योगेश्वर श्रीकृष्ण



 सम्पूर्ण कलाओं के स्वामी थे- भगवान श्रीकृष्ण

        देश में महापुरूषों की कमी नही रही है। अनेक महापुरूषों ने देश में अपने-अपने तरीके से समाज सुधार व मानव कल्याण के कार्य किए हैं। जिन्होंने अपने क्रियाकलापों से समाज की धारा को ही बदलने का कार्य किया है उन्हें अवतार कहा जाने लगा। वैदिक वांगम्य में उन्हें आप्त पुरूष के नाम से जाना जाता है।
                       
        योगेश्वर श्रीकृष्ण इन महापुरूषों की श्रेणी में अग्रणी हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण महानता की चरम सीमा पार कर चुके थे, इसीलिए उन्हें आप्त पुरूष कहा जाता है। उनके मुख से निकले शब्द शास्त्र बन जाते थे, जिनका पथ प्रबुद्घ लोगों का मार्ग बन जाता था तथा उनके द्वारा किए गए कर्म एक उदाहरण प्रस्तुत करने वाले होते थे। उसी श्रीकृष्ण ने अपने गीता के उपदेश में कहा कि-

                 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः।
                       अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम॥

यानि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्घि होती है, धर्म की स्थापना के लिए तब-तब वे संसार में प्रकट होते हैं। हालांकि यह गौणिक वाक्य हैं, परन्तु इसे समझने की आवश्यकता है।
       ऐसे महामना जिनके जन्म दिवस को पूरी दुनिया बड़े चाव व खुशी से मनाती है तो प्रत्येक व्यक्ति उनके जन्म समय के बारे में जानना चाहता है। अब प्रश्न उठता है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म कब हुआ। उनके जन्म विषय में कम्प्युटर ज्यातिषी ने काल गणना की है। यह गणना वैदिक विद्वानों से भी मेल खाती है। इस गणना पर विश्वास किया जा सकता है।
       योगेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म भाद्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को 3228 ईस्वी पूर्व हुआ था। यदि इसमें सन ईस्वी के 2010 वर्ष और जोड़ दिए जाए तो श्रीकृष्ण का अवतरण आज से 5238 वर्ष पूर्व 21 जुलाई को कंस के कारागार में हुआ था। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने 125 वर्ष 7 मास की अवधि तक धरती पर निवास किया। इस प्रकार 5112 वर्ष पूर्व 18 फरवरी को उन्होंने मृत्यु लोक का त्याग किया था। उसी दिन कलियुग का प्रारम्भ भी हुआ था।
        श्रीकृष्ण ने दुष्टों का नाश करने के लिए अपने जीवन में अनेक युद्घ किए थे। महाभारत का युद्घ उन सभी युद्घों में सबसे बड़ा और भयानक युद्घ था। महाभारत के युद्घ के दौरान एक पखवाडा 15 दिनों की बजाय 13 दिनों का आया था। इसी दिन सम्पूर्ण सूर्य ग्रहण भी लगा था तथा इस दिन जयद्रथ का वध भी हुआ था। इस युद्घ में श्रीकृष्ण की आयु 89 वर्ष 7 माह बनती है। इसके ठीक 36 वर्ष पश्चात फिर एक पखवाडा 13 दिनों का आया था, उस दिन श्रीकृष्ण ने अपने प्राण त्याग दिए थे।
        श्रीकृष्ण के गुणों का बखान करना मुश्किल ही नही बल्कि असम्भव हैं। वे सम्पूर्ण मानव थे। वे योगियों में महायोगी, ऋषियों में महर्षि, तपस्वियों में तपस्वी, विद्वानों में महाविद्वान तथा महान दार्शनिक, अपराजय यौद्घा और उत्तम कोटी के वैज्ञानिक थे। श्रीकृष्ण एक अच्छे शिक्षक, लेखक और महान तत्ववेता थे। वे आप्त पुरूष थे, जिनकी तुलना किसी से नही की जा सकती है।
        इन गुणों के भंडार के कारण मृत्यु लोक के जन उन्हें भगवान कह कर पुकारते हैं। ऐसा कह कर वे न केवल अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं बल्कि श्रीकृष्ण की महानता को नकार कर उन्हें भगवान के चोले में समाहित कर रहे हैं। भगवान सृष्टि के जनक होते हैं परन्तु श्रीकृष्ण ऐसे नही थे लेकिन उनके अनेक गुण भगवान से मेल खाते थे। इसलिए उन्हें भगवान कहा जाने लगा। वैसे ऐसे महापुरूष जिनमें ‘बल, बुद्घि, ज्ञान, तप, यश और ऐश्वर्य’ ये छः गुण विद्यमान हों उन्हें भगवान कहा जाता है। श्रीकृष्ण में ये सभी गुण मौजूद थे।
बल - योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कंस के धनुषकोटी यज्ञ के दौरान कंस सहित बडे़-बड़े महाबलियों को मलयुद्घ में पछाड़ कर यह सिद्घ कर दिया था कि उनसे अधिक बलशाली पृथ्वी पर कोई और नही है।
