तीज-

         
           मधु बरसाती है हरियाली तीज की फुहारें



     भारत देश में वर्ष के प्रत्येक माह को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। यहां हर मास का अपना महत्व होता है। भारतीय संस्कृति में चैत्र माह से फाल्गुन महीना तक अनेक त्यौहार आते हैं। ये सभी त्यौहार अपने में इन्द्रधनुषी छटा को समेटे हुए होते है लेकिन इनको मनाया अलग-अलग ढ़ंगों से जाता है।
     हिन्दु संस्कृति में श्रावण मास का विशेष महत्व है। इस मास को सावन माह के नाम से भी जाना जाता है। वर्षा ऋतु होने के कारण इस मास को वर्ष का रजस्वला काल भी कहा जाता है। वर्षा के दो-तीन माह तक चलने के कारण इसको वर्ष का ऋतुकाल भी कहा जा जाता है। इस माह के दौरान बहुतायत मात्रा में वर्षा होने से धरती माता की उपजाऊ शक्ति में वृद्घि होती है। इससे बीज जल्दी अंकुरित होकर धरती के आंचल को जल्दी हरा भरा कर देते है।
     इसी माह के दौरान तीज उत्सव मनाया जाता है। हरा भरा होने के कारण इस त्यौहार को हरियाली तीज के नाम से जाना जाता है। चारों ओर हरियाली को देख कर मन पुलकित हो जाता है और झूमने व नाचने का जी चाहता है। महिलाएं इस हरित मास की हरियाली से मचल कर चारों ओर हंसी-खुशी का माहौल पैदा कर देती है। बच्चे हठखेलियां करते है, सावन के गीत गाती हुई बालाएं नाचती, खेलती और झूमती है तथा वृद्घ आकाश में काले मेघों के नृत्यों से आनन्द विभोर हो जाते हैं।
      सावन को हरा मास भी कहा जाता है। हरा रंग खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। यही खुशहाली मन को हरने वाली होती है और मन में उत्साह व हौसला भरकर जीवन में नवीन चेतना का संचार करती है। हरा का अर्थ है हरने वाला यानि मन को हरने वाला तथा इसे मन के कष्टों व दुःखों को हरने वाला भी कहा जा सकता है। हरा भगवान को भी कहते हैं क्योंकि वह व्यक्ति के सभी कष्टों को हर लेता है और उसे समृद्घशाली बनाता है। इसीलिए भगवान को हरि के नाम से जाना जाता है। अतः इस मास का हरिमास भी कहा जाता है। इस संबंध में कवि की दो पंक्तियां सही चरितार्थ होती हैं।                   
                                  हरा जो हरने को चला, हरे वो मन की पीर।
                                 हरि मास में हरने को, हरि आवे हमारे तीर॥
       तीज उत्सव सावन मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। तीज से कई दिन पहले ही लड़के, लड़कियां, महिलाएं और पुरूष इस त्यौहार की तैयारी में सराबोर हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार के पकवानों की खुशबू से घर, आंगन और बाजार महक उठते है। गांव से बाहर बणी (खेतों) में सावन के गीतों की मधुर आवाज पक्षियों की चहचाहट को अनसुना कर देती है। पेड़ों की डालियों व घरों के दरवाजों पर झूला डाल कर किशोरियां मस्ती से झूलती व झूमती नजर आती है।
      पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस त्यौहार को माता पार्वती व शिव से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि माता पार्वती ने अनेक जन्मों तक भगवान शिव की आराधना की परन्तु 108 वें जन्म पर भगवान शिव ने उनके सर्म्पण, त्याग व तप को स्वीकार कर उन्हें जन्मों की तपस्या का फल प्रदान किया। माना जाता है कि लम्बे समय अन्तराल के बाद शिव और पार्वती का मिलन श्रावण मास की तीज पर ही हुआ था। उनके मिलन की खुशी में लोग झूमने, नाचने और खुशियां मनाने लगे। इसके बाद यही झूमना लोगों के लिए झूलने का परिचायक बन गया।
       इसी कारण तीज से पहले नवविवाहिताओं को उनके मायके भेजने की प्रथा कायम हुई है। सावन मास प्रारम्भ होने से पहले ही विवाहित लड़कियों को उनके मायके लाया जाता तथा तीज के पश्चात वापिस ससुराल भेज देते है। तीज पर ससुराल पक्ष के लोग अपनी बहु के स्वागत व श्रृगांर के लिए श्रृगांरा भी लाते है, जिसको बाद में अपभ्रंशित होकर सिंधारा कहा जाने लगा है। सिंधारे में घेवर, कपड़े, चुडि़यां, मेहंदी तथा अन्य श्रृगांर का पूरा सामान भेजा जाता है।
       तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति के प्यार और उनकी लम्बी आयु पाने के लिए उपवास रखती है। यह उपवास 24 घंटे की अवधि तक रखा जाता है। इस उपवास के दौरान महिलाएं न कुछ खाती है और न ही पीती है। इस अवसर पर महिलाएं स्वर्ण आभूषणों सहित 16 श्रृगांर करती हैं तथा माता पार्वती की पूजा अर्चना करते हुए तीज की कहानी सुनती है। इसके बाद महिलाएं उपवास को भंग करती है और अपने पति कर राह देखते हुए सावन के गीतों का इस प्रकार से गान करती हैं।              
                    ‘नन्हीं-नन्हीं बुंदियां, ये मां मेरी पड़ रही री।
         ऐरी कोई लाओ पिया न बुलाए, धड़कन मौरी बढ़ रही री’॥
       तीज के त्यौहार पर नवविवाहित महिलाओं को नए वस्त्र, जेवर, चुडि़यां, मिठाइयां तथा अन्य श्रृगांर का सामान भेंट किया जाता है। यह सामान दुल्हन के माता-पिता द्वारा भेजा जाता है। इसको ‘बाया’ कहा जाता है लेकिन दुल्हन अपनी सास कोे प्रसन्न रखने व पति के लिए उनका आभार व्यक्त करने के लिए सास को भेंट देती है, जिसमें पैसे, मिठाई तथा अन्य सामान होता है, जिसे ‘बाणा’ कहते हैं।
       तीज की मस्ती में झूमने के लिए महिलाएं फिर झूला झूलती हैं और सावन के मधुर गीतों का गान करती हैं। सावन में वट वृक्ष की शाखाओं पर झूलने का विशेष महत्व बताया जाता है। इसकी लम्बी-चौडी शाखाओं से छनकर आती फुंहारे युवतियों में नवचेतना भर देती है। तीज उत्सव के दौरान महिलाएं वृताकार घेरे में बैठकर तेल का दीपक जलाती हुई पार्वती माता का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। नाचती, गाती व मस्ती से सराबोर महिलाएं खूशी से ‘आज उतर कर सावन आया, दिवाना मुझे बनाने को’ जैसे गीतों से भाव विभोर हो जाती है।
       वैदिक मान्यताओं के अनुसार भारतीय संस्कृति में सभी त्यौहारों को मौसम और महीनों के महत्व के आधार पर होता है। तीज का त्यौहार भी इसी के दृष्टिगत मनाया जाता है। हमारी संस्कृति में त्यौहारों का संबध जीवन से होता है। जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सजाने के लिए ये त्यौहार विभिन्न तरीकों से मनाए जाते है।
        इस संबंध में वैदिक विद्वान स्वामी विदेह योगी का कहना है कि सावन मास के शुक्ल पक्ष में मनाये जाने वाले तीज के त्यौहार का संबंध वर्षा ऋतु से है। इससे पहले झुलसाने वाली गर्मी से परेशान प्रत्येक जीव आसमान की ओर निहारता है और भगवान से इस कष्टदायी गर्मी से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना करता है। अपनी व्यवस्था के अनुसार सावन माह के दौरान बादल उमड़-उमड़ कर चारों ओर बरस जाते हैं। बादलों से घिरा आसमान को देख प्रकृति का कण-कण पुलकित हो उठता है।
       सावन में आसमान से पानी की फुंहार बरसती है। ये फुंहार पृथ्वी माता की तपिश को शांत कर उसकी उपजाऊ शक्ति में वर्धन करती है। आसमान से गिरने वाली इन फुंहारों के माध्यम से पृथ्वी माता पर मधु की वर्षा होती है, जिससे पृथ्वी अमृतरस दायिनी बन जाती है। इसलिए इस त्यौहार को मधुर्स्वा के नाम से भी जाना जाता है यानि इसे आसमान से मधु बरसाने वाला त्यौहार भी कहा जाता है।
       यह त्यौहार तीज के दिन मनाया जाता है। इसका संबंध चन्द्रमा से भी है क्योंकि किसी भी तीज के दिन ही चंद्रमा के ठीक प्रकार से दर्शन होते है। इसके बाद चांद के आकार व चंद्रकलाओं में वृद्घि होती जाती है। आसमान से पड़ने वाली फुंहारें जब चांद की चांदनी को चीरती हुई पृथ्वी माता के आंचल को भिगोती है तो वह सभी फल, फूल और औषधियों में रस भर देती है। वहीं चन्द्रमा की किरणें वर्षा की फुंहारों का भेदन करती हुई जब प्राणीयों के शरीरों तथा नेत्रों पर पड़ती है तो इससे शारीरिक व्याधियां नष्ट होकर आरोग्यता प्राप्त होती हैं।
