मैं आदमी हूँ!
भावनाओं के समर में, मैं खड़ा अकेला हूँ,
सोच विचार थकता रहूँ, मैं ही सब झेला हूँ।
रात गुजर जाए यूँ ही, ना कुछ मैं कहूँ,
सुबह दिखूं वैसा ही, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥
गरीबी हो या अमीरी, घर से रोज निकलता हूँ,
दिहाड़ी करूँ या नौकरी, पेट बच्चों का भरता हूँ।
दिन ढ़ले घर मैं आऊँ, सब गम सह लेता हूँ,
फिर स्नेह की आस करूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥
परिवार का बोझ उठाऊँ मैं, पत्नी गले लगाता हूँ,
माँ-बाप संग बैठ अकेला, दिल की टीस सुनाता हूँ।
इष्ट-मित्रों के आने पर मैं, जिम्मेदारी निभाता हूँ,
फिर तिरस्कार पी जाता हूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ।
देख बच्चों का फूहड़पन, मनमानी उनकी सहता हूँ,
सह अनादर अपने घर में, फिर हँसने लग जाता हूँ।
पत्नी मित्र जब आए घर, घूंट जहर की भरता हूँ,
भय से न कुछ कह सकूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥
मार्गदर्शक बन पत्नी का, उसे समझाने लगता हूँ,
गैर पुरुष घर आने के, नुकसान बताने लगता हूँ।
आबरू तेरी मेरी एक समान, यह सिखाने लगता हूँ,
मन ही मन में डरता हूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥
आज आहार कैसा तुम्हारा, घोर तामसिक बनाता है,
अपने सुख की खातिर वो, हत्यारिन बन जाती है।
कभी सांप से डंसवा कर, कभी ड्रम में चिनवाती है,
‘केके’ बड़ाई करें तुम्हारी, क्योंकि तूं आदमी है॥
डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’