बुद्घि - कहा जाता है कि ‘बुद्घिर्यस्य बलम तस्य’ अर्थात जिनके पास बौद्घिक बल होता है, उसके समान बलवान कोई नही होता। जहां शारीरिक बल काम नही आया श्रीकृष्ण ने वहां बौद्घिक बल से शत्रु का नाश किया था। कालयवन की मृत्यु इसका अच्छा उदाहरण है।
ज्ञान - योगेश्वर श्रीकृष्ण महान विद्वान थे। चारों वेदों की अधिकतम ऋचाएं उन्हें कंठस्थ थी। इसी के परिणामस्वरूप उन्होंने महाभारत के युद्घ के दौरान मात्र एक घंटे में अर्जुन का मोह भंग किया था।
तप - कृष्णदत्त ब्रह्मचारी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि श्रीकृष्ण एक महान तपस्वी थे। उन्होंने केदारनाथ में अपने 12 वर्ष की अखंड तपस्वा व शौध के फलस्वरूप सुदर्शन चक्र अस्त्र का निर्माण किया था। इस अस्त्र की काट संसार के किसी भी यौद्घा के पास नही थी। उन्होंने ब्रह्मचर्य तप का पालन करते हुए विवाह के 12 वर्षों पश्चात प्रद्युम्न जैसे परमवीर पुत्र को जन्म दिया था।
यश - श्रीकृष्ण की संसार में व्यापकता जगजाहिर है। अपने समकाल के दौरान उनकी महानता की गाथा से ऋषि, मुनि, महात्मा, राजा, प्रजा तथा आम नागरिक परिचित था। यह प्रसिद्घि ही यश कहलाती है।
ऐश्वर्य - बड़े से बडे़ राजा, सम्राट तथा इन्द्र आदि भी उनके ऐश्वर्य के सामने फीके थे। संसार में उपभोग की प्रत्येक वस्तु उनके पास थी। कहीं कोई न्यूनता या अभाव दृष्टिगोचर नही होता था। अतः श्रीकृष्ण सम्पूर्ण ऐश्वर्यशाली थे।
इन सभी छः गुणों से युक्त व्यक्ति विरले ही होते है। श्रीकृष्ण उनमें विरलों में से एक विरले थे। इसीलिए उन्हें भगवान की उपाधि से नवाजा गया है।
       संसार में यह आम धारणा बनी हुई है कि भगवान श्रीकृष्ण के 16108 गोपियां थी और वे उनमें रमण रहते थे। इस पर भी कृष्णदत्त ब्रह्मचारी ने बड़ा सुन्दर विवरण किया है। उन्होंने लिखा है कि गोपियां वेद की ऋचाओं यानि वेद मंत्रों को कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण को वेद के कुल 19404 मंत्रों में से 16108 मंत्र कंठस्थ थे और वे उन्हीं मंत्रों के ज्ञान विज्ञान में रमण रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण इन्हीं ऋचाओं का मंथन कर उनसे समाज के उत्थान का मार्ग ढूंढते रहते थे। श्रीकृष्ण जैसे पुरूष द्वारा 16 हजार रानियां अपने रनिवास में रखना तथ्यपरक भी नही लगता है।
      भगवान श्रीकृष्ण की महानता के कारण उन्हें सम्पूर्ण षोडश कला युक्त माना जाता है, जबकि श्रीराम को 12 कलाओं के ज्ञाता समझा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की 16 कलाओं से पहले हमें कला की परिभाषा को जानना होगा। आखिर कला होती क्या है? किसी भी कार्य में विलक्षण प्रतिभा का होना कला कहलाती है। चन्द्रमा की भी 16 कलाएं होती है, जोकि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर प्रतिदिन बढती हुई पूर्णिमा को सम्पूण चन्द्रमा होने पर 16 कलाएं पूर्ण मानी जाती है। इसी प्रकार श्रीकृष्ण की प्रतिभा भी चंद्रकलाओं की भांति प्रतिदिन बढती हुई पूर्णता को प्राप्त होती रही है। इसी लिए उन्हें 16 कलाओं से युक्त महापुरूष माना जाता है।
      षोडश कलाओं के विषय में अलग-अलग विद्वानों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। अपने चिंतन के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की 16 कलाएं 16 विभिन्न विषय हैं, जिनमें उन्हें पारंगतता प्राप्त थी। इन कलाओं के जानने के पश्चात संसार में जानने लायक कुछ और नही रह जाता। अकेले श्रीकृष्ण को उन 16 विषयों में महारत हासिल थी, जिन एक-एक विषय पर आजकल पीएचडी करवाई जाती है। ये कलाएं इस प्रकार से हैं।
श्रृंगार कला - भगवान श्रीकृष्ण को श्रृंगार की बारिकियों का इतना ज्यादा ज्ञान था कि उसके श्रृंगार रूप को देखकर गोकुल की कन्याएं (गोपिया) उनके मनमोहक रूप को निहारती रहती थी। उनके गले में दुपट्टा, कमर पर तगड़ी, पीताम्बर अंग वस्त्र, सिर पर छोटा मुकुट तथा उसपर मोर पंख श्री की सुन्दरता में चार चांद लगाता था।
वादन कला - भगवान को वादन के सभी स्वरों का पूर्ण ज्ञान था, जिसके परिणास्वरूप वे अपनी बांसूरी से बड़े बड़ों को अपने अनुचर बना लेते थे।