       तीज का त्यौहार भारत के विभिन्न प्रांतों के साथ-साथ नेपाल में भी मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान सहित अन्य प्रान्तों में तीज को उनके तरीकों व रीति-रिवाजों से मनाया जाता है। तीज को गुजरात में गरबा, राजस्थान में सावन त्यौहार तथा पंजाब में पींग के नाम से मनाया जाता है। नेपाल के लोग इस त्यौहार को तीन दिनों तक बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस प्रकार यह त्यौहार न केवल हमारी सांस्कृतिक विरासत के तारों को जोड़ता है बल्कि भौगोलिक व सामाजिक ताने-बाने को एक सूत्र में पिरौने का कार्य करता है।
                                                                        
                                                                       कृष्ण कुमार ‘आर्य’

शुद्घ आहार

               सम्पूर्ण आरोग्यता का आधार-शुद्घ आहार
          आज भागदौड़ की जिन्दगी के मायने की बदल गए हैं। व्यक्ति कष्टदायक वस्तुओं में सुख तलाश कर रहा है, जबकि सुखदायक आचरण को कष्टकारक समझता है। इसलिए मनुष्य को न खाने की फुर्सत है और न ही जीवन में कुछ अच्छा करने की लालसा है! यदि मनुष्य की दिनचर्या पर ध्यान डाला जाए तो उससे यह नही लगता कि वह निरोग रह सकता है। आज व्यक्ति का लाईफ स्टाईल तनाव से ग्रसित मिलता है। बिस्तर से उठते ही उसे तैयार होने की टैंशन, बच्चों को स्कूल छोड़ने की टैंशन, काम पर जाने की टैंशन, अॅफिस या दुकान में जाकर काम होने या न होने की टैंशन, घर वापिसी पर राशन की टैंशन, बाजार जाने की टैंशन, सांय को बीवी बिमार मिली तो उसके ईलाज की टैंशन वैगरा, वैगरा...इत्यादि। मनुष्य के जीवन में सुबह से सांय तक टैंशन ही टैंशन रह गई है।
            टैंशन की इन घडि़यों में व्यक्ति अपने खानपान अर्थात आहार पर ध्यान नही दे पाता। अनेक बार हम अॅफिस में बैठे हुए, गाड़ी में चलते हुए, काम में व्यस्त रहते हुए तथा अन्य आवश्यक कार्यों की निवृती के दौरान भी कुछ न कुछ खाकर अपनी क्षुधा मिटाने का प्रयास करते है। ऐसे समय पर व्यक्ति कोई पोष्टिक या स्वास्थ्यवर्धक खाना नही खा पाता बल्कि वह अपनी अमूल्य भूख को शांत करने के लिए चिप्स, बर्गर, पीजा, ईडली, ढोसा, चिकन, अंडा, चाय, समोसा या कोल्ड़ ड्रिंक इत्यादि जंक फूड का ही सेवन करता हैं। इनके सेवन से व्यक्ति कितना स्वस्थ रह सकता है यह तो हम सब जानते है।
          आहार व्यक्ति के जीवन का आधार स्तम्भ होता है। शुद्घ और रोगनाशक आहार द्वारा हम अपने शरीर से लम्बे समय तक कार्य ले सकते हैं। शुद्घ आहार जहां व्यक्ति को संपूर्ण स्वस्थ्य प्रदान करता है, वहीं दूषित खानपान व्यक्ति की प्रकृति को बिगाड़ देता है। यह भी कहा जा सकता हैं कि भगवान ने सभी प्राणियों का भोजन उनकी प्रकृति के आधार पर ही तय किया है। प्रकृति ने मांसाहारी जीव शेर, चीता व भेडि़या जैसे प्राणियों का खानपान मांस तय किया है, जबकि मनुष्य, गाय, भैंस, भेड़, बकरी जैसे जीव, प्रकृति से ही शाकाहारी होते हैं। वे प्राणी जो मांसाहारी व शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन का भक्षण करते हैं, ऐसे सर्वाहारी जीवों की श्रेणी में कुत्ता, बिल्ली इत्यादि शामिल हैं। अब तो स्वयं व्यक्ति भी इस श्रेणी में कदम रख चुका है।
          खानपान पर ये सामाजिक अवधारणाएं तो सुनी ही होगी कि- ‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन, जैसा पीओगे पानी, वैसी होगी वाणी।’ इससे पता चलता ही है कि हमारे खानपान अर्थात आहार का सीधा सम्बन्ध हमारे अन्तःकरण से होता है। आहार का प्रभाव मन पर, मन से बुद्घि, बुद्घि से विचार, विचारों से कर्म तथा कर्मों से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास या विनाश होता है। अतः मनुष्य के विकास या विनाश को उसके द्वारा किये जाने वाला आहार से ही आंका जा सकता है।
