बुधवार, 20 अगस्त 2025

वेद की ऋचाएं ही थी गोपियां ?



 वेद की ऋचाएं ही थी गोपियां ?

भगवान श्रीकृष्ण की महानता का बखान करना सहज नहीं है। उनके जीवन में गोपियांे का महत्ता प्रकाश रहा है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण सदैव गोपियों में रमण करते थे तथा नित्य उन्हीं के चिंतन में लगे रहते थे। इतना ही नही, वह गोपियों के वस्त्र चुराने, रासलीला करने तथा अपना अधिकतर समय उन्हीं के साथ व्यतीत करते रहते थे। परन्तु श्रीकृष्ण का जीवन इतना उत्कृष्ट था कि आमजन द्वारा उन्हें समझना तो दूर, पढ़ना भी आसान नहीं है।

श्रीकृष्ण जन्मजन्मातरों के ऋषि रहे। सत्य सनातन वैदिक साहित्य में उनके विषय में बड़ा गहरा चिंतन दिया है। यहां गोपियों का सूक्ष्म अर्थ बड़ा गहन और स्मरणीय दिया है। गो का अर्थ गाय तथा हमारी इन्द्रियां दोनों होता है। अपनी इंद्रियों के स्वभाव को समझने, परखने और यथानुकूल सात्विक आचरण करने वाले स्त्री-पुरुष को गोपी या गोप कहा गया है। श्रीकृष्ण भी ऐसे ही एक गोप थे, जो अपनी इंद्रियों को वासना रहित बनाने में लीन रहते थे। अतः इंद्रियों के आचरण को शुद्ध करने में प्रयासरत रहने के कारण ही उन्हें गोपिका रमण भी कहा गया, इसे ऐसे ही समझना चाहिए।

सोलह हजार गोपियों का सत्य-

पुराणों में श्रीकृष्ण की सोलह हजार गोपियां बताई गई है और वह सदैव उन्हीं में रमण करते रहते थे। इस संबंध में गर्ग मुनि महाराज ने सुन्दर व्याख्या करते हुए गर्ग संहिता में वेद की ऋचाओं को भी गोपियां कहा हैं। वेद के मंत्रों को ऋचाएं कहते हैं। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त की पुस्तकों में भी ऐसा ही स्वीकार किया है। अतः वेद की ऋचाओं अर्थात् वेद के गोपनीय मंत्र ही गोपियां है। 

महर्षि ब्रह्मा से लेकर जैमिनी और ऋषि दयानन्द पर्यन्त सभी ने चार वेद स्वीकार किए हैं। इनमें सृष्टि का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित है। इन चार वेदों में सम्मिलित ऋग्वेद में ज्ञान, यजुर्वेद में कर्म, सामवेद में उपासना तथा अथर्ववेद में विज्ञान विषय निहित है, जिनमें कुल 20,346 मंत्र हैं। इनमें से भगवान श्रीकृष्ण को सोलह हजार से अधिक वेदमंत्र कंठस्थ थे। इतना ही नहीं श्रीकृष्ण इन्हीं वेदमंत्रों के अर्थों को समझने एवं उनमें छुपे रहस्यों पर नित्य अनुसंधान करते और यथानुकूल आचरण करते थे। श्रीकृष्ण इन्हीं वेदमंत्र रूपी गोपियों में सदैव रमण करते थे। 

इस कार्य में वह इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें कभी खाने-पीने तक का भी आभास नहीं रहता था। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त की पुस्तक ‘महाभारत एक दिव्य दृष्टि’ के अनुसार ‘श्रीकृष्ण को सोलह हजार आठ वेद की ऋचाएं कण्ठस्थ थी।’ इसका उल्लेख मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी किया है। श्रीकृष्ण ने अपने जीवन का अधिकतम समय इन्हीं वेद की ऋचाओं अर्थात् गोपियों के साथ व्यतीत किया। परन्तु आधुनिक काल में इसे भगवान श्रीकृष्ण की 16108 गोपियां (रानियां) बना दिया है, जोकि अर्थों का अनर्थ ही समझना चाहिए। 