नृत्य कला - श्रीकृष्ण को नृत्य का पूर्ण ज्ञान था, इसी लिए गोकुल की देवियां उनके नृत्य की प्रशंसा करते-करते श्रीकृष्ण का नृत्य देखने की हठ करती थी।
गायन कला - श्रीकृष्ण एक अच्छे गायक भी थे। वेद के मंत्रों का गायन कर उन्होंने अर्जुन को मोहपाश के मुक्त कर दिया था।
वाकमाधूर्य कला - श्रीकृष्ण की वाणी में विलक्षण मधुरता व्याप्त थी। वे जिस किसी से भी वार्ता करते थे, वह हमेशा के लिए उनका हो जाता था।
वाकचातुर्य कला - उनकी वाणी में चतुरता भी थी। वे बडे़ सहज भाव से अपनी बात को मनवा लेते थे और सामने वाले को अपना विरोद्घि भी नही बनने देते थे। महाभारत में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आए हैं।
वक्तृत्व कला - भगवान एक महान वक्ता थे। बड़े-बड़े धूरंधरों को उन्होंने अपने प्रभावशाली वक्तव्यों से धराशाही कर उनको उनके ही बनाए जाल में फांस लिया था। कालयवन उसका एक अच्छा उदाहरण है।
लेखन कला - श्रीकृष्ण ने मात्र एक घंटे के सुक्ष्मकाल में गीता की रचना कर एक ऐतिहासिक कार्य किया है। उनका मुकाबला आज तक या इससे पहले कोई नही कर सका। अतः भगवान एक उत्तम कोटी के लेखक भी थे।
वास्तुकला - भगवान श्रीकृष्ण को वास्तुकला का भी अकाटय ज्ञान था। पांडवों के लिए इन्द्रप्रस्थ और स्वयं अपने लिए राजधानी द्वारका का निर्माण वास्तुकला के बेजोड़ नमूने थे।
पाककला - भगवान श्रीकृष्ण पाक शास्त्र के भी महान पंडित थे। सम्राट युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ के दौरान खाने-पीने का पूरा सामान उनकी देख-रेख में ही तैयार किया गया था।
नेतृत्व कला - कृष्ण में नेतृत्व करने की क्षमता बेजोड थी। वे जहां भी गए नेतृत्व उनके पीछे-पीछे हो जाता था। सभी युद्घों से लेकर आम सभाओं में हमेशा सभी ने उन्हीं के नेतृत्व को स्वीकार किया था।
युद्घ कला - श्रीकृष्ण की अधिकतर आयु युद्घों में ही व्यतीत हुई थी परन्तु हमेशा उन्होंने सभी में विजय प्राप्त की। वे युद्घ की सभी विधाओं का सम्पूर्ण ज्ञान रखते थे।
शस्त्रास्‍त्र कला - योगेश्वर श्रीकृष्ण को युद्घ में प्रयोग होने वाले सभी व्यूहों की रचना, उन्हें भंग करने की कला तथा आग्नेयास्त्र, वरूणास्त्र तथा ब्रह्मास्त्र सहित सभी अस्त्र शस्त्रों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त था।
अध्यापन कला - भगवान श्रीकृष्ण एक सफल अध्यापक भी थे। युद्घ क्षेत्र में जिस प्रकार उन्होंने अर्जुन को निष्कामकर्म योग, सांख्य योग, विभूति योग, भक्ति योग, मोक्ष सन्यास योग तथा विश्वरूप दर्शन योग का पाठ पढाया, वह हमेशा अनुक्रणीय रहेगा।
वैद्यक कला - श्रीकृष्ण आयूर्वेद के भी सम्पूर्ण ज्ञाता थे। कंस की फूल चुनने वाली दासी कुबड़ी के शरीर को सीधा करना तथा महाभारत युद्घ में अश्वथामा के प्रहार से मृतप्रायः हुए परीक्षित को जीवन दान देना इसके अकाट्य उदाहरण है।
पूर्वबोध कला - भगवान ने तप से अपनी आत्मा को इतना पवित्र और उर्द्घव गति को प्राप्त करवा लिया था कि उन्हें किसी भी घटना का पहले से ही अनुमान हो जाता था।
यदि देखा जाए तो इन कलाओं को जानने के पश्चात और कुछ जानने योग्य नही रह जाता। इसलिए श्रीकृष्ण एक सम्पूर्ण मानव थे।
        वैदिक विद्वान स्वामी विदेह योगी ने श्रीकृष्ण के विषय में कहा कि वे एक महामानव थे और उनकी तुलना अभी तक किसी भी महापुरूष से नही की जा सकती। पौराणिक मान्यताओं में राम और कृष्ण को छोड़ किसी भी अवतार के साथ कलाओं का जिकर नही आता है। राम सूर्यवंशी थे और संसार में 12 आदित्य माने जाते है। इसलिए राम को 12 कलाओं से युक्त माना जाता है। परन्तु श्रीकृष्ण चंद्रवंशी थे और चंद्रमा की 16 कलाएं होती हैं इसलिए उन्हें 16 कलाओं का ज्ञाता माना जाता है।
      स्वामी जी ने कहा कि संसार में आम व्यक्ति अपने दिमाग का 2 से अढाई फीसदी ही प्रयोग करता है परन्तु कोई वैज्ञानिक 3 से साढे तीन फीसदी दिमाग प्रयोग करता है। लेकिन श्रीराम अपने दिमाग का 12 फीसदी और श्रीकृष्ण 16 फीसदी दिमाग का प्रयोग करते थे। इसलिए उन्हें 12 व 16 कलाओं से युक्त माना जाता है। चाहे कुछ भी हो श्रीकृष्ण एक महामानव थे और उनका जन्मदिन मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उनके किसी एक गुण का भी अनुक्रण कर सकेंगे।