        हमारा शरीर, आहार एवं विचारों का दर्पण होता है। महर्षि चरक ने अपनी पुस्तक चरक संहिता में आरोग्यता के तीन मूलक बताए है। ‘त्रयः उपष्टम्भा आहार-निद्रा-ब्रह्मचर्यमिति।’                              व्यक्ति का स्वास्थ्य ‘आहार, निद्रा, और ब्रह्मचर्य’ तीन अंगों पर निर्भर करता है। ये तीनों अंग व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने में रामबाण का कार्य करते हैं। शुद्घ, पवित्र, स्वास्थ्यवर्धक व रोगनाशक खानपान को ‘आहार’ की श्रेणी में गिना जाता है। स्वस्थ रहने का दूसरा साधन ‘निद्रा’ है, गहरी नींद व्यक्ति को स्वस्थ रखने में सहायक होती है। ‘ब्रह्मचर्य’ में वीर्य की रक्षा और ब्रह्म विद्या का अध्ययन करना समाहित होता है।
            महर्षि दयानन्द ने अपनी जगत प्रसिद्घ पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में मनुष्य के स्वस्थ रहने, वैचारिक उत्तमता और आत्मिक उन्नति के लिए भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों को दो श्रेणियों में बांटा है। ये हैं- धर्मशास्त्रोक्त तथा वैद्यकशास्त्रोक्त। धार्मिक ग्रर्न्थों एवं आप्त पुरूषों द्वारा निर्देशित आहार को ‘धर्मशास्त्रोक्त’ आहार माना गया है। इसमें मलिन, मल-मूत्रादि व गंदगी आदि के संसर्ग से उत्पन्न अंडा, मांस, शाक, फल, फूल, सब्जियां व औषध इत्यादि पदार्थों का सेवन करना निषिद्घ माना गया है। ऐसे पदार्थ व्यक्ति की बुद्घि का नाश करने वाले होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘आहार शुद्घौ, सत्व शुद्घि, सत्व शुद्घौ, ध्रूवास्मृति।’ अर्थात आहार के शुद्घ होने से बुद्घि का शौधन होता है और बुद्घि के शुद्घ होने से हमारी स्मरण शक्ति चीर स्थाई बन सकती है।
         वैद्यक शास्त्रों में बताए गए खानपान और शरीर की प्रकृति के अनुकूल आहार को ‘वैद्यकशास्त्रोक्त’ आहार बताया गया है। वैद्यक शास्त्रों में भी तीन बातों का ध्यान रखने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसमें ‘ऋतभुक, मितभुक, हितभुक’ के सिद्घांत पर खानपान करना लाभकारी माना गया है। वैद्यकशास्त्रों में मौसम व ऋतु के अनुसार आहार का सेवन करना ‘ऋतभुक’ कहलाता है। भूख से कम खाना ‘मितभुक’ तथा शरीर, बुद्घि और आत्मा की उन्नति के लिए हितकारी भोजन करना ‘हितभुक’ आहार कहलाता हैं।
           वैसे देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार ही भक्ष्याभक्ष्य पदार्थो का सेवन करता है। प्रकृति उसके शरीर व बुद्घि का सम्मिलन होता है। प्रकृति = शारीरिक बनावट + बौद्घिक स्तर। व्यक्ति को प्रकृति ही आहार का चयन के लिए प्रेरित करती है और उसे विभिन्न भक्ष्याभक्ष्य प्रदार्थों की ओर आकर्षित करती है। व्यक्ति के तीन शारीरिक दोष भी इस आर्कषण का कारण बनते हैं। ‘वात, पित्त व कफ’ नामक ये दोष शरीर में आरोग्यता के परिचायक है। इन दोषों के समावस्था में रहने पर शरीर निरोग रहता है, जबकि इनकी विषमता व्यक्ति को बिमारी का शिकार बना देती है। शरीर में वायु विकार से उत्पन्न दोष को ‘वात दोष’ कहते है, जबकि जठराग्नि में ऊष्णता व अग्नि तत्च की वृद्घि होना ‘पित्त दोष’ को उत्पन्न करता है तथा खांसी, नजला और जुकाम की बढोतरी ‘कफ दोष’ कहलाता है। इन तीनों दोषों को समावस्था में लाने वाला आहार ग्रहण करना ही स्वस्थ रहने का मूलमन्त्र माना गया है।
          शरीर के तीन दोषों की तरह ही, बुद्घि में तीन गुण माने गए हैं। सत्व, रजो व तमो गुणों से विभूषित बुद्घि को अपने सद्गुणों के विकास के लिए सात्विक आहार का पान और दूषित खानपान का त्याग करना होता है। शुद्घ विचारों, वेदादि ज्ञान, सहयोगी मानसिकता और पवित्र आचारण से बुद्घि में ‘सत्व गुण’ प्रभावी होता है, जबकि सत्य, धर्म और सदाचार की उपेक्षा करना, ईष्या तथा दूसरों को नुकसान पहुंचाने के विचार ‘तमो गुण’ के द्योतक है। कर्तव्य, जोश, रक्षा व नेतृत्व की भावना ‘रजो गुणी’ कहलाती हैं। इनमें सत्व गुण को सर्वोपरि तथ तमो गुण को निकृष्ट माना गया है।