राधा रमण-

लोकाचार में यह प्रचलित है कि श्रीकृष्ण की 16108 गोपियां थी। श्रीकृष्ण उनमें राधा से विशेष प्रेम रखते थे और वह सदैव राधा के साथ एकान्तवास में रमण रहते थे। यह स्थूल वाक्य है परन्तु यदि इसका सही अर्थ समझे तो इसमें भी श्रीकृष्ण की महानता का ही चित्रण होता है। परन्तु तथाकथित विद्वानों ने इसे भिन्न शरीरों से जोडक़र भगवान श्रीकृष्ण को बदनाम करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। इससे समाज में अनेक भ्रांतियों ने जन्म ले लिया और अंतरिक्ष को दूषित किया। अतः लोकाचार में राधा को कहीं कृष्ण की सखी, माता, पुत्री या मामी दिखाया गया है, जिसे कपोल-कल्पित समझना चाहिए। 

ऋग्वेद के भाग-1, मंडल-1, मंत्र 2 में राधस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ समस्त सुखों एवं वैभव का प्रतीक बताया है। ऋग्वेद (2/3,4,5) के मंत्रों में सुराधा शब्द श्रेष्ठ धनों के रूप में प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वेद के ही एक मंत्र में राधा एवं आराधना शब्द को शोध कार्यों के लिए प्रयोग किया गया है। वस्तुतः सनातन वैदिक साहित्य में राधा शब्द संसार, ऐश्वर्य एवं श्री इत्यादि को धारण करने के लिए प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद (1,22,7) के एक मंत्र में कहा है।

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः। सवितारं नृचक्षसम्।

यहाँ गोपियां हमारी इन्द्रियों तथा राधा आत्मा को कहा गया है। इसका काव्यांश अर्थ है कि ‘वह सब के हृदय में विराजमान, सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्ट्रा जो राधा को गोपियों (इंद्रियां) से निकालकर ले गए’, वह ईश्वर हमारी रक्षा करें। अतः वह इन्द्रिय दोषों से हमारी आत्मा (राधा) की रक्षा करने वाला ईश्वर ही है। 

अर्थात् श्रीकृष्ण अपनी आत्मा रूपी राधा को गोपियां अर्थात् इन्द्रिय दोषों से निकाल कर एकांत में रमण करते थे। इसका अर्थ हुआ कि श्रीकृष्ण योग में इतने लीन रहते थे कि वह अपनी राधाई आत्मा को गोपीय (इंद्रिय) दोषों से दूर रखते थे। अतः श्रीकृष्ण की आत्मा सदैव एक द्रष्ट्रा की भूमिका में रहती थी। उनका स्वयं पर इतना नियंत्रण होता था कि वे अपनी पांचों ज्ञान इंद्रियों को किसी दोष की ओर आकर्षित नहीं होने देते थे। इतना ही नहीं, वह अपनी आंतरिक प्रेरणा से इंद्रिय दोषों के संस्कारों को आत्मा और चित्त पर भी नहीं पड़ने देते थे। इसके लिए श्रीकृष्ण सदैव चिन्तन, मनन और निदिध्यासन में रत रहते थे। इसलिए ही महर्षि दयानन्द सरस्वती ने श्रीकृष्ण को जीवन में कभी कोई अधर्म कार्य नहीं करने का प्रमाणपत्र दिया है। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त ने भी उन्हें आप्त पुरुष स्वीकार किया है। अतः राधा का पर्याय आत्मा और गोपिकाओं का दस इंद्रियां एवं उनकी वासनाओं को समझना चाहिए।

कैसे शुद्ध होगा ब्रह्मांड-

जब ब्रह्मांड की किसी भी धरा पर ईश्वरीय व्यवस्थाओं का लोप होता है तो उससे उत्पन्न नकारात्मक प्रभाव से अन्तरिक्ष दूषित होने लगता है। इससे जीवों को उत्तम वृष्टि, सद्भावनाओं से युक्त विचारधारा तथा खाद्य पदार्थों की कमी होने लगती है तथा व्यवस्थाएं चरमरा जाती हैं। ब्रह्मचारी कृष्णदत्त के अनुसार ‘सुक्ष्म शरीर से अन्तरिक्ष में रमण करने वाली आत्माओं को देवता कहते हैं’। अर्थात वे आत्माएं अपने सूक्ष्म शरीर के माध्यम से सृष्टि पर दृष्टिपात करती हुई स्वछंद रूप से गमन करती हैं। 

ऐसी स्थिति में मुमुक्षु (मोक्ष के निकट) एवं सृष्टिद्रष्टा आत्माएं ईश्वर की प्रेरणा और व्यवस्था से धरा पर जन्म लेने का संकल्प लेती हैं ताकि व्यवस्थाओं में सुधार कर समाज में धर्म का पुनरुत्थान हो सके। इसी से ब्रह्मांड का शौधन होता है। इस तथ्य को स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता संदेश में अर्जुन के सामने प्रकट करते हुए भी कहा कि... 