                                                                    कृष्ण कुमार ‘आर्य’





रक्षाबंधन

                            बंधनों का त्यौहार- रक्षाबंधन
                                       
                 

       ये बंधन स्नेह का बंधन है। इसी बंधन से भक्त और भगवान, माता-पिता और संतान तथा संसार का प्रत्येक प्राणी एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। इसी बंधन ने स्नेह के धागे में भाई और बहन के पवित्र रिश्ते को बांधा है।
       वर्तमान परिवेश में वैसे तो सभी रिश्ते तार-तार हो चुके हैं परन्तु फिर भी कुछ हद तक इस संबंध को अभी भी निर्लेप, निष्कपट तथा आदर के भाव से देखा जाता है। इस दिन बहने अपने भाई की लम्बी आयु की कामना करती है तथा भाई के माथे पर तिलक करते हुए उसके हाथ पर राखी बांधती है और अपनी रक्षा की प्रार्थना करती है।
        इस त्यौहार के अवसर पर लड़कियां अपने भाईयों से दूर होते हुए भी वे किसी भी प्रकार राखी पहुंचाने का कार्य करती हैं। पहले राखी डाक से भी पहुंचाई जाती थी। इसलिए इन्हें पहुंची भी कहते हैं। राखी पहुंचने के बाद भाई द्वारा यह खबर भेजी जाती थी कि उनके द्वारा भेजी गई पहुंची पहुंच गई है। इस प्रकार स्नेह से भरा भाई अपनी बहन की खुशियों के लिए आर्शीवादस्वरूप भेंट भी देता है।
        यह त्यौहार सदियों से चला आ रहा है। प्राचीन वैदिक काल के दौरान भी इस त्यौहार को इसी प्रकार हर्षोल्लास से मनाया जाता रहा है। इस त्यौहार को एक रक्षासूत्र से बांध कर न केवल भाई-बहन बल्कि गुरू-शिष्य, पिता-पुत्र, पिता-पुत्री के नातो को प्रगाढ किया जाता है। वे एक-दूसरे से अपने भविष्य की रक्षा व सुरक्षा की प्रार्थना करते है।
                             
       रक्षाबंधन को श्रावणी पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। यह त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस पूर्णिमा का न केवल आध्यात्मिक महत्व है बल्कि चंद्रमा की किरणें शरीर पर पड़कर उत्तम कोटी का लाभ प्रदान करती है। आज भी श्रावणी पर्व को वेदों के ज्ञान विज्ञान से जोड़कर देखा जाता है तथा अनेक स्थानों पर इसको इसी रूप में मनाया जाता है।
       इस अवसर पर घरों में पकवान के नाम पर दूध में सेवियां बनाई जाती है। इसका संबंध भी हमारे अन्न की शुद्घता से है। दूध व सेवियां का मिश्रण वर्षा ऋतु के कारण कुपित हुई व्यक्ति की प्रवृति को शांत करता है तथा कफ दोष का निवारण करने वाला है। इन्हीं सेवियों से घर की महिलाएं अपने घरों के दरवाजों पर मांगलिक धांगे को बांधती है। इसमें राम सीता को लिखकर भगवान का प्रतिरूप श्रीराम व माता सीता से घर की खुशहाली की प्रार्थना करती है।
      आदि काल से ही जनता धार्मिक स्वभाव की होती थी तथा वह साधु, संतों, ऋषि, मुनियों का बड़ा सम्मान करती थी। इसलिए ऐसे विद्वान व्यक्ति स्थान-स्थान पर घूम कर आम जनता को वेदों की शिक्षा प्रदान करते रहते थे। परन्तु आसाढ, सावन, भाद्र तथा आश्विन मास वर्षा के महिने होने के कारण विद्वान साधु, संत-महात्मा नगरों व गांवों से दूर अपने आश्रमों में निवास करते थे, क्योंकि मार्ग कच्चे होने के कारण अवरूध हो जाते थे। ऐसे में प्रभू-भक्ति के शुभ विचारों का पान करने के लिए गृहस्थी अपनी बैलगाडि़यों या अन्य साधनों से उनके आश्रमों पर पहुंच जाते थे।
       श्रावण मास के अन्त में सभी आश्रमों में अच्छे पकवान बनाये जाते थे तथा गीत, भजन और आत्मिक उत्थान के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता था। इसी खुशी में आश्रम पर आने वाले दूरदराज के सभी बंधुगण एक दूसरे की आपसी सहायता का वचन देते थे तथा एक दूसरे को रक्षासूत्र बांधने का कार्य करते थे।
        इतना ही नही आश्रमों में आने वाले प्रत्येक नागरिक अपने शिक्षक रूपी संत महात्मा को यह रक्षासूत्र बांधते थे तथा उनसे प्रार्थना करते थे कि वे भविष्य में भी उसी प्रकार उन्हें सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते रहे, जिससे वे जीवन में आने वाले सभी कष्टों से मुक्ति पा सके। आश्रमों में आकर रहने की परंपरा आज भी जैन मुनियों की दिनचर्या में शामिल है। वे वर्षा ऋतु के दौरान किसी भी स्थान पर चौमासा लगाते है और अपने धर्म का प्रचार करते हैं।
       रक्षाबंधन त्यौहार पूरे देश में मनाया जाता है। हरियाणा, हिमाचल, पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा देश के अन्य हिस्सों में इसे खुशी-खुशी से मनाया जाता है। इस त्यौहार का संबंध भी अन्य त्यौहारों की भांति मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। अतः इसकी महत्ता को समझते हुए ही इसे मनाना चाहिए।
                                                          कृष्ण कुमार ‘आर्य’