              प्राणियों के प्रकृति की विषमता पर महर्षि दयानन्द ने भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों के सेवन का उपदेश किया है। उन्होंने खाने योग्य पदार्थों को ‘भक्ष्य व अभक्ष्य’ दो श्रेणियों में विभिक्त किया हैं। अहिंसा, सत्य, धर्मादि कर्मों से प्राप्त भोजन ‘भक्ष्य’ कहलाता है। कन्ध, मूल, फल, फूल, औषधियां युक्त पदार्थ ‘भक्ष्य पदार्थ’ होते है। ऐसे खाद्य पदार्थ जो स्वास्थ्यवर्धक, रोगनाशक, बुद्घिवर्धक तथा बल, पराक्रम व आयु में बढोतरी करने वाले हो, उन्हें ‘भक्ष्य’ भोजन कहते है। इनमें गोदूध, घी, दही, लस्सी व मिष्ठादि पदार्थ शामिल हैं। ये सत्व गुण को बढाने वाले होते हैं।
         जो पदार्थ चोरी, हिंसा, विश्वासघात, छल, कपट इत्यादि से प्राप्त किए जाते हैं उन्हें ‘अभक्ष्य’ पदार्थ कहा गया है। विपरित प्रकृति व शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों को भी अभक्ष्य माना गया है। अंडा, मांस, मदिरा, जंक फूड इत्यादि भी अभक्ष्य पदार्थो की श्रेणी में आते हैं। ये तमो गुण वर्धक होते हैं।
उच्छिष्ट (जूठन) का निषेध- शास्त्रों में उच्छिष्ट खाने का निषेध किया है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि आपसी जूठन खाने से स्नेह बढता है, जिसको ऋषियों द्वारा नकारा गया है। इससे प्यार बढ़ने की बजाय रोग बढने की बात कही गई है। हाथ, मुहं इत्यादि से निकली वस्तु ‘उच्छिष्ट’ कहलाती है, जोकि सामने वाले की प्रकृति पर विपरित प्रभाव डालती है। इससे बिमारी बढने की ज्यादा सम्भावना होती है। मल-मूत्र त्याग के बाद बिना हाथ धोए खाना पकाना, खाना, जूठन खाने में मिलाना तथा पसीना आटे में टपकना इत्यादि भी इसी श्रेणी में गिने जाते हैं।
मांसाहार त्याज्य- भगवान ने व्यक्ति को स्वभाव से ही शाकाहारी बनाया है। उसका चलना, उठना, बैठना, शारीरिक बनावट, दांतों का आकार तथा जीभ से खाने व पीने के तरीके सब कुछ शाकाहारी प्राणियों की भांति ही है। इस लिए व्यक्ति की प्रकृति शाकाहारी ही है। अतः मनुष्य के लिए अंडा, मांस, मद्य, ध्रूमपान व नशीले पदार्थों का सेवन शास्त्रों में त्याज्य बताया है। इनसे तमो गुण में वृद्घि होती है। अब तो चिकित्सक भी मांसाहार को हानिकारक मानते हैं।
हानिकारक जंक फूड- पराठा, बर्गर, पीजा, इडली, ढोसा, समोसा, पकौडा, आईसक्रीम, कोल्डड्रिंक, तैलीय तथा मसालेदार पदार्थों को जंक फूड माना जाता है। वैद्यक शास्त्रों में इन्हें पित वर्धक बताया गया है। इनके अतिरिक्त गले, सडे, बिगडे़, दूर्गन्धयुक्त तथा अच्छे से न बने खाद्य पदार्थों का सेवन भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना है।
इनका रखें ध्यान- भूख होने पर ही खाना खाएं, बिना चबाए या जल्दी-जल्दी नही खाना चाहिए, भूख से अधिक या बार-बार न खाना नुकसानदायक, प्रकृति के प्रतिकूल आहार न करना तथा उत्तेजना, भय, शोक, घृणा, क्रोध, चिंता या तनाव में भोजन नही करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक सिद्घ होता है।
हमारे आहार का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे बौद्घिक गुणों पर पड़ता है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वयं, परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति बदल जाता है। जब आहार व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है तो क्यों ना हमें ऐसे आहार का त्याग कर देना चाहिए, जो कि व्यक्ति को अपराधी, कामचोर, असभ्य तथा समाज व राष्ट्र का विरोधी बनाने वाला होता है। ऐसा करने से हम शारीरिक, मानसिक, बौद्घिक व आत्मिक रूप से स्वस्थ होकर सम्पूर्ण आरोग्यता को प्राप्त करने में सफल होंगे।   
                                                              कृष्ण कुमार ‘आर्य’

तीन शक्तियां

                            किसे करें ग्रहण?

