठों का कौन कायल नही होता है। पहले महिलाएं इसके लिए दंद्रासा लगाती थी, जोकि मुख को स्वस्थ व होंठों को लाल रखता है। आजकल अनेक प्रकार की लिपस्टिक बाजार में है। महिलाएं दांतों को सुन्दर बनाने और मसूडों को मजबूत बनाने के लिए मंजन लगाती थी तथा दांतों के बीच की लकीरों को काला करती थी। चेहरे की सुन्दरता बनाने के लिए महिलाएं अपने चेहरे पर कोई कृत्रिम तिल भी बनवा लेती है। यह तिल एक काली बिन्दी या मशीन से उकेरा जाता है। जीवन में आभूषणों का भी विशेष महत्व है। आमतौर पर सोना, चांदी, प्लेटिनम जैसी धातुओं के आभूषण धारण किए जाते है। सोना पहनने से न केवल सुन्दरता बढती है बल्कि शारीरिक तौर पर लाभ होता है।



लोकभवन