‘श्याम आएंगे’

     


        मेरी खोपड़ी के द्वार आज खुल जाएंगे,

        श्याम आएंगे, 

        श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे। 

        मेरी खोपड़ी के द्वार आज खुल जाएंगे,

        श्याम आएंगे। 

श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे। 

श्याम आएंगे तो सुबह उठ जाऊंगी,

तारों की छावों में घूम आऊंगी,

फिर मैं करूं योगाञ्जयास,

लेकर सबको मैं साथ,

श्याम आएंगे।

श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे। 

श्याम आएंगे तो हवन रचाऊंगी,

खाने को हलवा बनाऊंगी,

उनसे लेकर आर्शीवाद,

फिर बांटू मैं प्रसाद,

श्याम आएंगे।

श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे। 

श्याम आएंगे तो छत पर जाऊंगी,

सूरज को नमन कर आऊंगी,

करके धारण मैं प्रकाश,

होने स्वस्थ की ले आस,

श्याम आएंगे।

श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे। 

        श्याम आएंगे तो समझ मैं पाऊंगी,

कैसे जीवन की धार बनाऊंगी,

उनका कैसा था सदाचार, 

        पाएं हम भी कर सुधार, 

        श्याम आएंगे, 

श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे। 

श्याम आएंगे तो मुरली सुनाएंगे,

ऋचाओं का गायन कराएंगे,

उससे मिट जाए भ्रमजाल,

कृष्ण हो जाए निहाल,

श्याम आएंगे।

श्याम आएंगे, आएंगे, श्याम आएंगे।   

कृष्ण कुमार ‘आर्य’ 

 

कुशल शिल्पी का शिल्प है-- ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’

 एक कुशल शिल्पी का शिल्प है-- ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ 



            भारत ऋषि परम्परा से अनुप्राणित दिव्य भूमि रहा है। इस दिव्य परम्परा में योगिराज शिव तथा ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यंत ऋषियों ने अपनी मनीषा से विश्व को आध्यात्मिक तथा भौतिक विज्ञान से साक्षात्कार कराया है। श्रीकृष्ण के अलौकिक जीवन में मानव जीवन की सम्पूर्णता दृष्टिगोचर होती है। श्रीराम ने जहाँ अपने जीवन से सामाजिक मर्यादाओं को स्थापित किया वहीं श्रीकृष्ण ने मानवमात्र को कर्म की महता के प्रति अनुप्रेरित किया है। 

        आर्य कृष्ण कुमार ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित पर आधारित ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ लिखा है। मैंने इस पुस्तक की मूल प्रति अच्छे से पढ़ी है। लेखक, पुस्तक में श्रीकृष्ण के जीवन तथा इतिहास के साथ न्याय करते हुए नज़र आ रहे हैं। श्रीकृष्ण चरित से सम्बन्धित फैले भ्रामक विचारों से अन्तरिक्ष को कुलीन करने का उद्देश्य लेखक ने प्रारम्भ में ही घोषित कर दिया है। 

         श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भ्रम फैलाने का सबसे अधिक काम ’सुखसागर’, ’प्रेमसागर’ तथा ’भागवत पुराण’ आदि पुस्तकों के प्रचारक एवं कथावाचकों ने किया है। इन सबने माखन चोर, मटकी फोड़, रास रचैया तथा नचकैया आदि आक्षेप लगाकर श्रीकृष्ण को उच्छृंखल ठहराने का प्रयास रहा है। लेखक लिखता है कि ‘योगबल से स्वयं को तपाने वाले श्रीकृष्ण का चरित्र अग्नि में तपे सोने के समान था, जिन पर कोई आक्षेप ठहर ही नहीं सकता।’ श्रीकृष्ण ने अनेक युद्धों का संचालन करते हुए भी कभी अपनी दिनचर्या का त्याग नहीं किया। अतः वह जीवनपर्यन्त एक महान् अग्निहोत्री, महान् योगी, महान् वैज्ञानिक तथा महान् ब्रह्मचारी बने रहे। 