तीज-

         
           मधु बरसाती है हरियाली तीज की फुहारें



     भारत देश में वर्ष के प्रत्येक माह को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। यहां हर मास का अपना महत्व होता है। भारतीय संस्कृति में चैत्र माह से फाल्गुन महीना तक अनेक त्यौहार आते हैं। ये सभी त्यौहार अपने में इन्द्रधनुषी छटा को समेटे हुए होते है लेकिन इनको मनाया अलग-अलग ढ़ंगों से जाता है।
     हिन्दु संस्कृति में श्रावण मास का विशेष महत्व है। इस मास को सावन माह के नाम से भी जाना जाता है। वर्षा ऋतु होने के कारण इस मास को वर्ष का रजस्वला काल भी कहा जाता है। वर्षा के दो-तीन माह तक चलने के कारण इसको वर्ष का ऋतुकाल भी कहा जा जाता है। इस माह के दौरान बहुतायत मात्रा में वर्षा होने से धरती माता की उपजाऊ शक्ति में वृद्घि होती है। इससे बीज जल्दी अंकुरित होकर धरती के आंचल को जल्दी हरा भरा कर देते है।
     इसी माह के दौरान तीज उत्सव मनाया जाता है। हरा भरा होने के कारण इस त्यौहार को हरियाली तीज के नाम से जाना जाता है। चारों ओर हरियाली को देख कर मन पुलकित हो जाता है और झूमने व नाचने का जी चाहता है। महिलाएं इस हरित मास की हरियाली से मचल कर चारों ओर हंसी-खुशी का माहौल पैदा कर देती है। बच्चे हठखेलियां करते है, सावन के गीत गाती हुई बालाएं नाचती, खेलती और झूमती है तथा वृद्घ आकाश में काले मेघों के नृत्यों से आनन्द विभोर हो जाते हैं।
      सावन को हरा मास भी कहा जाता है। हरा रंग खुशहाली का प्रतीक माना जाता है। यही खुशहाली मन को हरने वाली होती है और मन में उत्साह व हौसला भरकर जीवन में नवीन चेतना का संचार करती है। हरा का अर्थ है हरने वाला यानि मन को हरने वाला तथा इसे मन के कष्टों व दुःखों को हरने वाला भी कहा जा सकता है। हरा भगवान को भी कहते हैं क्योंकि वह व्यक्ति के सभी कष्टों को हर लेता है और उसे समृद्घशाली बनाता है। इसीलिए भगवान को हरि के नाम से जाना जाता है। अतः इस मास का हरिमास भी कहा जाता है। इस संबंध में कवि की दो पंक्तियां सही चरितार्थ होती हैं।                   
                                  हरा जो हरने को चला, हरे वो मन की पीर।
                                 हरि मास में हरने को, हरि आवे हमारे तीर॥
       तीज उत्सव सावन मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। तीज से कई दिन पहले ही लड़के, लड़कियां, महिलाएं और पुरूष इस त्यौहार की तैयारी में सराबोर हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार के पकवानों की खुशबू से घर, आंगन और बाजार महक उठते है। गांव से बाहर बणी (खेतों) में सावन के गीतों की मधुर आवाज पक्षियों की चहचाहट को अनसुना कर देती है। पेड़ों की डालियों व घरों के दरवाजों पर झूला डाल कर किशोरियां मस्ती से झूलती व झूमती नजर आती है।
      पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस त्यौहार को माता पार्वती व शिव से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि माता पार्वती ने अनेक जन्मों तक भगवान शिव की आराधना की परन्तु 108 वें जन्म पर भगवान शिव ने उनके सर्म्पण, त्याग व तप को स्वीकार कर उन्हें जन्मों की तपस्या का फल प्रदान किया। माना जाता है कि लम्बे समय अन्तराल के बाद शिव और पार्वती का मिलन श्रावण मास की तीज पर ही हुआ था। उनके मिलन की खुशी में लोग झूमने, नाचने और खुशियां मनाने लगे। इसके बाद यही झूमना लोगों के लिए झूलने का परिचायक बन गया।
       इसी कारण तीज से पहले नवविवाहिताओं को उनके मायके भेजने की प्रथा कायम हुई है। सावन मास प्रारम्भ होने से पहले ही विवाहित लड़कियों को उनके मायके लाया जाता तथा तीज के पश्चात वापिस ससुराल भेज देते है। तीज पर ससुराल पक्ष के लोग अपनी बहु के स्वागत व श्रृगांर के लिए श्रृगांरा भी लाते है, जिसको बाद में अपभ्रंशित होकर सिंधारा कहा जाने लगा है। सिंधारे में घेवर, कपड़े, चुडि़यां, मेहंदी तथा अन्य श्रृगांर का पूरा सामान भेजा जाता है।
