एक दिन हमने देखा, डोगा को करते योगा,
पर हर दिन सबने देखा, मानव को करते भोगा।
हमने था एक जगह पढ़ा, भोगा है एक रोगा,
भोगो की ओर भागे जोग, भोग नही जाए भोगा,
भोग रहेगा वही पर, मानव हो जाए डोगा,
तभी तो यह कहा है—‘भोगो न भोक्ता, व्यमेव भुक्ता’।
दोपहरी में क्या देखा तुमने, साधु को करते तपता,
तपने से भी नही तपा वो, पर हो गया सुखा पत्ता।
आत्मा के दोषों से मानव, नही कभी वह ऐसे छुटता,
तभी कहा शास्त्रों ने—‘तपो न तप्ता, व्यमेव तप्ता’।
पढा यही था हमने भी, होती बलवति तृष्णा,
तृष्णा है बड़ी बावरी, मन छलनी कर दे कृष्णा।
कभी न पूरी होत यह, करवाती है बड़ी घीर्णा,
यही कहा विद्वानों ने—‘तृष्णा न जीर्णा, व्यमेव जीर्णा’।
बीत रहा पल-पल मानव, काल नही बित पाता,
सुबह उठे जब शाम को आये, घर वहीं है पाता।
30 से बढ़कर 50 के हुए, हर साल है बढता जाता,
तभी तो कहा है मानुषों ने—‘कालो न याता, व्यमेव याता’।
सुख चैन सब कुछ छीना, हमें क्या करना होगा,
तो आइये सब मिलकर करें—‘योगा लाइक डोगा’।
कृष्ण के आर्य
--- क्या आप भी कर सकते हो इतना सुन्दर योगा---