        लेखक ने पुस्तक के माध्यम से अनेक अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने का भी सफल प्रयास किया है। उदाहरणतः ’श्रीकृष्ण की आत्मा के विषय में धारणा है कि वह क्षीर सागर में निवास करती थी।’ यहाँ लेखक क्षीर सागर को मोक्ष के रूप में व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि क्षीर सागर वह स्थान है जहाँ निरन्तर पवित्रता हो। यहाँ पर जीवात्माएं अपनी ज्ञानन्द्रियों से विभिन्न रसों की अनुभूति करते हुए स्वच्छन्द विचरण करती हैं। ऐसा वह स्थान केवल अन्तरिक्ष ही हो सकता है। जो विशुद्ध है, सीमातीत और सदैव है। श्रीकृष्ण जैसी अनेक आत्माएं वहां से ही ब्रह्मांड की घटनाओं को निहारती रहती हैं।

        भागवत आदि पुस्तकों में भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का घृणित व्याख्यान है। महाभारत में युवा श्रीकृष्ण और उसके बाद के जीवन एवं कार्यों का वर्णन है। इन ग्रन्थों में श्रीकृष्ण का अपूर्ण जीवन मिलता है। किन्तु लेखक ने अपनी विवेकशील लेखनी से भगवान श्रीकृष्ण जी के जन्म से पूर्व की परिस्थितियों से लेकर निर्वाण गमन तक के सम्पूर्ण जीवन को सप्रमाण क्रमबद्ध प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। लेखक ने जहां जैन परम्परा के ग्रन्थों को उद्धृत किया है, वहीं ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी (पूर्वजन्म के श्रृंगी ऋषि) के सुषुप्ति अवस्था में दिए गए प्रवचनों से महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं। 

        लेखक ने श्रीकृष्ण की वंशावली को बड़े पुरुषार्थ तथा प्रामाणिकता से प्रस्तुत कर जहाँ हमारे प्राचीन इतिहास का गौरव बढ़ाया है वहीं श्रीकृष्ण के द्वारा किये अद्भुत कार्यों का प्रभावी ढंग से प्रस्तुतिकरण किया है। ऋषि सांदीपनि के गुरुकुल में विद्याध्ययन, गृहस्थ जीवन तथा युद्धों में रहते हुए भी श्रीकृष्ण की दिनचर्या कैसे नियमित थी, यह केवल इसी पुस्तक में मिलेगा अन्यत्र कहीं नहीं। पुस्तक के पठन में कहीं-कहीं तो पाठक शून्य सी अवस्था में पहुँच जाता है। यथा द्वारिका में यदुकुल का विनाश तथा श्रीकृष्ण का निर्वाण प्रकरण बहुत मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी है। सारांश रूप में कहूँ तो लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित के प्रत्येक प्रकरण को कुशल शिल्पी की भाँति प्रामाणिक तथा प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

       इस पुस्तक को लिखने के लिए लेखक के पुरुषार्थ की प्रशंसा करता हूँ तथा उनके सुन्दर स्वास्थ्य एवं उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। विश्वास हैं कि पाठक ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ को पढक़र भगवान श्रीकृष्ण के जीवन तथा इतिहास पर गर्व करेगा। मेरी इच्छा है कि यह पुस्तक प्रत्येक घर में तथा प्रत्येक युवा एवं विद्यार्थी के हाथ में पहुंचे, जिससे वे श्रीकृष्ण के आदर्श चरित्र को समझकर अपने स्वयं के जीवन को ऊँचा उठा सकें। 

        इस सफल लेखन पर मैं, लेखक श्री कृष्ण कुमार आर्य जी को पुनः हृदय से शुभ आशीर्वाद प्रदान करता हूं।


मंगलाभिलाषी

संत विदेह योगी, महर्षि दयानन्द सेवा सदन, कुरुक्षेत्र, हरियाणा 

                                                                                                                 कृष्ण आर्य


पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ का विमोचन

             






पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ का विमोचन 
हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री नायब सिंह सैनी ने आज पंचकूला में आयोजित तीसरे पुस्तक मेले के उदृघाटन अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण की जीवनी पर आधारित पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ का विमोचन किया। इस पुस्तक का लेखन सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग हरियाणा में कार्यरत जिला सूचना एवं जनसम्पर्क अधिकारी कृष्ण कुमार आर्य ने किया है। मुख्यमंत्री ने इस कार्य के लिए लेखक को बधाई और ऐसी कृति की रचना के लिए शुभकामनाएं दी।            
         उन्होंने मेले में सभी पुस्तक स्टॉलों का निरीक्षण किया। उन्होंने कहा कि पुस्तकें हमारी मार्गदर्शक होती है और अच्छी पुस्तकें तो हमारे जीवन की धारा को भी बदल देती है। इसलिए सभी को पुस्तकों का स्वाध्याय नियमित तौर पर करना चाहिए। उनके साथ पुस्तक मेले के आयोजक एसईआईएए के चेयरमैन श्री पी के दास, कालका की विधायक श्रीमती शक्ति रानी शर्मा सहित अनेक गणमान्य व्यक्ति मौजद थे। लेखक कृष्ण कुमार आर्य ने पुस्तक के विषय में जानकारी देते हुए बताया कि इस पुस्तक मंे श्रीकृष्ण की पूरी जीवनी को लिखा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जीवन का आधार कर्म है और कर्म की सिद्घि केवल कर्तव्य पालन के मार्ग से होकर ही गुजरती है। कर्महीन और कर्त्तव्य विमुख व्यक्ति कभी धर्मात्मा नहीं हो सकता है। उनके इसी उपदेश को श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित नव संकलित पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में सहेजा गया है। 
          भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि 
 ’’न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किश्चन। नान वाप्तम वाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि’’ 
 भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नही है अर्थात् करने योग्य नही है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न ही आवश्यकता है, फिर भी निष्फल भाव से कर्म करता हूँ। इसी को आधार बनाकर लेखक ने इस पुस्तक की रचना की है। 

          आर्य ने बताया कि पुस्तक में श्रीकृष्ण की जीवनशैली को प्रदर्शित करने के लिए विषय-वस्तु को 244 पृष्ठों पर ग्यारह अध्यायों में विभक्त किया गया है। इसमें लगभग 130 मंत्र, श्लोक एवं सूक्तियां तथा पुस्तक को समझने में सहायक आठ आलेख दिए हैं। पुस्तक का पहला अध्याय ‘श्रीकृष्ण की वशांवली’, दूसरे व तीसरे अध्याय में उनके बाल्यकाल की प्रमुख घटनाएं तथा अध्याय चार में गोपी प्रकरण व कंस वध का विवरण दिया है। पुस्तक के पाँचवें अध्याय में श्रीकृष्ण द्वारा महर्षि सांदीपनी एवं अन्य ऋषि आश्रमों में ग्रहण की गई ‘शिक्षाओं तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों’ का वर्णन किया गया है। यह अध्याय अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान तथा सुदर्शन चक्र, सौमधुक, मौनधुक, सौकिक यान एवं सोमतीति रेखा का अन्वेषण श्रीकृष्ण की महानता का परिचय देता हैं। 
          उन्होंने बताया कि इसके छठे अध्याय में ‘द्वारका की अवधारणा’ तथा श्रीकृष्ण की दिनचर्या को प्रदर्शित करने वाला सातवां अध्याय ‘दैनंदिनी विमर्श’ दिया है। पुस्तक के आठवें अध्याय में महाराज युधिष्ठिर के ‘राजसूय में कृष्णनीति’ तथा नौवें अध्याय में ‘श्रीकृष्ण का तात्त्विक संप्रेषण’ पर विस्तार से उल्लेख है। जैसा कि माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण एक उत्कृष्ट एवं प्रभावी वाक्चार्तुय एवं वाक्माधुर्य से धनी थे, जिसका प्रत्यक्ष दर्शन पुस्तक में होगा। इसके साथ ही दसवें अध्याय में ‘जय में श्रीकृष्ण नीति’ तथा अन्तिम ग्यारहवें अध्याय में ‘महां-भारत में श्रीकृष्ण के महां-प्रस्थान’ का वर्णन किया है। 
पुस्तक में श्रीकृष्ण के यौगिक बल, दिव्य उपलब्धियां, उत्कृष्ट वैज्ञानिकता, महान तत्त्ववेत्ता, जनार्दन एवं ब्रह्मवेत्ता के तौर पर परिचय करवाया गया हैं। इसके साथ ही अकल्पनीय श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े अनेक ऐसे तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है, जिनको पढक़र विशेषकर नई पीढ़ी में विशेष आभा का संचार होगा। श्रीकृष्ण के महानिर्वाण की घटना का प्रस्तुतिकरण पाठक को शुन्य की अवस्था में ले जाने वाला है कि किस प्रकार श्रीकृष्ण के सामने ही यदुवंश और उनके पुत्र-पौत्रों की हत्या की गई। परन्तु वे लेशमात्र भी अपने धर्म एवं कर्म से विमुख नही हुए। उनका कहना है कि पुस्तक को पूर्ण करने में लगभग 40 माह का समय लगा। पुस्तक में महाभारत, गर्ग संहिता, वैदिक साहित्य, उपनिषद्, श्रीमद्भगवत गीता तथा जैन साहित्य सहित लगभग दो दर्जन पुस्तकों के संदर्भ सम्मिलित किए गए हैं। पुस्तक सतलुज प्रकाशन द्वारा पंचकूला से प्रकाशित की है। उन्होंने बताया कि पुस्तक का पाँचवा एवं सातवाँ अध्याय अद्भूत है, जो श्रीकृष्ण को भगवान एवं योगेश्वर श्रीकृष्ण होने का परिचय देते हैं तथा इसके बाद के अध्याय श्रीकृष्ण की महानता के दिव्य दर्शन करवाते हैं।

