शुक्रवार, 18 मई 2012

कसौटी--

                 जिन्दगी की  

 

भारत देश अनेक महापुरूषों की जन्म स्थली रहा है। समय-समय पर यहां दिव्य आत्माओं ने जन्म लेकर देश व काल के अनुसार देशहित में उत्तम कोटी के कार्य किये थे। चाणक्य भी इसी प्रकार की एक महान विभूति थे, जिन्होंने अभाव और विषमताओं में रहते हुए न केवल विखंडित भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया बल्कि मौर्य वंश के साम्राज्य को स्थापित कर देश को नई दिशा प्रदान की। आचार्य चाणक्य की नीति जहां आज भी उतनी ही प्रासंगिक है वहीं उनके व्यकितगत गुण आम आदमी का सही मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। उन्हीं में से उनका एक गुण यह भी था कि वे सहज ही अपने व पराये की पहचान कर लेते थे और उसी के अनुसार कार्य करते थे। आचार्य चाणक्य के जीवन की अनेक शिक्षाप्रद घटनाओं में से एक घटना लिखने का मन हुआ है।
आचार्य चाणक्य अपनी तार्किक बुद्घि, तर्क-शक्ति, ज्ञान और व्यवहार-कुशलता के लिए विख्यात थे। एक दिन आचार्य चाणक्य को उनका एक परिचित मिलने आया और उत्साह से कहने लगा, आचार्य ‘क्या आप जानते हैं कि मैंने आपके मित्र के बारे में क्या सुना?’  उन्होंने परिचित से कहा कि आपकी बात सुनने से पहले मैं चाहूंगा कि आप एक त्रिगुण परीक्षण से गुजरें अर्थात अपनी बात को तीन कसौटियों पर कस कर देख लें।
परिचित ने पूछा, यह त्रिगुण परीक्षण क्या होता है आचार्य। चाणक्य ने कहा कि आप मुझे मेरे मित्र के बारे में कुछ बताएं, इससे पहले अच्छा यह होगा कि जो आप कहने जा रहे हैं उसे तीन स्तरों पर परख लें। इसीलिए मैं इस प्रक्रिया को त्रिगुण परीक्षण कहता हूं।
परिचित ने पूछा इसकी क्या आवश्यकता है, मैं जो कहूंगा सत्य ही होगा। आचार्य ने कहा फिर भी सत्य का परिक्षण तो आवश्यक होता है। इससे आपको भी सत्य व असत्य का आभास आसानी से हो जाएगा, फिर आपको इससे कोई परहेज नही होना चाहिए। परिचित ने कहा कि ठीक है, आप बताईये मुझे क्या करना होगा। आचार्य ने कहा आपको कुछ नही करना, आप तो केवल बताते जाएं।
आचार्य ने कहा इसके लिए पहली कसौटी है-सत्य। इस कसौटी के आधार पर मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि जो आप कहने वाले हैं, क्या वह सत्य है और आप स्वयं उसके बारे में अच्छी तरह जानते हैं?' परिचित ने कहा ‘नही! ऐसा तो नहीं, 'वास्तव में मैंने इसे कहीं सुना था। खुद देखा या अनुभव नहीं किया था। आचार्य ने कहा ठीक है 'आपको पता नहीं है कि यह बात सत्य है या असत्य।
चाणक्य ने कहा दूसरी कसौटी है--अच्छाई। क्या आप मुझे मेरे मित्र की कोई अच्छाई बताने वाले हैं?' उस व्यक्ति ने कहा नहीं, ऐसा भी नही है। इस पर चाणक्य बोले,' जो आप कहने वाले हैं, वह न तो सत्य है, न ही मित्र की अच्छाई है। तो ठीक है चलिए, तीसरा परीक्षण भी कर लेते हैं।' 
आचार्य ने कहा कि तीसरी कसौटी है---उपयोगिता। आचार्य ने परिचित से पूछा कि जो बात आप मुझे बताने वाले हैं, वह क्या मेरे लिए उपयोगी है?' परिचित ने कहा नहीं, ऐसा तो नहीं है।' यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि आप मुझे जो बताने वाले हैं, वह न सत्य है, उसमें न कोई मेरे मित्र की अच्छाई है और न ही वह बात मेरे लिए उपयोगी है तो फिर आप मुझे वह बात बताना क्यों चाहते हैं?'
चाणक्य ने कहा कि लगता है कि तुम मेरे मित्र के विषय में मुझे भडकाना चाहते हो परन्तु ऐसा तुम किसके और क्यू कहने पर कर रहे हो यह जानना मेरे लिए आवश्यक है।


