ग्लोबलवार्मिंग

  एक खतरा 
                                                            
         प्रकृति में प्रत्येक जीव एवं वस्तु उपयोगी होती है। ये सभी एक दूसरे पर निर्भर रहती है। वनस्पति जगत, पशु जगत और प्राकृतिक सम्पदाएं आपस में सहयोगी है। प्रकृति का हर एक क्रियाकलाप एक व्यवस्था में बंधा हुआ दिखाई देता है। सूर्य तथा चन्द्रमा का समय पर उदय व अस्त होना एक नियमानुसार है। पेड़-पौधे समय पर फल व फूल विसर्जित करते हैं। मनुष्य इनका प्रयोग अपने आहार के लिए करता है। सुअर, मुर्गें, चील, कव्वे तथा अन्य जीव मानव के खानपान से बनने वाले अपशिष्ट पदार्थों का भक्षण कर अपने जीवन को चलाते हैं। मानव शरीर से उत्सर्जित होने वाली कार्बनडाईआक्साईड जैसी हानिकारक गैसों को पेड़-पौधे अपने भोजन के रूप में प्रयोग कर पर्यावरण का शोधन करते हैं। इससे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है।
      आज कल मानवमात्र द्वारा किए गए क्रिया-कलापों से वायुमंडलीय ढ़ाचा बिगड़ रहा है। गाड़ियों का धुआं, जीवाश्मों का दहन, कारखानों व फैक्ट्रियों का कचरा, पेडों की कटाई, जीवों द्वारा प्रतिक्षण लिए जा रहे श्वास-प्रश्वास तथा त्यागे जा रहे अपशिष्ट पदार्थों की दुर्गन्ध से वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड़ गैस की मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड़ गैस के परिणामस्वरूप वायुमंडल का तापमान में हरपल वृद्घि हो रही है। इसी वायुमंडलीय ताप की बढोतरी को ग्लोबलवार्मिंग कहा जाता है।
         पृथ्वी के चारों ओर करीब 40 किलोमीटर की ऊंचाई तक गैस का एक आवरण होता है, जिसे वायुमंडल कहते है। इसमें नाईट्रोजन, आक्सीजन, कार्बनडाईआक्साईड, कार्बनमोनोआक्साईड, नाईट्रोजनडाईआक्साईड, धूलीकण तथा जलकण सहित अनेक गैसें पाई जाती है। वायुमंडल में आक्सीजन 21 प्रतिशत, नाईट्रोजन 78 प्रतिशत तथा शेष अन्य गैसें 1 प्रतिशत होती है। इसमें कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा 0.033 फीसदी होती है। परन्तु उक्त कारणों से वायुमंडल में प्रत्येक क्षण कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा बढ़ रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार गत 100 वर्षों में करीब 36 हजार करोड़ टन कार्बनडाईआक्साईड गैस जीवाश्म ईन्धनों के दहन, कृषि एवं अन्य कार्यों से उत्पन्न हुई है। इसके परिणामस्वरूप वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड गैस मी मात्रा में करीब 13 फीसदी बढोतरी हुई है।
