मंगलवार, 29 अप्रैल 2014


आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए। 
इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।
वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ अंश - 
1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।
2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों को स्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।
3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।
4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।

5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।

6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।

7. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।
8. ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे विद्या ग्रहण करें। राजा का कर्तव्य है कि वे सैनिकों द्वारा अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों का कर्तव्य है कि वे व्यापार द्वारा धन बढ़ाएँ, शूद्रों का कर्तव्य श्रेष्ठ लोगों की सेवा करना है।
9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।
10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।
11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।
12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।
13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।
14. चाणक्य कहते है कि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।
चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।
15. चाणक्य के अनुसार नदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।
17. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।
18. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।
19. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
                                                  साभ्‍ाारः चाण्‍ाक्‍य नीति                                                                                                                                                                                                           कृष्ण कुमार ‘आर्य’


सोमवार, 31 मार्च 2014

                                      HAPPY NEW YEAR 

                            (NEW SAMVAT 2071)


सोमवार, 5 अगस्त 2013

हे दीप !

                                      हे दीप !


                                  हे दीप, प्रज्ज्वलित हो !
चमक जो अपार हो
रोशनी का आगाज हो,
निशा भी भ्रमित हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
        शाम का धुधंलका हो,       
        रेत का गुब्बार हो,
        पशुओं की हुंकार हो,
        हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
सुबह का सवेरा हो,
खुशियों का बसेरा हो,
जीवन में ना अंधेरा हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
        सुर्य जीवन ना आधार हो,
चित में जो अहंकार हो,
अज्ञान का व्यवहार हो,
        हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
दुःखों का यदि अम्बार हो,
हर मेहनत बेकार हो,
कृष्ण सा भ्रमजाल हो
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
        वृद्घों का अनादर हो,
मूर्खों का सम्मान हो
शांत जब संस्कार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
दुर्गुणों की भरमार हो,
कर्कस शरीर यार हो,
तेज जब निश्तेज हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
        जीवन डगर का अंत हो,
        सांसों की डोर जब्त हो,
        अन्तिम जब संस्कार हो,
        हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।                     

                                           कृष्ण कुमार ‘आर्य’

रविवार, 17 मार्च 2013

चुप रहता हूं !

                                  चुप रहता हूं !                

ना मैं डरता हूं
ना कुछ कहता हूं
दूसरों का आदर करता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
        मां मुझे जब दुलारती हैं
        सपनों में रस भर डालती हैं
        पर पिता की शर्म करता हूं
        इसी लिए चुप रहता हूं।
स्कूल में मैं पढता हूं
सीखने की हठ करता हूं
पर गलत उत्तर से डरता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
            भाभी मेरी अति शालीन है
        नही करती कपड़े ‌मलीन हैं
        उनकी हरकतों से विचलता हूं
        इसी लिए चुप रहता हूं।
बीवी बड़ी हठिली है
जुबां से कटिली है
पर दिल से प्रेम करता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
        बच्चे मन के अच्छे हैं
        पर संस्कारों के कच्चे हैं
        उनका स्ववध कैसे सह सकता हूं
        इसी लिए चुप रहता हूं।
बेटी है घर-आंगन मोरे
देखता हूं हर सुबह-सवेरे
पर-बेटों से डरता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।

वो कसते हैं ताने मुझको
जो दिखते है समझदार तुझको
किसी को बेईजत नही करता हूं
इसी लिए मैं चुप रहता हूं।
ऑफिस के है साहब बड़े
काम से है नाम बड़े
उनकी समझ पर तरस करता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
       कृष्ण ना मैं डरता हूं
        ना कुछ समझता हूं
        पर चापलूसी जब करता हूं
        तभी मैं बोल पड़ता हूं !
तभी मैं बोल पड़ता हूं !
                         कृष्ण कुमार ‘आर्य’     


                                           




बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

केसरी


                                 केसरी

                     
   आर्यों की शान है,
   गगन में पहचान है,
   देश पर बलिदान है,
   यही तो वह केसरिया निशान है।
         
   जो अस्त नही हो वह त्रिकाल है,
   पर अस्त होना संध्या काल है,
   उदय होना प्रातः काल है,
   तभी तो वह केसरी निशान है।
         
          हवा की जो चाल है,
          मेघ भेद जल जाल है,
          अग्नि की ज्वाल है,
          वह भी केसरी निशान है।

देख इसका जोशिला रंग,
ज्वाला से डोले हर अंग,
जो भंग करता शत्रु का मान,
वही तो है केसरिया निशान।

यह क्षत्रियों का सुहाग है,
वीरों की तप्त आग है,
दावानल सी उड़ान है,
यही तो केसरियां निशान है।

वेदमंत्र है धडकन इसकी,
शक्तितंत्र है ताकत जिसकी,
उपनिषदों की यह तान है,
यही वह केस‌रिया निशान है।

          रंगों की है जान यह,
          प्यार की है पहचान यह,
          रंग यही हमारी शान है,
          तभी तो यह केसरी निशान है।
         
          सुरज की लालिमा है यह,
          फूलों सी कलियां है यह,
          कृष्ण यही तेरी पहचान है,
          आर्यों का केसरी निशान है।
०००

                     

                          कृष्ण कुमार ‘आर्य’

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण !


