तुलना
एक दिन मैं बैठ अकेला,
चाहता था पुस्तक पढना,
चलता-चलता मन चला,
तो लगा करने किन्ही, दो में तुलना।
पहले तुलना की मैने,
तराजू के दो पलडों की,
इनकी भी क्या मजबूरी है,
एक ही रस्सी से बंधना,
फिर भी मैं कर रहा क्यूं, दोनों की तुलना।
पलडों का हुआ निर्माण समान,
एक बड़ा न दूसरा दयावान,
दोनों करते एक दूसरे का मान,
मजबूरी है उनकी अलग रहना,
यूं ही मैं करने लगा उन, दोनों की तुलना।
एक मूल संग रहते दोनों,
स्वभाव है उनका दूरी पर रहना,
एक की चाहत रहती है लेना,
दूसरा चाहता है हमेशा कुछ देना,
इसलिए मैं कर रहा हूं इन, दोनों की तुलना।
सरल निगाहें देख रही,
तुला तो है एक ही,
किसे बताऊ अच्छा,
यह समझ मैं पाया ना,
हां फिर क्यूं मैंने चाहा करना, दोनों की तुलना।
दो हाथ दिये हम सबको,
इनका प्रयोग तुम ऐसे करना,
एक को लेने की ना पड़े जरूरत,
दूसरे की चाह रहे कुछ देना,
तभी तो ‘केके’ कर रहा है इन, दोनों में तुलना।
डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’
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