       तीज के दिन विवाहित महिलाएं अपने पति के प्यार और उनकी लम्बी आयु पाने के लिए उपवास रखती है। यह उपवास 24 घंटे की अवधि तक रखा जाता है। इस उपवास के दौरान महिलाएं न कुछ खाती है और न ही पीती है। इस अवसर पर महिलाएं स्वर्ण आभूषणों सहित 16 श्रृगांर करती हैं तथा माता पार्वती की पूजा अर्चना करते हुए तीज की कहानी सुनती है। इसके बाद महिलाएं उपवास को भंग करती है और अपने पति कर राह देखते हुए सावन के गीतों का इस प्रकार से गान करती हैं।              
                    ‘नन्हीं-नन्हीं बुंदियां, ये मां मेरी पड़ रही री।
         ऐरी कोई लाओ पिया न बुलाए, धड़कन मौरी बढ़ रही री’॥
       तीज के त्यौहार पर नवविवाहित महिलाओं को नए वस्त्र, जेवर, चुडि़यां, मिठाइयां तथा अन्य श्रृगांर का सामान भेंट किया जाता है। यह सामान दुल्हन के माता-पिता द्वारा भेजा जाता है। इसको ‘बाया’ कहा जाता है लेकिन दुल्हन अपनी सास कोे प्रसन्न रखने व पति के लिए उनका आभार व्यक्त करने के लिए सास को भेंट देती है, जिसमें पैसे, मिठाई तथा अन्य सामान होता है, जिसे ‘बाणा’ कहते हैं।
       तीज की मस्ती में झूमने के लिए महिलाएं फिर झूला झूलती हैं और सावन के मधुर गीतों का गान करती हैं। सावन में वट वृक्ष की शाखाओं पर झूलने का विशेष महत्व बताया जाता है। इसकी लम्बी-चौडी शाखाओं से छनकर आती फुंहारे युवतियों में नवचेतना भर देती है। तीज उत्सव के दौरान महिलाएं वृताकार घेरे में बैठकर तेल का दीपक जलाती हुई पार्वती माता का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। नाचती, गाती व मस्ती से सराबोर महिलाएं खूशी से ‘आज उतर कर सावन आया, दिवाना मुझे बनाने को’ जैसे गीतों से भाव विभोर हो जाती है।
       वैदिक मान्यताओं के अनुसार भारतीय संस्कृति में सभी त्यौहारों को मौसम और महीनों के महत्व के आधार पर होता है। तीज का त्यौहार भी इसी के दृष्टिगत मनाया जाता है। हमारी संस्कृति में त्यौहारों का संबध जीवन से होता है। जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सजाने के लिए ये त्यौहार विभिन्न तरीकों से मनाए जाते है।
        इस संबंध में वैदिक विद्वान स्वामी विदेह योगी का कहना है कि सावन मास के शुक्ल पक्ष में मनाये जाने वाले तीज के त्यौहार का संबंध वर्षा ऋतु से है। इससे पहले झुलसाने वाली गर्मी से परेशान प्रत्येक जीव आसमान की ओर निहारता है और भगवान से इस कष्टदायी गर्मी से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना करता है। अपनी व्यवस्था के अनुसार सावन माह के दौरान बादल उमड़-उमड़ कर चारों ओर बरस जाते हैं। बादलों से घिरा आसमान को देख प्रकृति का कण-कण पुलकित हो उठता है।
       सावन में आसमान से पानी की फुंहार बरसती है। ये फुंहार पृथ्वी माता की तपिश को शांत कर उसकी उपजाऊ शक्ति में वर्धन करती है। आसमान से गिरने वाली इन फुंहारों के माध्यम से पृथ्वी माता पर मधु की वर्षा होती है, जिससे पृथ्वी अमृतरस दायिनी बन जाती है। इसलिए इस त्यौहार को मधुर्स्वा के नाम से भी जाना जाता है यानि इसे आसमान से मधु बरसाने वाला त्यौहार भी कहा जाता है।
       यह त्यौहार तीज के दिन मनाया जाता है। इसका संबंध चन्द्रमा से भी है क्योंकि किसी भी तीज के दिन ही चंद्रमा के ठीक प्रकार से दर्शन होते है। इसके बाद चांद के आकार व चंद्रकलाओं में वृद्घि होती जाती है। आसमान से पड़ने वाली फुंहारें जब चांद की चांदनी को चीरती हुई पृथ्वी माता के आंचल को भिगोती है तो वह सभी फल, फूल और औषधियों में रस भर देती है। वहीं चन्द्रमा की किरणें वर्षा की फुंहारों का भेदन करती हुई जब प्राणीयों के शरीरों तथा नेत्रों पर पड़ती है तो इससे शारीरिक व्याधियां नष्ट होकर आरोग्यता प्राप्त होती हैं।
       तीज का त्यौहार भारत के विभिन्न प्रांतों के साथ-साथ नेपाल में भी मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान सहित अन्य प्रान्तों में तीज को उनके तरीकों व रीति-रिवाजों से मनाया जाता है। तीज को गुजरात में गरबा, राजस्थान में सावन त्यौहार तथा पंजाब में पींग के नाम से मनाया जाता है। नेपाल के लोग इस त्यौहार को तीन दिनों तक बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस प्रकार यह त्यौहार न केवल हमारी सांस्कृतिक विरासत के तारों को जोड़ता है बल्कि भौगोलिक व सामाजिक ताने-बाने को एक सूत्र में पिरौने का कार्य करता है।
                                                                        