क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण !


भारत की देव भूमि पर अनेक ऋषि-मुनि तथा महापुरूष समय-समय पर जन्म लेते रहे हैं। इस धरती को जहां राम, कृष्ण तथा हनुमान जैसे मनीषी वीरों ने अलंकृत किया है वहीं रावण तथा कंस जैसे दुराचारियों ने सामाजिक मर्यादाओं को तार-तार भी किया है। राम ने अपने मर्यादित जीवन तथा कृष्ण ने गीता उपदेश से जहां समाज को बंधनमुक्त करने का कार्य किया वहीं रावण और कंस जैसे दुष्टों ने अपनी दुष्टता से समाज को बंदी बनाने में भी कमी नही छोड़ी। इसलिए त्योहारों के अवसर पर हम भी उन महापुरूषों के गुणों को धारण करने और अवगुणों को छोड़ने की शिक्षा देते रहते हैं।
समाज के उपकार के लिए ही हम इस प्रकार के कार्य करते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन मधुर हो सकें परन्तु हमें इस बात का जरा सा भी ईलम नही है कि क्या हम इतनी योग्यता रखते हैं? जिससे भोले-भाले लोगों का सही मार्गदर्शन कर सकें या क्या हम उस ज्ञान को रखते है? जिसे दूसरे लोगों के लाभ के लिए बांटना चाहते हैं या वह शिक्षा हमारी पथप्रदर्शक है? जिसकी सहायता से हम समाज को बदलने की कामना रखते हैं या हमारा आचरण उसी स्तर का है? जैसा हम दूसरों को बनने का उपदेश करते हैं अर्थात क्या हम वो कृष्ण है, जिसने अधर्मियों को सजा देकर एक महा-न-भारत की स्थापना की थी या फिर वह राम हैं, जिसने रावण जैसे आतताई से छुटकारा दिला कर जीवन में आदर्शों का पुनः उत्थान किया था।
इन सभी सवालों का जवाब यदि नही है! तो फिर क्यूं हम उन भोले भाले लोगों को दिग्भ्रमित कर स्वयं तथा समाज को दोखा दे रहे हैं; क्यों उस झूठी शिक्षा का प्रचार कर रहे हैं, जो हमारा भी उपकार करने में सक्षम नही है तथा क्यों उस रावण के वध करने का नाटक कर रहे हैं; जोकि हर वर्ष फिर पैदा हो जाता है और लोंगों को फिर से उसे जलाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। काश! हम अपने आचरण से समाज को बदलने का जज्बा रखते, जिससे समाज में व्यवहारिक बदलाव दिखाई दे सकता। परन्तु अपने आचारण के विपरित कर्म करके हम कहीं समाज में बुराईयों को बढावा तो नही दे रहे है या उस पाखंड की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जो हमें अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहा है। क्या? हम रावण की उन राक्षसी वृतियों का प्रचार-प्रसार तो नही कर रहे, जो कि हर वर्ष रामलिला के मंच से दिखाई जाती है। इन सभी बातों का जवाब हमें ढूंढना होगा और यह पता लगाना होगा कि वह रावण! जिसको अपमानित करके हर वर्ष जलाते है, वह फिर दोबारा जन्म कैसे ले लेता है?
रावण को सिर्फ व्यक्ति ही नही बल्कि बुराइयों का प्रतिक भी माना जाता है। ये बुराइयां ऐसी हैं, जो समाज को घुन की तरह खाये जा रही है। ऐसी बुराईयां हैं, जिनके कारण समाज तथा राजतंत्र को लकवा मार रहा है, इन्हीं बुराईयों के कारण ही आज समाज में बहन और बेटियों को सम्मानित जीवन जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है। हर वर्ष रावण को जलाने वाले राम की संख्यां लाखों होते हुए भी हर वर्ष लाखों सीता माता जैसी देवियों की इज्जत तार-तार की जाती है, हजारों कन्याएं अपने सतीत्व की रक्षा करने में असमर्थ होकर आत्महत्या कर लेती है परन्तु उन्हें अपने आंसू पौछने वाला कोई राम नही मिलता।