     
संपादनकर्ता - कृष्ण कुमार ‘आर्य’
साभार- चाणक्य जीवनी   



मंगलवार, 1 मई 2012

सोच

                                सोच
     
सोच है!
पर ना मैं सोच करना चाहता हूं,
सोच पर मैं यह सोचता ही रहता हूं,
जान नही पाया हूं,
किन मजबूरियों को सोच कहता हूं,
फिर भी सोचता ही रहता हूं।
क्या है सोच,
किसने बनाया इसको,
क्यू बनाया, यह पता नही चल पाया,
पर आत्मा के घर को खोखला करती है,
मन के भावों में अभाव भरते है,
फिर भी हम सोच करते है।
क्यू है सोच,
चिंता का दूसरा नाम है सोच,
विचारों की ना लेन-देन है सोच,
नकारात्मकता का परिणाम है सोच,
और करती बर्बादी का काम है सोच,
फिर भी हम करते हैं सोच।
कैसी है सोच,
चिता पर ले जाया करती है,
पर ना किसी से डरती है,
दुविधा में मन भरती है,
करने वालों के संग मरती है,
पर रंगहीन जीवन करती है।
होती है सोच,
बचाव के असफल प्रयास हो जब,
भूख मिटाने की छटपटाहट हो तब,
लक्ष्य प्राप्ति की हड़बड़ाहट हो जब,
अवसाद का कारण है यह सब,
ऐसे तब तक होती है सोच।
मिटती है सोच,
विचारों के आदान-प्रदान से,
सकारात्मकता की शान से,
अपने व दुश्मनों की पहचान से,
बुद्घिमान और वृद्धों की आन से,
कृष्ण मिटती है सोच ऐसा करन से।
                             
                       कृष्ण कुमार ‘आर्य



शुक्रवार, 23 मार्च 2012

नव सम्वत

                              नव सम्वत


आज सृष्टि का जन्म दिन है,
आज ब्रह्मा ने संसार रचा था,
ऋतुओं का निर्माण किया था,
पहली बार चमका था सूरज,
आज ही है सृष्टि का जन्म दिन।
        पहले दिन की थी जो रचना,
        जीव, प्रकृति का पुरा सपना,
        पक्षी चहके और आत्मा महके,
        हर तरफ फैला मधुर उपदेश,
        सृष्टि का वह पहला दिन था।
राम प्रभु ने इस दिन का,
किया था बडा सदुपयोग,
लंका जीती अयोध्या आये,
और राजतिलक लिया करवाये,
तब भी सृष्टि का था जन्म दिन।
सम्वत का नाम,
उस राजा के नाम पर होता,
जिसके राज में न कोई चोर,
अपराधी, न भूखा था सोता,
सम्वत फिर ऐसे महान पर होता।
बंसत ऋतु का आगमन होता,
बहे उमंग और खुशी का श्रोता,
हर तरफ पुष्पों की खुशबू,
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा दिन वो होता,
सृष्टि का ये भी जन्म दिन होता।
फसल पकने का यह दिन,     
किसान की मेहनत का दिन,
शुभ नक्षत्रों का यह दिन,
नेक कार्यों का शुभ है यह दिन,
सृष्टि का है यह जन्म दिन।
गुरू अंगददेव का है जन्म दिन,
नवरात्र का हुआ शुभारम्भ,
आर्य समाज की हुई स्थापना,
रामजन्म से नौ दिन पहले का दिन,
यही था सृष्टि का वह सृजन दिन।
        युधिष्ठिर का अभिषेक हुआ,
        हेडगेवार ने जन्म लिया,
        विक्रमादित्य का राज स्थापित,
जिससे हुआ शुरू विक्रमी संवत,
वह भी था सृष्टि का जन्म दिन।