                                                                       कृष्ण कुमार ‘आर्य’

शुद्घ आहार

               सम्पूर्ण आरोग्यता का आधार-शुद्घ आहार
          आज भागदौड़ की जिन्दगी के मायने की बदल गए हैं। व्यक्ति कष्टदायक वस्तुओं में सुख तलाश कर रहा है, जबकि सुखदायक आचरण को कष्टकारक समझता है। इसलिए मनुष्य को न खाने की फुर्सत है और न ही जीवन में कुछ अच्छा करने की लालसा है! यदि मनुष्य की दिनचर्या पर ध्यान डाला जाए तो उससे यह नही लगता कि वह निरोग रह सकता है। आज व्यक्ति का लाईफ स्टाईल तनाव से ग्रसित मिलता है। बिस्तर से उठते ही उसे तैयार होने की टैंशन, बच्चों को स्कूल छोड़ने की टैंशन, काम पर जाने की टैंशन, अॅफिस या दुकान में जाकर काम होने या न होने की टैंशन, घर वापिसी पर राशन की टैंशन, बाजार जाने की टैंशन, सांय को बीवी बिमार मिली तो उसके ईलाज की टैंशन वैगरा, वैगरा...इत्यादि। मनुष्य के जीवन में सुबह से सांय तक टैंशन ही टैंशन रह गई है।
            टैंशन की इन घडि़यों में व्यक्ति अपने खानपान अर्थात आहार पर ध्यान नही दे पाता। अनेक बार हम अॅफिस में बैठे हुए, गाड़ी में चलते हुए, काम में व्यस्त रहते हुए तथा अन्य आवश्यक कार्यों की निवृती के दौरान भी कुछ न कुछ खाकर अपनी क्षुधा मिटाने का प्रयास करते है। ऐसे समय पर व्यक्ति कोई पोष्टिक या स्वास्थ्यवर्धक खाना नही खा पाता बल्कि वह अपनी अमूल्य भूख को शांत करने के लिए चिप्स, बर्गर, पीजा, ईडली, ढोसा, चिकन, अंडा, चाय, समोसा या कोल्ड़ ड्रिंक इत्यादि जंक फूड का ही सेवन करता हैं। इनके सेवन से व्यक्ति कितना स्वस्थ रह सकता है यह तो हम सब जानते है।
          आहार व्यक्ति के जीवन का आधार स्तम्भ होता है। शुद्घ और रोगनाशक आहार द्वारा हम अपने शरीर से लम्बे समय तक कार्य ले सकते हैं। शुद्घ आहार जहां व्यक्ति को संपूर्ण स्वस्थ्य प्रदान करता है, वहीं दूषित खानपान व्यक्ति की प्रकृति को बिगाड़ देता है। यह भी कहा जा सकता हैं कि भगवान ने सभी प्राणियों का भोजन उनकी प्रकृति के आधार पर ही तय किया है। प्रकृति ने मांसाहारी जीव शेर, चीता व भेडि़या जैसे प्राणियों का खानपान मांस तय किया है, जबकि मनुष्य, गाय, भैंस, भेड़, बकरी जैसे जीव, प्रकृति से ही शाकाहारी होते हैं। वे प्राणी जो मांसाहारी व शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन का भक्षण करते हैं, ऐसे सर्वाहारी जीवों की श्रेणी में कुत्ता, बिल्ली इत्यादि शामिल हैं। अब तो स्वयं व्यक्ति भी इस श्रेणी में कदम रख चुका है।
          खानपान पर ये सामाजिक अवधारणाएं तो सुनी ही होगी कि- ‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन, जैसा पीओगे पानी, वैसी होगी वाणी।’ इससे पता चलता ही है कि हमारे खानपान अर्थात आहार का सीधा सम्बन्ध हमारे अन्तःकरण से होता है। आहार का प्रभाव मन पर, मन से बुद्घि, बुद्घि से विचार, विचारों से कर्म तथा कर्मों से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास या विनाश होता है। अतः मनुष्य के विकास या विनाश को उसके द्वारा किये जाने वाला आहार से ही आंका जा सकता है।
        हमारा शरीर, आहार एवं विचारों का दर्पण होता है। महर्षि चरक ने अपनी पुस्तक चरक संहिता में आरोग्यता के तीन मूलक बताए है। ‘त्रयः उपष्टम्भा आहार-निद्रा-ब्रह्मचर्यमिति।’                              व्यक्ति का स्वास्थ्य ‘आहार, निद्रा, और ब्रह्मचर्य’ तीन अंगों पर निर्भर करता है। ये तीनों अंग व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने में रामबाण का कार्य करते हैं। शुद्घ, पवित्र, स्वास्थ्यवर्धक व रोगनाशक खानपान को ‘आहार’ की श्रेणी में गिना जाता है। स्वस्थ रहने का दूसरा साधन ‘निद्रा’ है, गहरी नींद व्यक्ति को स्वस्थ रखने में सहायक होती है। ‘ब्रह्मचर्य’ में वीर्य की रक्षा और ब्रह्म विद्या का अध्ययन करना समाहित होता है।
            महर्षि दयानन्द ने अपनी जगत प्रसिद्घ पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में मनुष्य के स्वस्थ रहने, वैचारिक उत्तमता और आत्मिक उन्नति के लिए भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों को दो श्रेणियों में बांटा है। ये हैं- धर्मशास्त्रोक्त तथा वैद्यकशास्त्रोक्त। धार्मिक ग्रर्न्थों एवं आप्त पुरूषों द्वारा निर्देशित आहार को ‘धर्मशास्त्रोक्त’ आहार माना गया है। इसमें मलिन, मल-मूत्रादि व गंदगी आदि के संसर्ग से उत्पन्न अंडा, मांस, शाक, फल, फूल, सब्जियां व औषध इत्यादि पदार्थों का सेवन करना निषिद्घ माना गया है। ऐसे पदार्थ व्यक्ति की बुद्घि का नाश करने वाले होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘आहार शुद्घौ, सत्व शुद्घि, सत्व शुद्घौ, ध्रूवास्मृति।’ अर्थात आहार के शुद्घ होने से बुद्घि का शौधन होता है और बुद्घि के शुद्घ होने से हमारी स्मरण शक्ति चीर स्थाई बन सकती है।
         वैद्यक शास्त्रों में बताए गए खानपान और शरीर की प्रकृति के अनुकूल आहार को ‘वैद्यकशास्त्रोक्त’ आहार बताया गया है। वैद्यक शास्त्रों में भी तीन बातों का ध्यान रखने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसमें ‘ऋतभुक, मितभुक, हितभुक’ के सिद्घांत पर खानपान करना लाभकारी माना गया है। वैद्यकशास्त्रों में मौसम व ऋतु के अनुसार आहार का सेवन करना ‘ऋतभुक’ कहलाता है। भूख से कम खाना ‘मितभुक’ तथा शरीर, बुद्घि और आत्मा की उन्नति के लिए हितकारी भोजन करना ‘हितभुक’ आहार कहलाता हैं।