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे

अर्थात् संसार में जब-जब धर्म की हानि होती है, अत्याचार और अनाचार बढ़ता है तो उन (कृष्ण) जैसी आत्माएं संसार में पदार्पण करती हैं और लोगों को धर्म अर्थात् कर्त्तव्यपथ पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं। इतना ही नहीं, ईश्वरीय व्यवस्थाओं की स्थापना के लिए ऐसी दिव्य आत्माएं युग-युग में जन्म लेती हैं। 

अतः श्रीकृष्ण एक ऐसी महान आत्मा थे, जिन्होंने व्यवस्थाओं के सुधार के लिए कभी धर्म के मार्ग का त्याग नही किया। उनका जीवन न केवल युगों तक मानव जाति को प्रेरणा देता रहेगा बल्कि संसार के लिए सदैव अनुसंधानात्मक विषय रहेगा। उनके विषय में फैली गलत धारणाओं का समाप्त करने से ब्रह्मांड का शौधन भी होगा।

धन्यवाद।


                                                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

पूतना एक महामारी थी ?

                                                     



पूतना एक महामारी थी ?

संसार में सबसे अधिक यदि किसी विषय पर लिखा जाता है तो वह श्रीकृष्ण है। उनका जीवन अनेक रहस्यों से भरा रहा है। हम कभी उन्हें भगवान के रूप में पूजते हैं तो कभी रसिया बोल देते है। कभी अवतार मानते हैं तो कभी गोपियों के वस्त्र चुराने वाला बता देते हैं। कभी हम उनकी बाल लीलाओं को सुनकर हर्षित होते है तो कभी सोलह कलाओं का बखान करने लगते हैं। हमारे दिमाग में कभी पूतना की विशालकाय आकृति तैरने लगती है, तो कभी हम राधा की मनमोहक छवि से अभिभूत हो जाते हैं। अतः भगवान श्रीकृष्ण एक ऐसे परमपुरुष थे, जिनके जीवन के रहस्यों पर अनेक विद्वानों ने अपनी समझ से व्याख्या की है।
यह महापुरुष 3170 वर्ष विक्रमी सम्वत् पूर्व भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण योग, वृष लग्न, अष्टमी तिथि, अर्ध रात्रि चन्द्रोदय शून्यकाल में माता देवकी के गर्भ से अवतरित हुए। बालक का श्याम वर्ण, घुंघराले केश, कमल की भांति सुन्दर एवं विशाल नयन, तेजोमय चेहरा तथा स्फटिक की भांति कांतिमय शरीर विशेष आभा से दमक रहा था। उनके नामकरण के समय गर्ग मुनि ने कहा कि यह बालक षड्विध ऐश्वर्य के स्वामी, भगवान विष्णु की भांति प्रजापालक होगा। नरों में सिंह के समान बल वाला यह बालक नरसिंह कहलाएगा। अतः इसके गुण स्वभाव के अनुरूप यह बालक कृष्ण नाम से विख्यात होगा। कृष्ण पक्ष की अन्धेर रात्रि में चन्द्रोदय काल में जन्में कृष्ण को कृष्ण चन्द्र के नाम से जाना जाएगा। परन्तु माता यशोदा बाल कृष्ण को पीताम्बर वस्त्रों से विभूषित कर लाड लड़ाती थी।
इस बालक के जीवनकाल में अनेक ऐसी घटनाएं घटित हुई, जिनकी तुलना इतिहास में अन्य किसी से नही की जा सकती है। उन्होंने अपने जीवनकाल में पूतना संहार, कालीदह की घटना, राक्षससों का दमन तथा अनेक असाधारण कार्यों को अन्जाम दिया। वह एक यशस्वी, तेजस्वी, बलस्वी, धनस्वी, तपस्वी तथा धर्मात्मा की पूर्णता को प्राप्त थे, जिसके कारण भगवान कहलाए। उनके जीवन में राधा रमण, गोपियों संग रासलीला जैसे अध्याय भी सम्मिलित हैं, जिनसे उनके जीवन का अलग पहलू दिखाई देता है। ऐसे प्रकरणों का विशुद्ध लेखन मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में प्रकट करने का प्रयास किया है ताकि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से संबंधित ऐसे अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सके।