कृष्ण कुमार आर्य 

सूर्य की गति का द्योतक है उगादी


        देश में मनाए जाने वाले त्यौहार भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता के परिचायक हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य की गति और सामाजिक परम्पराओं के आधार पर विभिन्न उत्सव मनाने की व्यवस्था दी है ताकि जीवन सदैव उल्लास से भरा रह सके। “उगादी” उसी भारतीय संस्कृति का संवाहक है, जो भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। 

      यह वह दिन है जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना की थी, जिससे युगों एवं वर्षों का आरम्भ हुआ था। यह दिन सृष्टिक्रम से जुड़ा हुआ है। इसलिए इसको सृष्टिवर्ष भी कहा जाता है। युगों की शुरूआत इसी दिन होने कारण इसे युगादि भी कहा जाता है। इतना ही नही वैदिक सनातन धर्म के अनुसार वर्ष की गणना इसी दिन से आरम्भ होती है, इसलिए भारतवंशी इसे नववर्ष के रूप में मनाते हैं। भारतीय संस्कृति के परिचालक दक्षिण भारत में इस पर्व को युगादि अर्थात ‘उगादि’ के नाम से जाना जाता हैं। यह पर्व चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है, अतः इसे वर्षी प्रतिपदा भी कहा जाता हैं। 

     ऐसी मान्यता है कि ईश्वर ने जिस दिन सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ किया था, उसी दिन को चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा कहा जाने लगा। सृजन का यह कार्य नौ दिन-रातों तक यह निरंतर चलता रहा, इसलिए इन्हें नवरात्र कहा गया। इसी दिन से पूरे देश में नौ दिनों तक नवरात्र मनाए जाते हैं और मातृशक्ति दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। वर्ष 2024 में यह दिन 9 अप्रैल को था। यह वह समय होता है जब बसंत ऋतु अपने यौवन पर होती है। प्रत्येक दिशा में प्रकृति का शोधन होता दिखाई देता है। इन दिनों में सभी पेड़, पौधों एवं झाड़ियों पर रंगबिरंगे फूलों से मन प्रफुल्लित हो उठता है और वातावरण में एक मंद-मंद सुगंध का प्रवाह रहता है। पौधों पर नई-नई पत्तियों तथा फलों का आगमन होता है। प्रकृति का यह मनोहर दृश्य वर्ष में केवल इन्हीं दिनों में दिखाई देता है। 

      हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि ‘पिंडे सो ब्रह्मांडे’ अर्थात् जो हमारे पिंड यानि शरीर में है] वही ब्रह्मांड में है तथा जो ब्रह्मांड में है] वही हमारे शरीर में है। प्रकृति की भांति प्राणियों के शरीरों में भी नवरक्त और नवरसों का संचार होता है। इसलिए इस समय को नवरस काल कहा जाता है। हरियाणा में इसे न्यौसर कहते हैं। इस समय शरीर में बहने वाली नई ऊर्जा से मन उत्साह और उल्लास से भर जाता है। इस दौरान श्रद्धालु माता दुर्गा के अष्टरुपों की उपासना करते हैं और उपवास रखते हैं, जिससे हमारा शरीर निरोग एवं शुद्ध होता है। 

     युगादि सृष्टि सृजन का वह दिन है] जिसको देश में विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश] तेलंगाना] कर्नाटक] महाराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों में इसे युगादि अर्थात उगादी के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत के पंजाब] हरियाणा] दिल्ली सहित कई राज्यों में इसे नवरात्र एवं बैशाखी भी कहते हैं। इसी समय नई फसल के आगमन पर घरों में खुशियों का माहौल होता हैं। विभिन्न प्रदेशों में जहां इस पर्व को अलग-अलग ढंग से मनाते हैं] वहीं उनके खाने का शौक भी भिन्न होता है। दक्षिण भारतीय राज्यों में श्रद्धालु पच्चडी का सेवन करते हैं। पच्चडी को कच्चा नीम] आम के फूल] गुड] इमली] नमक और मिर्च के मेल से बनाया जाता है। वहीं उत्तर क्षेत्र में नवरात्रों पर फलाहार] शामक] साबुधाना की खीर खाते है। बैशाखी पर हलवा एवं रंगीन मीठे चावलों का भोग लगाया जाता है। 

      भारतीय नववर्ष एवं नवसंवत्सर का ऐतिहासिक महत्व भी है हमारे तपस्वी पूर्वजों ने इस दिन की प्राकृतिक महत्ता को समझते हुए, इसे हमारे सांस्कृतिक पन्नों में जोड़ा है ताकि हमारी भावी पीढ़ियां इसे जीवन का अंग बना सके। सत्य सनातन वैदिक शास्त्रों के अनुसार सृष्टि की रचना 1960853125 वर्ष पूर्व भारत की इसी धरा पर हुई थी। इसके पश्चात से ही निरंतर सृष्टिक्रम चलता रहा है। विभिन्न कालखंडों में अनेक यशस्वी राजाओं और महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है। उन्होंने लोगों के जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए अपनी संस्कृति के प्रसार हेतु अनेक प्रयास किए। इस दिन के महत्व को समझते हुए भगवान श्रीराम ने लगभग 9 लाख वर्ष पूर्व लंका विजय के उपरांत चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अयोध्या का राज सिंहासन ग्रहण किया था। महाभारत युद्ध के उपरांत युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। महाभारत काल के बाद देश में महान एवं तपस्वी राजा वीर विक्रमादित्य हुए हैं] उनका राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हुआ था। 

     देश के इस महान सपूत एवं प्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य के नाम से आरम्भ हुए वर्ष को विक्रमी सम्वत कहा जाता है, जिसे 9 अप्रैल को आरम्भ हुए 2081 वर्ष हो गए हैं। कलियुग का आगमन भी चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही 5125 वर्ष पूर्व ही हुआ था। महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। इस तरह उगादी हमारे देश का महान और सृष्टि सृजन का त्यौहार है। परन्तु आज हम अपनी प्राचीन संस्कृति और मान्यताओं को भूल गए हैं, जिसके कारण हमारे आचार] विचार और व्यवहार में परिवर्तन हुआ है। भारतीय समाज और जनमानस के लिए यह विचारणीय है। 
     अंत में मैं यही कहना चाहूंगा कि--- 

मंद-मंद धरती मुस्काए, मंद-मंद बहे सुगंध। 
ऐसा ‘उगादी’ त्यौहार हमारा, सबके हो चित प्रसन्न।। 

 जयहिन्द

 कृष्ण आर्य

हिन्दी दिवस