          पृथ्वी की सतह के चारों ओर लगभग 16 से 23 किलोमीटर की ऊंचाई पर एक रक्षात्मक गैस का आवरण होता है, जिसे ओजोन (o3) परत कहते है। ओजोन की यह परत पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह परत सूर्य द्वारा उत्सर्जित हानिकारक पराबैंगनी (ultra violet) किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी तक नही पहुंचने देती। ये किरणें चरम रोगों को बढ़ावा देती है। ओजोन परत से प्राणीमात्र सूर्य की हानिकारक किरणों के कुप्रभाव से बचा रहता है। सूर्य से निकलने वाले प्रकाश का एक भाग वायुमंडल को गर्म करता है, जिसे अवरक्त प्रकाश (infra red) कहते है। सामान्य परिस्थितियों में यह प्रकाश पृथ्वी से टकराकर परावर्तित हो जाता है परन्तु पर्यावरण में बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा इसे वापिस न भेज कर सोख लेती है। इसके कारण वायुमंडल गर्म हो जाता है, जिसको ग्रीन हाऊस प्रभाव कहते है। यह वायुमंडल का तापमान बढाने का कारण बनता है।
          पहले बुजुर्ग लोग सूर्य, चांद व तारों की परिस्थितियों से मौसम बदलने का अनुमान लगा लेते थे, जोकि आज सम्भव नही लगता है। आज बढ़ते ‘ग्रीन हाऊस प्रभाव’ के कारण वस्तुस्थिती बदल चुकी है। हरे पौधे व महासागर भी बढ़ती हुई कार्बनडाईआक्साईड गैस का पूर्ण उपयोग कर वायुमंडल को संतुलित नही कर पा रहे। हरे पौधे जहां कार्बनडाईआक्साईड गैस को लेकर इसके बदले ‘प्राणवायु आक्सीजन’ छोड़ते हैं वहीं महासागर भी कार्बनडाईआक्साईड गैस को कार्बोनेटों में बदल देते हैं। इसके बावजूद भी कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा में 0.04 प्रतिशत वार्षिक वृद्घि दर्ज की जा रही है। इसके चलते गत करीब 40 वर्षों के दौरान वायुमंडलीय ताप में करीब 1.5 डिग्री सैल्सियस से 4.8 डिग्री सैल्सियस तक की वृद्घि दर्ज की गई है।
           प्राचीन काल में जीवाश्म इन्धन की अपेक्षा सूर्य को ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत के तौर पर प्रयोग किया जाता था। आजकल जीवाश्म इन्धनों का परिवहन से 42 प्रतिशत, औद्योगिक क्रिया क्लापों से 14 प्रतिशत, ईन्धन के दहन से 21 प्रतिशत, जंगलों की आग से 8 प्रतिशत, अपशिष्ट पदार्थों से 5 प्रतिशत तथा अन्य साधनों से 10 प्रतिशत प्रदूषण फैल रहा है। इसके परिणामस्वरूप मौसम के बदलते मिजात के कारण वर्षा की अनिश्तिता तथा ग्लेशियरों का पिघलना लगातार बढ़ रहा है। एक रिर्पोट के आधार पर हिमालय के गढवाल क्षेत्र के लिए ढोकरियनी बारनाक ग्लेशियर 66 फुट तथा गंगोत्री हिमखंड 98 फुट की दर से हर वर्ष पिघल रहे है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के गिरिराज में 539 फुट, गंगोत्री में 175.2 फुट, पिंडार में 283.5 फुट तथा असम के पहाडों के ग्लेशियर 167 फुट प्रतिवर्ष की गति से पिघल रहे हैं।