पूतना संहार-
बचपन से ही श्रीकृष्ण का जीवन विस्मित करने वाली घटनाओं से भरा रहा है। मान्यता है कि कृष्ण के गोकुल पहुँच जाने की सूचना पर कंस आग बबूला हो गया और उसने उस रात्रि में पैदा हुए सभी बच्चों की हत्या करने के आदेश दे दिए। कंस ने यह कार्य करने के लिए पूतना को लगाया। वह एक विशालकाय राक्षसी बताई गई है। ऐसा मानते हैं कि पूतना ने जब कृष्ण (लल्ला) को मारने के लिए विषाक्त स्तनों से दूध पिलाना आरम्भ किया तो कृष्ण ने स्तनों को जोर से खींच दिया और पूतना की मौत हो गई।
हमारे वैद्यक शास्त्रों में पूतना को अन्य प्रकार से परिभाषित किया है। आयुर्वेद की एक विख्यात पुस्तक सुश्रुत में पूतना को प्रसूता माताओं से नवजात बच्चों में होने वाला बालरोग का नाम बताया है, जिसके कारण मां का दूध पीते ही बच्चे बीमार होकर मौत का ग्रास बन जाते हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय गोकुल एवं आसपास क्षेत्र की प्रसूता माताओं में ऐसा रोग फैला हो, जिनके स्तनपान से बच्चे बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते होंगे।
इस संबंध में आयुर्वेद के अन्य ग्रन्थ ‘कुमार तंत्र समुच्चय’ में विशेष जानकारी दी है। इस ग्रन्थ में बच्चों को होने वाले रोग और उनके निवारण के उपाय दिए हैं। ऐसी धारणा है कि इसकी रचना रावण द्वारा की गई थी। वर्तमान में श्री रमानाथ द्विवेदी एवं श्री अशोक कुमार वर्मा द्वारा इस पर टीका लिखी गई है। इसके अनुसार इस रोग से पीड़ित बच्चे अजीर्णता, पेट का बढऩा, शरीर कमजोर होना तथा मां का दूध नहीं पीने जैसी अन्य बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। यह रोग मृत्यु का कारण भी बन जाता है।
बालक कृष्ण के विषय में इस पर दो विकल्प हो सकते हैं। पहला उस समय बालक कृष्ण ने माता यशोदा का दूध पीया न हो, जिसके कारण उसे कोई हानि नहीं हुई होगी। दूसरा-माता यशोदा उस दौरान इस बीमारी से ग्रसित न रही हो। इसलिए पूतना नामक उस राक्षस का बालक कृष्ण पर कोई प्रभाव न पड़ा हो।
अथर्ववेद में रोग को भी राक्षस कहा है, इसलिए पूतना राक्षस का अर्थ पूतना रोग ही समझना चाहिए। सम्भव है कि इसी पूतना नामक रोग ने अधिकतर बच्चों को मौत का ग्रास बनाया हो। परन्तु शारीरिक बल, रोग प्रतिरोधक क्षमता और पारिवारिक सुरक्षा के कारण पूतना रोग बालक कृष्ण का कुछ नहीं बिगाड़ सका। इस तरह बालक कृष्ण पूतना को मारकर स्वयं को जीवित रखने में सफल रहे। इसी को अलंकारिक भाषा में कृष्ण द्वारा पूतना संहार माना जाए।
सुश्रुत एवं कुमारतंत्र के अनुसार यह रोग 3 दिन, 3 माह या 3 वर्ष की अवस्था में बालक को प्रभावित करता है। अतः सम्भव है कि उस समय कृष्ण की आयु 3 दिन से 3 महीने के आसपास रही होगी। इससे लगता है कि साहित्यकारों ने इस घटना को एक जीवित प्राणी के रूप में प्रस्तुत कर दिया है।
भागवत एवं अन्य पुराणों में पूतना का शरीर कहीं छह कोस तो कही 4-5 योजन बताया गया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने पूतना के 4-5 योजन लम्बे शरीर पर प्रश्नचिह्न लगाया है, जिसकी गणना इस प्रकार है।
एक कोस = 3.62 किलोमीटर
छह कोस = 3.62 गुणा 6 = 21.72 किलोमीटर = लगभग 22 किलोमीटर
एक मील = 1.609 कि.मी. तथा एक योजन = 8 मील
अतः आठ मील = एक योजन = 1.609 गुणा 8 = लगभग 13 कि.मी
