वो है !

वो है ! 
वो है
जिसे देखा नही है,
वो भी है
जिसे जानते भी नही है,
पर वो भी है
जिसे देखा भी है, जिसे जानते भी है
परन्तु मानते नही है।
वो क्या है ?

वो है
जो सुक्ष्म है,
वो भी है
जो स्थूल भी है,
पर वो भी है,
जो न सुक्ष्म है और स्थूल भी नही है,
परन्तु जो सबका कारण है।
वो क्या है ?

वो है
जो समिधा है,
वो भी है
जो अग्नि भी है,
पर वो भी है
जो न समिधा है और अग्नि भी नही है,
परन्तु जो जलाए रखता है।
वो क्या है ?

वो है
जो मन से है,
वो भी है
जो वचन से भी है,
पर वो भी है
जो मन का नही, वचन का भी नही है,
परन्तु जीवन का आधार है।
वो क्या है ?
वो कृष्ण है, वो कर्म है!


                                कृष्ण कुमार ‘आर्य’





मैं कवि हूं?

मैं कवि हूं?

इसने बोला, उसने बोला,
सबने बोला, मैं कवि हूं।
इधर-उधर मैं देखता जाऊ,
शब्द मिले तो लिखता जाऊ।
नकल करूं तो थप्पड़ खाऊ,
फिर भी मैं कवि कहलाऊं॥
जन्म पर मैं शौक सुनाऊं,
मौत पर जब मंगल गाऊं।
चढ़े घोड़ी नगाड़ा बजाऊं,
जाने फिर मैं कवि कहलाऊं॥ 
          जब खाने में बदबू बताऊ,
          और पाखाने में महक सुनाऊं ।
          नहाने पर मैं शोर मचाऊं,
          फिर भी मैं कवि कहलाऊं॥
काम समय मैं गीत सुनाऊं,
बस सेल्टर पर भंगड़ा पाऊ।
कुछ भी करूं तो देखत जाऊं,
ताकि मैं फिर कवि कहलाऊं॥
          कहत कृष्ण, वह कहता हैं,
          सब कहते हैं कि मैं कवि हूं।


                                                          कृष्ण कुमार ‘आर्य’

मै अकेला हूं !


          मै अकेला हूं !
          पर ये कैसे समझू,
          कि मै अकेला हूं !
माता की गर्भारी में,
पिता की समझदारी में,
और दादा की दुलारी में,
मैं अकेला हूं।
शहर की बाजारी में,
फूलों की बगियारी में,
और बीवी की बुखारी में,
मैं अकेला हूं।
शियारों की यारी में,
औरतों की पंचायरी में,
और सड़क पर सवारी में,
मैं अकेला हूं।
खटिया पर बीमारी में,
परेशानी व लाचारी में,
और शमसान की अगियारी में,
मैं अकेला हूं॥ 



                                                                                      कृष्ण कुमार ‘आर्य’

Krishana: मै अकेला हूं !

Krishana: मै अकेला हूं !

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