(सृष्टि सम्वत, एक अरब 97 करोड़, 29 लाख 49 हजार 113 वर्ष) 





                         कृष्ण कुमार ‘आर्य’


मंगलवार, 20 मार्च 2012

भाग मत


                भाग मत

मुसकिलों से हो घिरे, असफलताओं में हो पड़े,
मार्ग हो अवरूध चाहे, ना काम हो आसान,
दुविधा में हो मन यदि, परेशानियां हो हर वक्त,
भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।
मंजिल यदि दूर हो, शरीर चकनाचूर हो,
राह में हो रूकावटें, पग-पग संकट भरे,
ना अडचनों से रूको तुम, अडचनें तू दूर कर,
भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।
जीत में हार है, हार ही तो जीत है,
विचार में धार हो, धार ही तो विचार है,
आशा में निराशा है, निराशा को तू दूर कर,
भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।
        संकल्प में विकल्प हो, विकल्प में हो संकल्प,
        गमन में जो नमन हो, नमन को तू कर गमन,
        संदेश यदि आदेश हो, आदेश में तू संदेश कर,
भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।
सत्य में भगवान है, भगवान ही तो सत्य है,
संसार में संस्कार है, संस्कारों से ही संसार है,
सुख में ही पीड़ा है, पीड़ा को तू सुख कर,
भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।
        धर्म में यदि अधर्म हो, अधर्म को कर धर्म,
        अर्थ का अनर्थ हो, अनर्थ को कर अर्थ,
        काम की हो कामना, कामना तू मोक्ष कर,
        भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।
आयु यदि अचीर हो, अचीरता को चीर कर,
यश यदि अपयश हो, अपयश को तू दूर कर,
कर्म यदि निष्फल होकृष्ण कर्म तू ‌नित कर,
भाग मत! भाग मत कर प्रयास, कर प्रयास भाग मत।


                               कृष्ण कुमार ‘आर्य’



बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

अन्तिम संस्कार


              -अन्तिम संस्कार-


सुबह-सुबह फोन आया, है दादी बिमार,
जल्दी से घर पर, आकर करो दीदार,
भागदौड़ कर खाना छोड़ा, जा पहुंचे घरद्वार,
घर पहुंचकर देखा तो, दादी गई स्वर्ग सिधार,
        देखकर हालत दादी की, लगा चिल्लाने पूरा परिवार,
        कोई बैठा रोये पास में, कोई लगा रोने जाकर बाहर,
        बेटी रोये आंसु बहाये, कोई थोड़ा पानी मंगवालो,
        बेटा बोला पिता से, दो आंसु आप भी टपकालो,
देख हालत दादी की, परपोता पानी लाये,
कभी वह इधर जाये, कभी दवाई खिलाये,
अब कुछ नही होगा बेटा, पिता यह समझाये,
हाथ जोड़ खड़ा हुआ, जब धरती पर लिटाये,
        नहला-धुलाकर तैयार कर, की चलने की तैयारी,
        धरती में लेटी दादी की, होने लगी पूजा भारी,
        आसपास की औरतें भी, घर पहुंची बहुत सारी,
        देखकर रोना आता था,    थी छटा अति न्यारी,
आसपास के लोग वहां, लगे यूं करने चर्चा,
उमर थी बड़ी सारी, सो करना होगा खर्चा,       
पंडि़त से दादी का, भरवा दो स्वर्ग पर्चा,        
बड़ा करने में भी इनके, नही है कोई हर्जा,
        बड़ों की आज्ञा पाकर, पोता सीढी बनाए,
        सोने की थी सीढी वो, जो मोक्षधाम पहंचाए,
        घी, सामग्री और खील बताशें, खरीज ली मंगवाये,
        चलते हुए राह में यह, सब दादी पर बरसायें,
सब कुछ तय होने पर, दादी को लिया उठाये,
घर से बाहर निकलते ही, लुगाई गीत सुरीले गाये,
पीछे-पीछे औरते और, आगे पुत्र-पोत्र जाये,
हंसते-रोते फिर सभी, शमशान घाट को आयें,
        खील बिखरे पुत्र राह में, पोता पैसे बरसाये,      
        हाथ पेंट दिये बाबू, राह से पैसे उठाये,
        सम्भाल कर रखना इन्हें, ना तिजौरी खाली होये,
        दूग्गी, पंजी और चवन्नी, ली सबने जेब में पाये,
सोचने पर सोच रहा था, ये कैसा था व्यवहार,
देखने में तो कटु सत्य था, पर था अलग आचार,
सुनने में तो आया था, वहां जाना होगा दिल को मार,
कहने को तो कहते थे सब, पर था ये अन्तिम संस्कार,