राम के चरित्र को दर्शाने के लिए देशभर में हजारों मन्दिर बनाये गए है परन्तु उन्हीं दक्षिण के मन्दिरों में तथाकथित लाखों देवदासियां बेबसी, लाचारी तथा असहाय होकर रावण वृतिक अनेक पुजारियों की वासना का शिकार बनती आ रही है। हालांकि विभिन्न मत तथा सम्प्रदाय इस प्रकार की बातों को स्वीकार नही करते परन्तु कुछ तो हो ही रहा है। मध्यकालिन युग से शुरू हुई इस प्रथा में सूले, भोगम या सानी जैसे नामों से जाना जाता था, जिसका अर्थ धार्मिक वेश्या ही होता है।  
भाईयों! यह रावण हम सबके बीच में रहता है, हम हर रोज इससे दुआ-स्लाम करते है परन्तु कभी पहचान नही पाते। इसी कारण आज समाज में इस प्रकार की अस्थिरता का माहौल पैदा हो रहा है। यह रावण कोई ओर नही बल्कि केवल हमारा आचरण है, हमारी वासना और वे सभी दुष्वृत्तियां है, जिसने समाज की रीढ़ को तोड़ दिया है। यह रावण हमारे विचार है तथा हमारी उच्च-नीच भेद की मानसिकता है जो समाज को संगठित होने से रोक रही है। इन बुराईयों को मिटाने के लिए रामलीला में पर्दे के पीछे वाले राम की नही बल्कि सदाचारी, सहनशील तथा दूसरों की बहन-बेटियों को अपनी बहन-बेटियां से समान समझने और स्वीकार करने वाले राम की आवश्यकता है।
आज बड़े-बड़े नेता, मंत्री तथा उद्योगपति रामलीलाओं का उद्घाटन करते है, रामलीलाओं के मंचों से रावण, मेघनाथ तथा कुम्भकरण के पुतलों को आग लगाते है। परन्तु क्या इनको पता है कि राम के बाण और हनुमान की गद्दा केवल दुष्टों को दंड देने के लिए ही उठती थी। उनका बल असहाय, गरीब तथा सदाचारी, ईमानदार और योग्य लोगों की रक्षा और सुरक्षा के लिए प्रयोग होता था; व्यभिचारी, ढोंगी, बहरूपियों तथा कदाचिरों के बचाव में षडयंत्र रचने के लिए नही। आज के मंचनकर्ताओं को इस बात का अहसास होना चाहिए कि राम एक आदर्श पुत्र, सदाचारी, देश प्रेमी, हर प्रकार के नशों से दूर तथा सम्पूर्ण प्रजापालक श्रेष्ठ राजा थे तथा देश की बहन-बेटियों की आबरू की रक्षा के लिए स्वयं का जीवन आहूत करने के लिए तैयार रहने वाले महापुरूष थे।
दशहरे के पावन पर्व पर समाज के सभी वर्गों को चाहिए कि राम के जीवन को अपनाते हुए रावण जैसी दुष्वृत्तियों का नाश करें। राम के आदर्शों को अपनाते हुए समस्त बुराईयों पर विजय पताका फहराएं। राम की शिक्षाओं, आचार-विचार, व्यवहार तथा ब्रह्मचर्य जैसे अमोघ राम बाणों को अपना कर देश में राम राज्य लाने के लिए प्रयत्न करें, जिसमें न कोई चोर हो, न भूखा, न बिमार तथा न ही व्यभिचारी पुरूष हों। जब व्यभिचारी पुरूष नही होगा तो व्यभिचारिणी स्त्री स्वतः ही नही होगी और समाज कुदंन बन जाएगा। इससे समाज को नई दिशा, चेतना और जागृति मिल सकेगी औरदेश में कोई भी अहंकारी, दम्भी, द्वेषी, कपटी तथा धोखेबाज न रह सके।
यदि हम ऐसा करने में सफल होते है तो हमारी धरती से रावण जैसा भूत हमेशा हमेशा के लिए मिट जाएगा। इससे हमें बार-बार रावण को जलाना नही पडेगा अन्यथा वही रावण फिर हर वर्ष जन्म लेगा, बढे़गा तथा संसार को अंधकार और व्यभिचार की गर्त में धकेलता रहेगा और उस नकली रावण को मारने के लिए नकली राम बनते रहेंगे तथा समस्या जस की तस बनी रहेगी। हर वर्ष हम उसे मारने के लिए कागज के पुतले जलाते रहेंगे। इससे केवल पैसे की बर्बादी और प्रदूषण बढ़ने के सिवाय कुछ भी हमारे हाथ नही लेगेगा और हमें हर बार यह सोचना नही पड़ेगा कि ‘क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण
                           
                                           कृष्ण कुमार ‘आर्य




मैं आदमी हूँ!