दोहे
कृष्णा तेरी झोपड़ी, गहन समुद्र पार।
जाएगा सो पाएगा, मोती धो दो-चार।।
चलती धरती देखकर, कृष्णा यूं पछताए।
रात भर सोते रहे, सुबह वहीं मिल जाए।।
आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो।
परसो भी हम क्यू करें, जब आयेगा दिन तरसो।।
जल्दी-जल्दी रे मित्रा, जल्दी कुछ ना होये।
जो तुम जल्दी करें, तो पास रहे ना कोये।।
प्रभू वो सब दीजिए, जिसमें जगत समाये।
पडोसी पे कुछ हो यदि, वो मेरे पास आ जाये।।
कृष्णा खडा दिवार पर, ना करे किसी से बैर।
पर है सभी से दोस्ती, ना मनाऊ किसी की खैर।।
पतरे पढ-पढ़ जग में, पंड़ित सब जन होये।
मैं क्यू पंड़ित तब बनू, जेब काटे हर कोये।।
ईंट पत्थर जोड़ कर, घर लिया हमने बनाये।
वृद्ध हुए मां-बाप तो, उनको दिया भगाये।।
बात करो जो साधु की, उसके पिता ना कोये।
ऊपर उठे जब साधु यदि, तो पिता सामने होये।।
पानी में बर्फ रहती, तारों में करंट बहता।
ऐसे ही तू समझ ले, अन्दर तेरे ही प्रभू रहता।।
अच्छा ढूढंन मैं चला, अच्छा मिला ना कोये।
जो मैंने खोजा स्वयं को, तो मुझसे अच्छा ना कोये।।
कृष्ण आर्य
आज की परिस्थितियों के आधार पर ये दोहे कबीर जयंती के अवसर पर लिखे गए है।