गणतन्त्र

त्याग एवं बलिदान ही जनतंत्र का प्रहरी


    भारत का इतिहास अति प्राचीन है। यह देवों की धरती है। इस पर महर्षि, मनस्वियों से लेकर भगवान श्रीराम, सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र एवं भगवान श्रीकृष्ण जैसे आप्त पुरुषों ने जन्म लिया है और संसार का मार्ग दर्शन किया है। इस दिव्य धरा पर सदैव सत्य सनातन वैदिक आचरण को ही व्यवहार में लाया जाता रहा है। महाभारत युद्ध के उपरान्त देश को भारी सामाजिक और आध्यात्मिक हानि उठानी पड़ी, जिसकी भरपाई आज 5 हजार से अधिक वर्ष बीत जाने पर भी नही हो पा रही है। 

आज से लगभग 2350 वर्ष पूर्व तक सब ठीक से चलता रहा, परन्तु महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य काल में सिकन्दर ने भारत के कुछ भाग पर हमला किया। मात्र 30 वर्ष की आयु में दुनिया जीतने वाले सिकन्दर को आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत-भूमि से भगा दिया। इसके सैकड़ों वर्षों बाद तक देश को सम्राट अशोक, सम्राट विक्रमादित्य, राजभोज जैसे अनेक आर्य प्रतापी राजाओं ने देश की शालीनता और संस्कृति को बचाकर रखा। परन्तु उनके पश्चात अनेक विदेशी हमलावरों का आना आरम्भ हो गया।

पुर्तगाली, फ्रांसिसी, यवन, मुगल तथा अंग्रेजों ने जमकर भारत का दोहन किया। इनसे मुक्ति पाने के लिए समय-समय पर असंख्य वीर बलिदानियों ने भारत माता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इन विदेशी हमलावरों को नाकों चने चबाने के लिए दक्षिण के महाराज कृष्णदेव राय, रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, टांत्या टोपे, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के नामों को भूलाया नही जा सकता है। इनके अतिरिक्त अनेक वीरों के बलिदानों से भारत माता ने 15 अगस्त 1947 को आजादी की खुली हवा में सांस लिया। इसको सुचारू रूप से चलाने के लिए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाए गए संविधान को 26 नवम्बर 1950 को अंगिकार कर लिया गया तथा आज ही के दिन 26 जनवरी 1950 से देश में संविधान लागू कर दिया गया।

इसी संविधान में दिए गए अधिकारों की बदौलत आज हमने अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराया है। यह तिरंगा हमारी आन, बान और शान का प्रतीक है, जो सदैव आसमान में यूं ही सबसे ऊंचा लहराता रहे। इसका दंड स्तम्ब सदैव मजबूत रहे, जिससे हमारा देश हमेशा बुलंदियों को छूता रहे। यह कामना हम सब करते हैं। इस पर किसी ने कहा कि..   

‘झंडा ऊंचा रहे हमारा, डंडा है झंडे का सहारा और डंडे ने दुष्टों को सुधारा’

हमारा झंडा ऊंचा कैसे रहेगा, हमारे देश का गणराज्य कैसे चिरस्थाई बना रहे। इसके लिए त्याग, बलिदान और दंड की आवश्यकता है। यह हमारी जन्मभूमि है, जो स्वर्ग से भी महान है। 

‘जननी जन्मभूमिस्य स्वर्गादपि गरीयसी’

अतः अपनी जन्मभूमि को कैसे महान बनाया जा सकता है। वेद में इस विषय पर संगठन सुक्त में कहा है।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनासि जानताम,

देवा भागं यथा पूर्वे सं जानाना उपासते।

कि हम एक साथ चले, एक जैसा बोले, हमारे मन एक समान हों ताकि हम अपने देवतुल्य पूर्वर्जों की भांति अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहें।

    परन्तु इसके लिए हमें तप करना होगा, स्वयं को साधना होगा तथा हमें उन दोषों से दूर रहना पडे़गा, जो महाभारत के शांतिपर्व में कहे गए हैं।

क्रोधो भेदो भयं दण्डः, कर्षणं निग्रहो वधः।

नयत्य रि वशं सद्यो गणान् भरत सत्तम।।

गणराज्य के लोगों में क्रोध, आपसी फूट, भय, एक-दूसरें को निर्बल बनाना, परेशानी में डालना या मार डालना की प्रवृति होने से हम, हमारे घर, परिवार तथा समाज शत्रुओं के आगोश में चला जाता है।

हमारा यह भारत युगों से ‘एक-भारत’ है तभी तो ‘श्रेष्ठ-भारत’ है। महाराज भरत के नाम से बने भारत में यह भावना कूट-कूटकर भरी थी। महाराज भरत ने अपने नौ पुत्रों में से युवराज पद के लिए किसी को भी योग्य नहीं समझा। मेरी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में इस संदर्भ में दिया है कि उनकी अयोग्यता के कारण महाराज भरत ने अपने राज्य के कुशल एवं योग्य युवक ऋषि भरद्वाज पुत्र भूमन्यु को देश की भागडोर सौंपी, जो एक उत्कृष्ट लोकतंत्र एवं गणतंत्र का उदाहरण है।

सैकड़ों वर्षों की गुलामी से हम आजाद हो गए हैं, जिससे हमें राजनैतिक, सामाजिक आजादी प्राप्त हुई है परन्तु क्या हम मानसिक रूप से आजाद हो सकें हैं। यह एक यक्ष प्रश्न है ! इसके बिना बौधिक आजादी तथा आध्यात्मिक आजादी भी नही हो सकती है। आज हमें अध्यात्म के नाम पर कोई भी हांक कर ले जाता है। यह कितना सही है, परन्तु विचारणीय है! इसलिए यह कहा जा सकता है कि...

राज आजाद, समाज आजाद, आजाद कृष्ण सब ओर,

बिन मन आजाद, अध्यात्म आजाद, नही कहीं पर ठोर।।


                            कृष्ण कुमार ‘आर्य’