          ग्रीन हाऊस प्रभाव ही ग्लोबलवार्मिंग का जनक है। इसी के कारण ही पर्यावरण आज मानवता के लिए खतरा बना हुआ है। हिमालय में पांच प्रमुख ग्लेशियर है, जो भारतीय नदियों में जल बन कर बहते हैं। इनमें सियाचिन ग्लेशियर सबसे बड़ा है। यह ग्लेशियर 72 किलोमीटर लम्बा और करीब 2 किलोमीटर चौड़ाई में फैला हुआ है। बालटोरो, बीयाफो, नूब्रा तथा हिसपुर ग्लेशियर भी 60 से 62 किलोमीटर की लम्बाई में फैले हुए है। इसी प्रकार उत्तरांचल में 6-7 ग्लेशियर है, जोकि देश की नदियों में पानी देते है।
          कनाड़ा के पर्यावरण मंत्रालय ‘एन्वार्यमैंट कनाड़ा’ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 45 वर्षों के दौरान कनाड़ा के पश्चिमी आर्कटिक के तापमान में 1.5 डिग्री सैल्सियस से अधिक की वृद्घि हुई है, जिसके कारण वहां विद्यमान बर्फ सिकुड़ रही है तथा समुद्रतल छोटे हो रहे है। वैज्ञानिक आंडाकि का मानना है कि बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा के कारण वायुमंडलीय सुरक्षा कवच ‘ओजोन परत’ का छिद्र बड़ा हो रहा है, फलतः सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों में बढोतरी हुई है।
         यूएन इंटरनैश्नल पैनल ऑन क्लाइमेट चैंज (IPPC) के चेयरमैन डॉ. आर के पचौरी ने कहा कि यदि ग्लोबलवार्मिंग इसी प्रकार बढ़ती गई तो वर्ष 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर पूरी तरह पिघल जाएंगे। हिमालय पर्वत बर्फ से खाली हो जाएगा और ये ग्लेशियर नदियों के किनारों को तोडते हुए समुद्र की ओर बढ़ने लगेंगे। नदियों का पानी मैदानी भागों को निगल जाएगा और समुद्र के किनारे छोटे होने लगेंगे। इससे मुम्बई, गोवा तथा मालदीव जैसे क्षेत्रों को भी अपना अस्तित्व बचाना मुस्किल होगा।
          बढ़ते प्रदूषण को कम करने के लिए 1997 में जापान के क्योटा में ग्लोबलवार्मिंग पर एक संधि हुई थी, जिसमें वर्ष 2012 तक सभी देशों को कार्बनडाईआक्साईड, मिथेन जैसी जहरीली गैसों को 7 प्रतिशत तक कम करने पर सहमति हुई, परन्तु भारत एक ऐसा महान देश है, जहं धार्मिक और राजनैतिक मंशाओं की पूर्ति के लिए जमकर प्रदूषण फैलाया जाता है। देश में प्रतिवर्ष गणेश की लाखों मूर्तियां समुद्र में बहाई जाती है, जिससे समुद्र में 8 प्रतिशत हैवी मैटल बढ़ जाता है। इससे समुद्री जीवों के जिन्दा रहने पर प्रश्न चिह्न लगता है। इतना ही नही लोगों द्वारा अपने नीजि स्वार्थों की पूर्ति के लिए अंधाधूंध पेडों की कटाई की जाती है।
         वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं व आम लोगों की भी जिम्मेदारी होनी चाहिए। हमें अधिक से अधिक पेड लगाने चाहिए। आजकल तो देश व विदेशों में भी यज्ञ को भी प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का प्रमुख साधन माना जाता है। यज्ञ में सुगंधित पदार्थों के दहन से हानिकारक परमाणु सुक्ष्म रूप में बदल जाते हैं। इससे यज्ञ के आसपास के क्षेत्रों को प्रदुषण के किटाणुओं से मुक्ति मिलती है और कार्बनडाईआक्साईड गैस के परमाणु उपयोगी तत्वों में विभिक्त हो जाते हैं। अतः पर्यावरण में रहने वाले को इसकी सुद लेनी होगी अन्यथा वह दिन दूर नही होगा जब हमें स्वयं पर ही पछताना पड़ेगा।
                                                         कृष्ण कुमार ‘आर्य’