                                    त्रि शक्तिं ओउम् 
          जीवों में शक्ति शब्द का विशेष स्थाशन होता है। शक्ति ही जीवन का आधार है। पशु, पक्षी, पेड़, पौधे या जानवर भी हमेशा शक्ति की ही पूजा करते है और शक्तिशाली जीवों के सामने नतमस्तक हो जाते है। परन्तु मानव जीवन तो स्वयं एक शक्ति का प्रतिक है। सभी प्राणी मानव से भयभीत रहते हैं और सभी जीव मनुष्य जीवन प्राप्त कर उस जैसा बनना चाहते है।
         मानव जीवन सभी योनियों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह कर्म तथा भोग योनि है। शेष सभी भोग योनियां होती है। दूसरी योनियों में जीव कोई भी कर्म करने में स्वतन्त्र नही होता है, बल्कि वह अपने प्रारब्ध के आधार पर केवल अपने कर्मों के फलों को भोग सकती है। लेकिन मानव जीवन ऐसा एकल जीवन है, जिसमें जीव अपने पिछले जन्मों के कर्मों को भोगने के साथ-साथ इस जन्म में शुभ या अशुभ कर्म करने में भी स्वतन्त्र होता है।
        प्राणी द्वारा किए जाने वाले शुभ या अशुभ कर्म उसकी ग्राहण शक्ति का परिणाम भी होते हैं। वायुमंडल में उठने वाली किरणें व्यक्ति के कर्मों पर प्रभाव डालती हैं। ब्रह्मांड में तीन प्रकार की ऊर्जाएं यानि शक्तियां विद्यमान है। यही शक्तियां मनुष्य के शारीरिक तन्त्रर में भी होती है। कहते है कि ‘पिंडे सो ब्रह्मांडे’ यानि जो भी ब्रह्मांड है वही पिंड अर्थात शरीर में भी विद्यमान होता है। जीवात्मा की प्रवृति जैसी होती है वह अपनी बुद्घि से वैसी ही किरणों का ग्रहण कर लेती है और वैसा ही कर्म करने लग जाती है। इसके फलस्वरूप ही जीवात्मा का प्रारब्ध बनता है।
        ब्रह्मांड़ में हमेशा सकारात्मक, नकारात्मक और उदासीन तीन प्रकार की ऊर्जाएं अर्थात किरणें होती है। इन्हें त्री शक्तियां भी कहा गया है। इन्हीं किरणों के ग्रहण करने से व्यक्ति की सोच व विचार परिवर्तित होते हैं। व्यक्ति अपनी बौद्घिक क्षमता के आधार पर ही ब्रह्मांड से ऊर्जा ग्रहण करता है और वह जैसा सोचता है उसे वैसा ही परिणाम मिलना शुरू हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति या प्राणी के विषय में नकारात्मक विचार रखना स्वयं के लिए हानिकारक होता है। नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सामने वाले का ऋणि हो जाता है, जबकि सकारात्मक विचारों से सामने वाला ‌ऋणि हो जाता है। यही सोच अर्थात विचार व्यक्ति का प्रारब्ध बनाने वाले होते है।
सकारात्मक - ब्रह्मांड में सकारात्मक (Positive Energy) प्रकृति की ऊर्जा होती है। इसके ग्रहण करने से व्यक्ति सही दिशा में अच्छा ही सोचता है। ‌मुसिबतों में भी सकारात्मक सोच रखने से परिणाम अच्छे मिलते है।
नकारात्मक – नकारात्मक (Negative Energy) सोच व्यक्ति के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है, जिससे वह उसी प्रकार के कर्म करने लगता है और परिणामस्वरूप व्यक्ति नकारा बन जाता है।
उदासीन – उदासीन (Neutral Energy) एक ऐसी ऊर्जा है, जिसमें व्यक्ति कर्मों के राग-द्वेश से दूर हो जाता है यानि तटस्थ हो जाता है। वह किचड़ में कमल की भांति हमेशा समाज की गंदगियों से ऊपर व अलग रहता है। यह योगियों की जीवनशैली में शामिल होता है।
         अतः व्यक्ति की सोच ही उसके सभी कर्म-फलों का कारण बनती है। एक कहावत है कि ‘If you think positive than the result will also be positive’ अर्थात ‘सकारात्मक सोच का परिणाम भी सकारात्मक ही होगा’। मनुष्य को शहद की मक्खी बनना चाहिए, जो कि फूलों से शहद ही इक्कठा करती है। गंदगी की मक्खी नही बनाना चाहिए जो अच्छे व साफ-सुथरे पदार्थों में भी गंदगी का ही चयन करती है। ऐसा करने से समाज में भी सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार होगा और आपसी भावनात्मक रिश्तों का निर्माण होगा, जोकि समाज को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्घ होगा।

                                                            कृष्ण कुमार ‘आर्य’

ग्लोबलवार्मिंग

  एक खतरा 
                                                            