           वैसे देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार ही भक्ष्याभक्ष्य पदार्थो का सेवन करता है। प्रकृति उसके शरीर व बुद्घि का सम्मिलन होता है। प्रकृति = शारीरिक बनावट + बौद्घिक स्तर। व्यक्ति को प्रकृति ही आहार का चयन के लिए प्रेरित करती है और उसे विभिन्न भक्ष्याभक्ष्य प्रदार्थों की ओर आकर्षित करती है। व्यक्ति के तीन शारीरिक दोष भी इस आर्कषण का कारण बनते हैं। ‘वात, पित्त व कफ’ नामक ये दोष शरीर में आरोग्यता के परिचायक है। इन दोषों के समावस्था में रहने पर शरीर निरोग रहता है, जबकि इनकी विषमता व्यक्ति को बिमारी का शिकार बना देती है। शरीर में वायु विकार से उत्पन्न दोष को ‘वात दोष’ कहते है, जबकि जठराग्नि में ऊष्णता व अग्नि तत्च की वृद्घि होना ‘पित्त दोष’ को उत्पन्न करता है तथा खांसी, नजला और जुकाम की बढोतरी ‘कफ दोष’ कहलाता है। इन तीनों दोषों को समावस्था में लाने वाला आहार ग्रहण करना ही स्वस्थ रहने का मूलमन्त्र माना गया है।
          शरीर के तीन दोषों की तरह ही, बुद्घि में तीन गुण माने गए हैं। सत्व, रजो व तमो गुणों से विभूषित बुद्घि को अपने सद्गुणों के विकास के लिए सात्विक आहार का पान और दूषित खानपान का त्याग करना होता है। शुद्घ विचारों, वेदादि ज्ञान, सहयोगी मानसिकता और पवित्र आचारण से बुद्घि में ‘सत्व गुण’ प्रभावी होता है, जबकि सत्य, धर्म और सदाचार की उपेक्षा करना, ईष्या तथा दूसरों को नुकसान पहुंचाने के विचार ‘तमो गुण’ के द्योतक है। कर्तव्य, जोश, रक्षा व नेतृत्व की भावना ‘रजो गुणी’ कहलाती हैं। इनमें सत्व गुण को सर्वोपरि तथ तमो गुण को निकृष्ट माना गया है।
              प्राणियों के प्रकृति की विषमता पर महर्षि दयानन्द ने भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों के सेवन का उपदेश किया है। उन्होंने खाने योग्य पदार्थों को ‘भक्ष्य व अभक्ष्य’ दो श्रेणियों में विभिक्त किया हैं। अहिंसा, सत्य, धर्मादि कर्मों से प्राप्त भोजन ‘भक्ष्य’ कहलाता है। कन्ध, मूल, फल, फूल, औषधियां युक्त पदार्थ ‘भक्ष्य पदार्थ’ होते है। ऐसे खाद्य पदार्थ जो स्वास्थ्यवर्धक, रोगनाशक, बुद्घिवर्धक तथा बल, पराक्रम व आयु में बढोतरी करने वाले हो, उन्हें ‘भक्ष्य’ भोजन कहते है। इनमें गोदूध, घी, दही, लस्सी व मिष्ठादि पदार्थ शामिल हैं। ये सत्व गुण को बढाने वाले होते हैं।
         जो पदार्थ चोरी, हिंसा, विश्वासघात, छल, कपट इत्यादि से प्राप्त किए जाते हैं उन्हें ‘अभक्ष्य’ पदार्थ कहा गया है। विपरित प्रकृति व शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों को भी अभक्ष्य माना गया है। अंडा, मांस, मदिरा, जंक फूड इत्यादि भी अभक्ष्य पदार्थो की श्रेणी में आते हैं। ये तमो गुण वर्धक होते हैं।
उच्छिष्ट (जूठन) का निषेध- शास्त्रों में उच्छिष्ट खाने का निषेध किया है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि आपसी जूठन खाने से स्नेह बढता है, जिसको ऋषियों द्वारा नकारा गया है। इससे प्यार बढ़ने की बजाय रोग बढने की बात कही गई है। हाथ, मुहं इत्यादि से निकली वस्तु ‘उच्छिष्ट’ कहलाती है, जोकि सामने वाले की प्रकृति पर विपरित प्रभाव डालती है। इससे बिमारी बढने की ज्यादा सम्भावना होती है। मल-मूत्र त्याग के बाद बिना हाथ धोए खाना पकाना, खाना, जूठन खाने में मिलाना तथा पसीना आटे में टपकना इत्यादि भी इसी श्रेणी में गिने जाते हैं।
मांसाहार त्याज्य- भगवान ने व्यक्ति को स्वभाव से ही शाकाहारी बनाया है। उसका चलना, उठना, बैठना, शारीरिक बनावट, दांतों का आकार तथा जीभ से खाने व पीने के तरीके सब कुछ शाकाहारी प्राणियों की भांति ही है। इस लिए व्यक्ति की प्रकृति शाकाहारी ही है। अतः मनुष्य के लिए अंडा, मांस, मद्य, ध्रूमपान व नशीले पदार्थों का सेवन शास्त्रों में त्याज्य बताया है। इनसे तमो गुण में वृद्घि होती है। अब तो चिकित्सक भी मांसाहार को हानिकारक मानते हैं।
हानिकारक जंक फूड- पराठा, बर्गर, पीजा, इडली, ढोसा, समोसा, पकौडा, आईसक्रीम, कोल्डड्रिंक, तैलीय तथा मसालेदार पदार्थों को जंक फूड माना जाता है। वैद्यक शास्त्रों में इन्हें पित वर्धक बताया गया है। इनके अतिरिक्त गले, सडे, बिगडे़, दूर्गन्धयुक्त तथा अच्छे से न बने खाद्य पदार्थों का सेवन भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना है।
इनका रखें ध्यान- भूख होने पर ही खाना खाएं, बिना चबाए या जल्दी-जल्दी नही खाना चाहिए, भूख से अधिक या बार-बार न खाना नुकसानदायक, प्रकृति के प्रतिकूल आहार न करना तथा उत्तेजना, भय, शोक, घृणा, क्रोध, चिंता या तनाव में भोजन नही करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक सिद्घ होता है।
हमारे आहार का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे बौद्घिक गुणों पर पड़ता है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वयं, परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति बदल जाता है। जब आहार व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है तो क्यों ना हमें ऐसे आहार का त्याग कर देना चाहिए, जो कि व्यक्ति को अपराधी, कामचोर, असभ्य तथा समाज व राष्ट्र का विरोधी बनाने वाला होता है। ऐसा करने से हम शारीरिक, मानसिक, बौद्घिक व आत्मिक रूप से स्वस्थ होकर सम्पूर्ण आरोग्यता को प्राप्त करने में सफल होंगे।   
                                                              कृष्ण कुमार ‘आर्य’

हिन्दी दिवस