याद

याद पुरानी  
जी चावै के ! नाच ल्यूं ?  

मोर मचाये शोर

मोर मचाये शोर
ये आया रे ! झूम के


निर्जला एकादशी

एक तप  

                                  

        देश में त्यौहारों व व्रतों को अपना महत्व है। इनको अलग-अलग ढ़गों व तरीकों से मनाया जाता है। इन्हीं में से एकादशी के व्रत में भी लोगों की अगाध श्रद्घा है। एकादशी कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष के दौरान प्रत्येक माह में दो बार आती है। अनेक व्यक्ति इन सभी एकादशी का व्रत रखते हैं। परन्तु ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति सभी एकादशी का व्रत नही करते या नही कर सकते वे इस निर्जला एकादशी का व्रत कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं।
         निर्जला एकादशी ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष में आती है। इस व्रत को अधिकतर महिलाएं ही रखती है। यह व्रत एकादशी को सूर्योदय से लेकर द्वादशी के सूर्योदय तक करीब 24 घंटे की अवधि तक रखा जाता है। व्रत के दौरान व्रती केवल एक बार ही पानी ग्रहण करते है। इसलिए इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस निर्जला एकादशी को भीमा या भीम एकादशी के नाम से भी पुकारा जाता है।
        पौराणिक मान्यताओं के अनुसार निर्जला एकादशी का व्रत रखने से महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और इससे उनके घर व परिवारों में आयु, आरोग्यता, धन, दौलत, पुत्र-पौत्रादि व सुखों की वर्षा होती है। महिलाएं सुन्दर परिधानों व 16 श्रृंगारों से सजकर व्रत को सम्पन करने के लिए ब्राह्मणों भोजन, वस्त्रत, छतरी, जूते व अन्य वस्तुओं का दान करती है। इस व्रत के दौरान वे जल की बजाय दूध व फलादि का प्रयोग करती है। वैसे एक बार में लिया जाने वाला जल की मात्रा भी अधिक नही होती है। जल की यह मात्रा सरसों के एक बीच को भिगोने जितनी होती है। इसको यदि आंका जाए तो यह एक बूंद से भी कम होगी। व्रती को पूरे 24 घंटे इसी एक बूंद पानी में गुजारने होते हैं।
        निर्जला एकादशी को लोग बड़ी श्रद्घा से मनाते है। मंदिर, शहर, मौहल्लों, सड़कों और निर्जन राहों व स्था्नों पर आने जाने वाले राहगीरों, पशु व पक्षियों के लिए पानी की छबीलें लगाई जाती है और उन्हें पानी पिलाया जाता है। इस एकादशी को गांवों में खरबूजों से भी जोड़ कर देखा जाता है। गांवों मे इसे ‘खरबूजे खानी ग्यास’ के नाम से भी जाना जाता है। खरबूज में पानी मात्रा सबसे अधिक होती है। इसलिए खरबूजा ज्येष्ठ माह में निर्जला रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी को भी यह पूरा करता है।
        निर्जला एकादशी के व्रत को महाभारत काल के महर्षि वेदव्यास से जोड़कर भी देखा जाता है। बताया ‌जाता है कि महाभारत युद्घ के पश्चात एक दिन महर्षि पांडवों को एकादशी का महत्व बता रहे थे। उन्होंने कहा कि व्यक्ति द्वारा प्रत्येक एकादशी का व्रत रखने से उनकी प्रतिभा में निखार व सभी मनोकामना पूर्ण होती है। निर्जला पर भीम ने एतराज जताते हुए कहा कि पितामह! मेरे लिए तो प्रत्येक एकादशी का व्रत रखना सम्भव नही है, क्योंकि मुझे भूख बहुत लगती है और मैं भूख सहन नही कर सकता।
         इस पर वेदव्यास ने उन्हें ज्येष्ठ माह में आने वाली एकादशी को निर्जला रखने की बात कही, जिसको उन्होंने मान लिया। उन्होंने निर्जला एकादशी के दिन पानी पीने, उसके बहाव व बचाव रखने की बात कही। भीम की सहमति के मिलने कारण इस व्रत को भीम व्रत या भीम एकादशी व्रत के नाम से जाना जाता है। यह बहुत बड़ा व्रत है इसलिए भी इसे भीम यानि बड़ा व्रत कहा जाता है।
       महर्षि का यहां यह मानना भी हो सकता है कि व्यक्ति को एकादशी व त्रयोदशी के दिन-रात के दौरान अपने शरीर के अमूल्य पानी (वीर्य) का क्षय नही करना चाहिए और न ही इस दिन गर्भादान क्रिया करनी चाहिए। ऐसा करने से संतान में अनेक दोष हो जाते है। इस एकादशी को इसलिए भी निर्जला एकादशी कहा गया होगा। निर्जला एकादशी हमें यह संदेश भी देती है कि व्यक्ति को संसार में रहते हुए भी पूरी तरह निर्जला रहना चाहिए। जिस प्रकार कमल का फूल जल में रहता हुआ भी उससे ऊपर होता है उसी प्रकार मनुष्य को सांसारिक बु‌राईयों से ऊपर उठकर संसार में रहना चाहिए, तभी यह व्रत फलदायी होगा।  
                                                                 कृष्ण के. आर्य