'कुल्हिया में हाथी'... एक विचार-जरा सोचिये, सृष्टि संवत --1972949125, कलियुगाब्द---5125, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा- विक्रमी संवत-2081
हे दीप !
हे दीप, प्रज्ज्वलित हो !
चमक जो अपार हो
रोशनी का आगाज हो,
निशा भी भ्रमित हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
शाम का धुधंलका हो,
रेत का गुब्बार हो,
पशुओं की हुंकार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
सुबह का सवेरा
हो,
खुशियों का
बसेरा हो,
जीवन में ना
अंधेरा हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
सुर्य जीवन ना आधार हो,
चित में जो अहंकार हो,
अज्ञान का व्यवहार हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
दुःखों का यदि अम्बार हो,
हर मेहनत बेकार हो,
कृष्ण सा भ्रमजाल हो
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
वृद्घों का
अनादर हो,
मूर्खों का सम्मान हो
शांत जब संस्कार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
दुर्गुणों की भरमार हो,
कर्कस शरीर यार हो,
तेज जब निश्तेज हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
जीवन डगर का
अंत हो,
सांसों की
डोर जब्त हो,
अन्तिम जब
संस्कार हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
चुप रहता हूं !
चुप रहता हूं !
ना
मैं डरता हूं
ना
कुछ कहता हूं
दूसरों
का आदर करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
मां
मुझे जब दुलारती हैं
सपनों
में रस भर डालती हैं
पर
पिता की शर्म करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
स्कूल
में मैं पढता हूं
सीखने
की हठ करता हूं
पर
गलत उत्तर से डरता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
भाभी
मेरी अति शालीन है
नही करती कपड़े मलीन हैं
उनकी हरकतों से विचलता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
बीवी
बड़ी हठिली है
जुबां
से कटिली है
पर
दिल से प्रेम करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
बच्चे मन के अच्छे हैं
पर
संस्कारों के कच्चे हैं
उनका
स्ववध कैसे सह सकता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
बेटी है घर-आंगन मोरे
देखता हूं हर सुबह-सवेरे
पर-बेटों से डरता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
वो कसते हैं ताने मुझको
जो दिखते है समझदार तुझको
किसी को बेईजत नही करता हूं
इसी लिए मैं चुप रहता हूं।
ऑफिस
के है साहब बड़े
काम
से है नाम बड़े
उनकी
समझ पर तरस करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
कृष्ण ना मैं डरता हूं
ना कुछ समझता हूं
पर चापलूसी जब करता हूं
तभी मैं बोल पड़ता हूं !
तभी
मैं बोल पड़ता हूं !
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
केसरी
केसरी
आर्यों
की शान है,
गगन में पहचान है,
देश पर बलिदान है,
यही तो वह केसरिया
निशान है।
जो अस्त नही हो वह त्रिकाल है,
पर अस्त होना संध्या
काल है,
उदय होना प्रातः
काल है,
तभी तो वह केसरी
निशान है।
हवा की जो चाल है,
मेघ भेद जल जाल है,
अग्नि की ज्वाल है,
वह भी केसरी निशान है।
देख इसका जोशिला
रंग,
ज्वाला से डोले
हर अंग,
जो भंग करता
शत्रु का मान,
वही तो है केसरिया
निशान।
यह क्षत्रियों का सुहाग है,
वीरों की तप्त आग है,
दावानल सी उड़ान है,
यही तो केसरियां निशान है।
वेदमंत्र है धडकन इसकी,
शक्तितंत्र है ताकत जिसकी,
उपनिषदों की यह तान है,
यही वह केसरिया निशान है।
रंगों की है जान
यह,
प्यार की है पहचान यह,
रंग यही हमारी शान है,
तभी तो यह केसरी निशान है।
सुरज की लालिमा है यह,
फूलों
सी कलियां है यह,
कृष्ण
यही तेरी पहचान है,
आर्यों
का केसरी निशान है।
०००
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
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