         प्रकृति में प्रत्येक जीव एवं वस्तु उपयोगी होती है। ये सभी एक दूसरे पर निर्भर रहती है। वनस्पति जगत, पशु जगत और प्राकृतिक सम्पदाएं आपस में सहयोगी है। प्रकृति का हर एक क्रियाकलाप एक व्यवस्था में बंधा हुआ दिखाई देता है। सूर्य तथा चन्द्रमा का समय पर उदय व अस्त होना एक नियमानुसार है। पेड़-पौधे समय पर फल व फूल विसर्जित करते हैं। मनुष्य इनका प्रयोग अपने आहार के लिए करता है। सुअर, मुर्गें, चील, कव्वे तथा अन्य जीव मानव के खानपान से बनने वाले अपशिष्ट पदार्थों का भक्षण कर अपने जीवन को चलाते हैं। मानव शरीर से उत्सर्जित होने वाली कार्बनडाईआक्साईड जैसी हानिकारक गैसों को पेड़-पौधे अपने भोजन के रूप में प्रयोग कर पर्यावरण का शोधन करते हैं। इससे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है।
      आज कल मानवमात्र द्वारा किए गए क्रिया-कलापों से वायुमंडलीय ढ़ाचा बिगड़ रहा है। गाड़ियों का धुआं, जीवाश्मों का दहन, कारखानों व फैक्ट्रियों का कचरा, पेडों की कटाई, जीवों द्वारा प्रतिक्षण लिए जा रहे श्वास-प्रश्वास तथा त्यागे जा रहे अपशिष्ट पदार्थों की दुर्गन्ध से वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड़ गैस की मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड़ गैस के परिणामस्वरूप वायुमंडल का तापमान में हरपल वृद्घि हो रही है। इसी वायुमंडलीय ताप की बढोतरी को ग्लोबलवार्मिंग कहा जाता है।
         पृथ्वी के चारों ओर करीब 40 किलोमीटर की ऊंचाई तक गैस का एक आवरण होता है, जिसे वायुमंडल कहते है। इसमें नाईट्रोजन, आक्सीजन, कार्बनडाईआक्साईड, कार्बनमोनोआक्साईड, नाईट्रोजनडाईआक्साईड, धूलीकण तथा जलकण सहित अनेक गैसें पाई जाती है। वायुमंडल में आक्सीजन 21 प्रतिशत, नाईट्रोजन 78 प्रतिशत तथा शेष अन्य गैसें 1 प्रतिशत होती है। इसमें कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा 0.033 फीसदी होती है। परन्तु उक्त कारणों से वायुमंडल में प्रत्येक क्षण कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा बढ़ रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार गत 100 वर्षों में करीब 36 हजार करोड़ टन कार्बनडाईआक्साईड गैस जीवाश्म ईन्धनों के दहन, कृषि एवं अन्य कार्यों से उत्पन्न हुई है। इसके परिणामस्वरूप वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड गैस मी मात्रा में करीब 13 फीसदी बढोतरी हुई है।
          पृथ्वी की सतह के चारों ओर लगभग 16 से 23 किलोमीटर की ऊंचाई पर एक रक्षात्मक गैस का आवरण होता है, जिसे ओजोन (o3) परत कहते है। ओजोन की यह परत पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह परत सूर्य द्वारा उत्सर्जित हानिकारक पराबैंगनी (ultra violet) किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी तक नही पहुंचने देती। ये किरणें चरम रोगों को बढ़ावा देती है। ओजोन परत से प्राणीमात्र सूर्य की हानिकारक किरणों के कुप्रभाव से बचा रहता है। सूर्य से निकलने वाले प्रकाश का एक भाग वायुमंडल को गर्म करता है, जिसे अवरक्त प्रकाश (infra red) कहते है। सामान्य परिस्थितियों में यह प्रकाश पृथ्वी से टकराकर परावर्तित हो जाता है परन्तु पर्यावरण में बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा इसे वापिस न भेज कर सोख लेती है। इसके कारण वायुमंडल गर्म हो जाता है, जिसको ग्रीन हाऊस प्रभाव कहते है। यह वायुमंडल का तापमान बढाने का कारण बनता है।
          पहले बुजुर्ग लोग सूर्य, चांद व तारों की परिस्थितियों से मौसम बदलने का अनुमान लगा लेते थे, जोकि आज सम्भव नही लगता है। आज बढ़ते ‘ग्रीन हाऊस प्रभाव’ के कारण वस्तुस्थिती बदल चुकी है। हरे पौधे व महासागर भी बढ़ती हुई कार्बनडाईआक्साईड गैस का पूर्ण उपयोग कर वायुमंडल को संतुलित नही कर पा रहे। हरे पौधे जहां कार्बनडाईआक्साईड गैस को लेकर इसके बदले ‘प्राणवायु आक्सीजन’ छोड़ते हैं वहीं महासागर भी कार्बनडाईआक्साईड गैस को कार्बोनेटों में बदल देते हैं। इसके बावजूद भी कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा में 0.04 प्रतिशत वार्षिक वृद्घि दर्ज की जा रही है। इसके चलते गत करीब 40 वर्षों के दौरान वायुमंडलीय ताप में करीब 1.5 डिग्री सैल्सियस से 4.8 डिग्री सैल्सियस तक की वृद्घि दर्ज की गई है।
