‘चौकीदार !



                    ‘तूं हमारा चौकीदार है!

 

जिन्दगी की राह में, फूल सी डगर है।

भावना के आहार में, प्यार सा विहार है।

तूं ऐसा एक यार है, जो हमारा चौकीदार है॥

          जन-जन का जो, धन से उभार है।

          रात्री पहर में ही, भ्रष्टों पर प्रहार है। 

          ऐसा तू कलाकार है, जो हमारा चौकीदार है॥

भूत पर भूत सा, करारा एक वार है।

दवाओं की दुआओं से, आयुष्मान परिवार है।

तेरा अंदाज शानदार है, तूं हमारा चौकीदार है॥

शांति से विश्व में, बढ़ाया बड़ा प्यार है।

दुष्ट दलन में जिनका,   श्रीराम सा प्रहार है।

धूल में मिला दे जो, वो हमारा चौकीदार है॥

जल, थल, नभ संग, दुश्मन पर निहार है।

अंतरिक्ष में भी यदि कोई, कर रहा गुप्तचार है।

पहचान तक मिटा दे जो, वो हमारा चौकीदार है॥

          वो हमारा चौकीदार है, तु हमारा चौकीदार है।

 

                                                कृष्ण कुमार ‘आर्य’

फूल


फूल




मैने आज एक फूल को
फूल तोड़ते हुए देखा,
एक हाथ में फूल, दूसरे में टोकरी लिए
          समीर में फूल झूलते हुए देखा॥
पीछे वनीहारी थी, आगे फुलवारी थी,
          मदमस्त पवन सहज सा,
मंद गंद हवाओं में, अश्व को घूरते हुए देखा॥
          गले में हार सा पीला गुलूबंद लिए,
नागिन से केस उस पर गिरे,
          हार से चाह को हारते हुए देखा॥
पीछे जंगल, आगे मंगल फूल सा,
          पर फूलों में ऐसा फूल नही,
जो पहले कभी, फूल को निहारते हुए देखा॥
          फूल लपकने को जब नजर घुमाई मैंने,
हाथ में केवल डंठल, ताकते हुए देखा,
          आज फूल को मैंने फूल ताकते हुए देखा।


 कृष्ण कुमार ‘आर्य’


वो है !

वो है ! 
वो है
जिसे देखा नही है,
वो भी है
जिसे जानते भी नही है,
पर वो भी है
जिसे देखा भी है, जिसे जानते भी है
परन्तु मानते नही है।
वो क्या है ?

वो है
जो सुक्ष्म है,
वो भी है
जो स्थूल भी है,
पर वो भी है,
जो न सुक्ष्म है और स्थूल भी नही है,
परन्तु जो सबका कारण है।
वो क्या है ?

वो है
जो समिधा है,
वो भी है
जो अग्नि भी है,
पर वो भी है
जो न समिधा है और अग्नि भी नही है,
परन्तु जो जलाए रखता है।
वो क्या है ?

वो है
जो मन से है,
वो भी है
जो वचन से भी है,
पर वो भी है
जो मन का नही, वचन का भी नही है,
परन्तु जीवन का आधार है।
वो क्या है ?
वो कृष्ण है, वो कर्म है!


                                कृष्ण कुमार ‘आर्य’





मैं कवि हूं?

मैं कवि हूं?

इसने बोला, उसने बोला,
सबने बोला, मैं कवि हूं।
इधर-उधर मैं देखता जाऊ,
शब्द मिले तो लिखता जाऊ।
नकल करूं तो थप्पड़ खाऊ,
फिर भी मैं कवि कहलाऊं॥
जन्म पर मैं शौक सुनाऊं,
मौत पर जब मंगल गाऊं।
चढ़े घोड़ी नगाड़ा बजाऊं,
जाने फिर मैं कवि कहलाऊं॥ 
          जब खाने में बदबू बताऊ,
          और पाखाने में महक सुनाऊं ।
          नहाने पर मैं शोर मचाऊं,
          फिर भी मैं कवि कहलाऊं॥
काम समय मैं गीत सुनाऊं,
बस सेल्टर पर भंगड़ा पाऊ।
कुछ भी करूं तो देखत जाऊं,
ताकि मैं फिर कवि कहलाऊं॥
          कहत कृष्ण, वह कहता हैं,
          सब कहते हैं कि मैं कवि हूं।


                                                          कृष्ण कुमार ‘आर्य’

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