पांच योजन = 13 गुणा 5 = 65 कि.मी.
इस तरह पूतना नामक यह बीमारी न्यूनतम लगभग 20 कि.मी. से 60 कि.मी. क्षेत्र तक फैली होगी। इसका उदाहरण कोरोना राक्षस को समझा जा सकता है, जिसका शरीर पूरी पृथ्वी के समान था। अतः पूतना की लम्बाई के विषय में पुराणों की बात भी कहीं न कहीं सत्य प्रतीत होती है परन्तु उसके अर्थ बदल गए हैं।
कालीदह-
कालीदह घटना का वर्णन अनेक पुस्तकों में लगभग एक समान ही दर्शाया गया है कि यमुना नदी के आसपास कालिया नामक नाग परिवार रहता था। वह यमुना नदी के पास आने वाली गऊओं एवं बछड़ों का भक्षण करता था और अपना विष नदी में छोडक़र पानी विषैला कर रहा था। इससे गांव के ग्वाल-बाल एवं लोग दुःखी रहते थे। अतः वे सभी मिलकर कृष्ण के पास गए और उन्हें पूरा वृत्तान्त सुनाया। यह सुन कृष्ण ने खेल-खेल में एक गेंद को पानी में उसी स्थान पर फेंक दिया जहाँ कालिया नाग रहता था। गेंद को निकालने के लिए कृष्ण यमुना के गहरे पानी में कूद गये और युद्ध में कालिया नाग, उसकी पत्नियों तथा बच्चों सहित सभी को पछाड़ दिया। इससे भयभीत हो नाग पत्नियों की प्रार्थना पर कृष्ण ने कालिया को जीवनदान देते हुए उसे स्थान का त्याग कर रमणक द्वीप पर प्रस्थान करने की आज्ञा दी। इसके बाद कृष्ण, कालिया के फनों पर नृत्य करते हुए यमुना नदी से बाहर आए और गांव वालों को बड़ी राहत हुई।
इस विषय पर ब्रह्मचारी कृष्णदत्त की पुस्तक ‘महाभारत एक दिव्य दृष्टि’ में नाग मंथन विषय विस्तार से लिखा है। इस घटना का सुन्दर चित्रण करते हुए उन्होंने इसे कालीदह नाम से पुकारा है। ‘एक समय पातालपुरी (वर्तमान अमेरिका) में रक्तमयी क्रांति हुई, जिससे वहाँ पर राज्य और समाज पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया। फलस्वरूप पातालपुरी के निवासी धरती के अनेक अन्य स्थानों पर जाकर निवास करने लगे। वहाँ से नाग सम्प्रदाय की बड़ी आबादी भारत में भी आकर बसने लगी। उन्होंने भारत के एक ‘कालीदय’ नामक स्थान पर अपना निवास बना लिया। यह स्थान पर्वतों के मध्य स्थित बताया गया है। वहाँ ये सभी वनवासियों की भांति अपना जीवन यापन करने लगे।’
श्रीकृष्ण जब कुछ बड़े हुए तो अपनी कुशाग्र बौद्धिक बल, वैदिक ज्ञान, वाकचातुर्य और नाग यज्ञ द्वारा उनकी सहायता करने का संकल्प लिया। कृष्ण ने उन्हें धर्म एवं शास्त्रों की जानकारी दी तथा योग एवं अन्य विधाओं की शिक्षा प्रदान की। इससे नाग समुदाय पूरी तरह से कृष्ण के पक्ष में हो गया और उनके अनुसार ही आचरण करने लगा। फलस्वरूप पूरा नाग समुदाय उनके अनुकूल हो गया और ऐसा लगने लगा था जैसे श्रीकृष्ण ने उन्हें स्वयं में धारण कर लिया। इसको नाग समुदाय को नाथने की संज्ञा भी दी गई, जिसे नाग मंथन कहा गया है। यह घटना कालीदह स्थान की है, इसलिए इसे कालीदह नाथन नाम भी कहा गया।
वसुदेव की पहली पत्नी रोहिणी को भी नाग समुदाय का बताया है। इस कारण नाग समुदाय के लोग कृष्ण को अपना देवता (दोहता) भी मानते थे, जिसके कारण वह सब कृष्ण की बातों को महत्व देने लगे। इसी कारण माता देवकी के शेष तथा नाग कन्या रोहिणी के गर्भ से प्रकट हुए दाऊ बलराम को शेषनाग से अवतरित माना गया और उन्हें शेषनाग का अवतार कहा जाने लगा। आजकल अधिकतर लोग नाग को एक सम्प्रदाय की बजाए उसे रेंगने वाला प्राणी सर्प समझते हैं, जो सही नही है।
डॉ. के कृष्ण आर्य

लोकभवन