           प्राचीन काल में जीवाश्म इन्धन की अपेक्षा सूर्य को ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत के तौर पर प्रयोग किया जाता था। आजकल जीवाश्म इन्धनों का परिवहन से 42 प्रतिशत, औद्योगिक क्रिया क्लापों से 14 प्रतिशत, ईन्धन के दहन से 21 प्रतिशत, जंगलों की आग से 8 प्रतिशत, अपशिष्ट पदार्थों से 5 प्रतिशत तथा अन्य साधनों से 10 प्रतिशत प्रदूषण फैल रहा है। इसके परिणामस्वरूप मौसम के बदलते मिजात के कारण वर्षा की अनिश्तिता तथा ग्लेशियरों का पिघलना लगातार बढ़ रहा है। एक रिर्पोट के आधार पर हिमालय के गढवाल क्षेत्र के लिए ढोकरियनी बारनाक ग्लेशियर 66 फुट तथा गंगोत्री हिमखंड 98 फुट की दर से हर वर्ष पिघल रहे है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के गिरिराज में 539 फुट, गंगोत्री में 175.2 फुट, पिंडार में 283.5 फुट तथा असम के पहाडों के ग्लेशियर 167 फुट प्रतिवर्ष की गति से पिघल रहे हैं।

          ग्रीन हाऊस प्रभाव ही ग्लोबलवार्मिंग का जनक है। इसी के कारण ही पर्यावरण आज मानवता के लिए खतरा बना हुआ है। हिमालय में पांच प्रमुख ग्लेशियर है, जो भारतीय नदियों में जल बन कर बहते हैं। इनमें सियाचिन ग्लेशियर सबसे बड़ा है। यह ग्लेशियर 72 किलोमीटर लम्बा और करीब 2 किलोमीटर चौड़ाई में फैला हुआ है। बालटोरो, बीयाफो, नूब्रा तथा हिसपुर ग्लेशियर भी 60 से 62 किलोमीटर की लम्बाई में फैले हुए है। इसी प्रकार उत्तरांचल में 6-7 ग्लेशियर है, जोकि देश की नदियों में पानी देते है।
          कनाड़ा के पर्यावरण मंत्रालय ‘एन्वार्यमैंट कनाड़ा’ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 45 वर्षों के दौरान कनाड़ा के पश्चिमी आर्कटिक के तापमान में 1.5 डिग्री सैल्सियस से अधिक की वृद्घि हुई है, जिसके कारण वहां विद्यमान बर्फ सिकुड़ रही है तथा समुद्रतल छोटे हो रहे है। वैज्ञानिक आंडाकि का मानना है कि बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा के कारण वायुमंडलीय सुरक्षा कवच ‘ओजोन परत’ का छिद्र बड़ा हो रहा है, फलतः सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों में बढोतरी हुई है।
         यूएन इंटरनैश्नल पैनल ऑन क्लाइमेट चैंज (IPPC) के चेयरमैन डॉ. आर के पचौरी ने कहा कि यदि ग्लोबलवार्मिंग इसी प्रकार बढ़ती गई तो वर्ष 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर पूरी तरह पिघल जाएंगे। हिमालय पर्वत बर्फ से खाली हो जाएगा और ये ग्लेशियर नदियों के किनारों को तोडते हुए समुद्र की ओर बढ़ने लगेंगे। नदियों का पानी मैदानी भागों को निगल जाएगा और समुद्र के किनारे छोटे होने लगेंगे। इससे मुम्बई, गोवा तथा मालदीव जैसे क्षेत्रों को भी अपना अस्तित्व बचाना मुस्किल होगा।
          बढ़ते प्रदूषण को कम करने के लिए 1997 में जापान के क्योटा में ग्लोबलवार्मिंग पर एक संधि हुई थी, जिसमें वर्ष 2012 तक सभी देशों को कार्बनडाईआक्साईड, मिथेन जैसी जहरीली गैसों को 7 प्रतिशत तक कम करने पर सहमति हुई, परन्तु भारत एक ऐसा महान देश है, जहं धार्मिक और राजनैतिक मंशाओं की पूर्ति के लिए जमकर प्रदूषण फैलाया जाता है। देश में प्रतिवर्ष गणेश की लाखों मूर्तियां समुद्र में बहाई जाती है, जिससे समुद्र में 8 प्रतिशत हैवी मैटल बढ़ जाता है। इससे समुद्री जीवों के जिन्दा रहने पर प्रश्न चिह्न लगता है। इतना ही नही लोगों द्वारा अपने नीजि स्वार्थों की पूर्ति के लिए अंधाधूंध पेडों की कटाई की जाती है।
         वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं व आम लोगों की भी जिम्मेदारी होनी चाहिए। हमें अधिक से अधिक पेड लगाने चाहिए। आजकल तो देश व विदेशों में भी यज्ञ को भी प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का प्रमुख साधन माना जाता है। यज्ञ में सुगंधित पदार्थों के दहन से हानिकारक परमाणु सुक्ष्म रूप में बदल जाते हैं। इससे यज्ञ के आसपास के क्षेत्रों को प्रदुषण के किटाणुओं से मुक्ति मिलती है और कार्बनडाईआक्साईड गैस के परमाणु उपयोगी तत्वों में विभिक्त हो जाते हैं। अतः पर्यावरण में रहने वाले को इसकी सुद लेनी होगी अन्यथा वह दिन दूर नही होगा जब हमें स्वयं पर ही पछताना पड़ेगा।
                                                         कृष्ण कुमार ‘आर्य’






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