                                      कृष्ण कुमार ‘आर्य


बुधवार, 28 दिसंबर 2011

शब्द नही मिलते

          शब्द नही मिलते ?

एक विचार दिल में आया, लिखू मैं कुछ खाश,
सोच- विचार बैठा रहा, और करता रहा तलाश।
पहले ये लिखू या वो,  ऐसे भाव मन में आते,
थक-हार कर ‌बैठ जाता, जब शब्द नही मिल पाते।।
जीवन में हर व्यक्ति, चाहता है कुछ करना,
खुशियों के झरोखों से, पड़ता है कभी डरना।
अंधेर कोठरी की लौ में, हम स्वप्न देखा करते,
वे स्वप्न हम कैसे सुनाएं, जब शब्द नही मिलते।।
मां-बाप ने पाला हमको, छोड़ कर पीना-खाना,
बड़े होकर हमने फिर, त्याग दिया आना-जाना।
उन बुजूर्गों की बेबशी पर, चाहकर भी नही लिखते,
मैं लिखना तो चाहता हूं, पर शब्द नही मिलते।।
        प्रेम-पाश में बंद कर, सब कुछ दिखे झूठा,
        लड़के से लड़की बोले, है समाज बहुत खोटा।
        गात से मिले गात पर उनके, दिल कभी ना मिलते,      
        ऐसे प्रेम पर मैं क्या लिखूं, जब शब्द नही मिलते।।
सड़क किनारे ‌खड़ा बाल एक, बालों को यूं फाड़े,
भूख से पेट-कमर हुए एक, हर रा‌हगीर को पुकारे।
देख जनाब सब यह जाते, न हाथ मदद को बढ़ते,
कैसे कहूं दयनीय इसको, जब शब्द नही मिलते।।
बंसत में खिले फूलों से, महके हर एक क्यारी,
रंग-बिरंगे कुसुमों की, थी खुशबू अति न्यारी।
देख सूंघ कर मन हर्षाये, जब पुष्प वहां थे खिलते,
कैसे करू स्तुति इनकी, जब शब्द ही नही मिलते।।
एक शराबी बैठ अकेला, करता मद्यपान छुपके,
दूर खड़ा हो पुत्र भी, छोड़े धूएं वाले छल्लके।
ऐसे अनोखे पितृ पुजारी, मिलकर भी नही मिलते,
इस दशा पर मैं क्यू बोलू, जब शब्द नही मिलते।।
एक भिखारी एक पुजारी, मंदिर में संग आंये,
भिखारी भीख से पुजारी झूठ से, सीधों को बहकाये।
इनकी दोस्ती ऐसी निराली, मिल बैठकर थे खाते,
कृष्ण करे बड़ाई उनकी, जब शब्द उसे मिल जाते।
                               

                            कृष्ण कुमार ‘आर्य’


मैं आदमी हूँ!