सोच है!
पर ना मैं सोच करना चाहता हूं,
सोच पर मैं यह सोचता ही रहता हूं,
जान नही पाया हूं,
किन मजबूरियों को सोच कहता हूं,
फिर भी सोचता ही रहता हूं।
क्या है सोच,
किसने बनाया इसको,
क्यू बनाया, यह पता नही
चल पाया,
पर आत्मा के घर को खोखला
करती है,
मन के भावों में अभाव
भरते है,
फिर भी हम सोच करते है।
क्यू है सोच,
चिंता का दूसरा नाम है सोच,
विचारों की ना लेन-देन है सोच,
नकारात्मकता का परिणाम है सोच,
और करती बर्बादी का काम है सोच,
फिर भी हम करते हैं सोच।
कैसी है सोच,
चिता पर ले जाया करती
है,
पर ना किसी से डरती है,
दुविधा में मन भरती है,
करने वालों के संग मरती
है,
पर रंगहीन जीवन करती
है।
होती है सोच,
बचाव के असफल प्रयास हो जब,
भूख मिटाने की छटपटाहट हो तब,
लक्ष्य प्राप्ति की हड़बड़ाहट हो
जब,
अवसाद का कारण है यह सब,
ऐसे तब तक होती है सोच।
मिटती है सोच,
विचारों के आदान-प्रदान
से,
सकारात्मकता की शान से,
अपने व दुश्मनों की पहचान
से,
बुद्घिमान और वृद्धों
की आन से,
कृष्ण मिटती
है सोच ऐसा करन से।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’