हे दीप, प्रज्ज्वलित हो !
चमक जो अपार हो
रोशनी का आगाज हो,
निशा भी भ्रमित हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
शाम का धुधंलका हो,
रेत का गुब्बार हो,
पशुओं की हुंकार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
सुबह का सवेरा
हो,
खुशियों का
बसेरा हो,
जीवन में ना
अंधेरा हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
सुर्य जीवन ना आधार हो,
चित में जो अहंकार हो,
अज्ञान का व्यवहार हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
दुःखों का यदि अम्बार हो,
हर मेहनत बेकार हो,
कृष्ण सा भ्रमजाल हो
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
वृद्घों का
अनादर हो,
मूर्खों का सम्मान हो
शांत जब संस्कार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
दुर्गुणों की भरमार हो,
कर्कस शरीर यार हो,
तेज जब निश्तेज हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
जीवन डगर का
अंत हो,
सांसों की
डोर जब्त हो,
अन्तिम जब
संस्कार हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’