बुधवार, 30 जुलाई 2025

मैं अमीर हूँ!

 

 मैं अमीर हूँ!

        मैं सुबह को खाऊँ, रात को खाउऊँ

        मैं खाँऊ ऊल-जुलूल,

        वह क्यूँ टोके, क्यूँ मुझे रोके,

        तुम रहे क्यों मुझको बोल,

        सुनने की मुझे आदत नहीं,

        मैं ऐसे ही खुश रहता हूँ।

क्योंकि मैं अमीर हूँ!

रात को मैं क्लब में जाऊँ,

चार बजे घर को आऊँ,

खाना खाँऊ ना सोने जाऊँ

बारह बजे तक बाहर न आऊँ,

किया क्या रातभर मैंने,

ये क्यूँ मैं तुमको बतलाऊँ।

क्योंकि मैं अमीर हूँ!

बाद दोपहर मैं पढऩे जाऊँ,

पैंट ऊंची सर्ट सिलाऊँ,

तंग वस्त्र से अंग दिखाऊँ,

ऊंचे सैंडल की चाल चलाऊँ,

कहेे कोई तो उत्पात मचाऊँ,

सूनो तुम! हम ऐसे ही रहते हैं।

क्योंकि हम अमीर हैं!

होटल पर मैं नाश्ता खाऊँ,

नाश्ते में आमलेट मँगवाऊँ,

रात चढ़ें बोतले ले आऊँ,

बैठ संगी संग पैग बनाऊँ,

कोई कहे तो उसे समझाऊँ,

जाओ! नही तो अन्दर कराऊँ।

क्योंकि मैं अमीर हूँ!

मां-बाप से जुबाँ लडाऊँ,

व्यवहार शुन्यता उनसे दिखलाऊँ,

        आचारहीन सा आचरण अपनाऊँ,

‘केके’ उससे मैं डरता जाऊँ,

किसी और को क्या बतलाऊँ,

जब विचार उसके मलीन है।

क्योंकि वह अमीर है!

                                                                     डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’


गुरुवार, 17 जुलाई 2025

चिड़ियां

 चिड़ियां


      एक चिड़िया, अनेक चिड़ियां,

      दाना चुगने जाएं चिड़ियां

      भोर भए उठाएं चिड़ियां,

गीत सुरीले सुनाए चिड़िया, अनेक चिड़ियां। 

सूरज संग लाए चिड़िया,

फैला पंख हर्षाए चिड़िया,

राग रसीला गाए चिड़िया,  

मन मधुर बनाए चिड़िया, अनेक चिड़ियां। 

तिनका चुनकर लाए चिड़िया,

        घोंसला सुन्दर बनाए चिड़िया,

        कीट पतंग खाए चिड़िया,   

जीवन मनोहर बनाए चिड़िया, अनेक चिड़ियां। 

       ची-ची करती आएं चिड़ियां,

       संग ओरों को लाएं चिड़ियां,

       प्यास कैसे वो बुझाएं चिड़ियां,

मुस्कान लबों पर लाएं चिड़िया, अनेक चिड़ियां 

      चोंच से गंध मिटाए चिड़िया,

      झूंड में उडऩा सिखाए चिड़ियां,

      एकता का पाठ पढ़ाएं चिड़ियां,

एक रस रहना बताएं चिड़ियां, अनेक चिड़ियां। 

दुःख में संग रहे चिड़ियां,

सुख में घूमने जाएं चिड़ियां,

सुन्दर आसमां बनाएं चिड़ियां,

‘केके’ को जीना सिखाए चिड़िया, अनेक चिड़ियां। 


                                                                                     डॉ. के कृृष्ण आर्य ‘केके’

गुरुवार, 26 जून 2025

मेरा देश

 

मेरा देश

आओ भारत भूमि की, तुम्हें कथा सुनाता हूँ। 

वो मेरा देश है, जो मैं तुम्हें बताता हूँ ।।

    जम्मू कश्मीर से कन्या कुमारी, 

    है कौन वह नही जिसने जाना, 

    विविधताओं की क्यारी में, 

    है मानुष बन सब जग माना, 

उसी भेद को आज, मैं तुम्हें बतलाता हूँ । 

    पठार की धरती और तुमने, 

    चाय बागान को नहीं देखा, 

    कुदरत की मनमोहकता और,

    झरनों के कलरव को नहीं देखा, 

उसी मोहकता का गान, आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ,

    छत्तीस प्रदेशों का देश यह,

    जिन पर केंद्र करता है राज,

    सरकार यह करें सुनिश्चित, 

    कैसा हो हमारा समाज, 

उसी समाज की परिकल्पना, आज मैं तुम्हें बताता हूँ।

    तय समय पर तय हो वर्षा,

    फसल लहलाए खलियानों में,

    अन्न, धन से होवे पूर्ण,

    रस रहे भरा जुबानों में,

उसी रस की महत्ता, आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

    जहाँ रही मानव की महानता, 

    आपस में रही बेहद समानता, 

    जिस कारण हम रहे विश्वगुरु,

    उन को क्यूँ जाते हैं भूल, 

उन्हीं गुणों की महानता, आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

    शौच, सन्तोष, तय, स्वाध्याय,

    जहाँ अपनाते नित प्रणिधान,

    सत्य, अहिंसा, अस्ते, ब्रह्मचर्य, 

    जहाँ अपरिग्रह का नित हो पालन,

जीवन उच्च आदर्शों को, आज ‘केके’ तुम्हें सुनाता हूँ। 

    आओ भारत भूमि की, तुम्हें कथा सुनाता हूँ। 

    वो तेरा भी देश है, जो मैं तुम्हें बताता हूँ ।।


                                                                            डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’ 


गुरुवार, 12 जून 2025

मैं आदमी हूँ!


मैं आदमी हूँ!

भावनाओं के समर में, मैं खड़ा अकेला हूँ,

सोच विचार थकता रहूँ, मैं ही सब झेला हूँ।

रात गुजर जाए यूँ ही, ना कुछ मैं कहूँ,  

सुबह दिखूं वैसा ही, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

गरीबी हो या अमीरी, घर से रोज निकलता हूँ,

दिहाड़ी करूँ या नौकरी, पेट बच्चों का भरता हूँ।

दिन ढ़ले घर मैं आऊँ, सब गम सह लेता हूँ,

फिर स्नेह की आस करूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

परिवार का बोझ उठाऊँ मैं, पत्नी गले लगाता हूँ,

माँ-बाप संग बैठ अकेला, दिल की टीस सुनाता हूँ।

इष्ट-मित्रों के आने पर मैं, जिम्मेदारी निभाता हूँ,

फिर तिरस्कार पी जाता हूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ।

देख बच्चों का फूहड़पन, मनमानी उनकी सहता हूँ,

सह अनादर अपने घर में, फिर हँसने लग जाता हूँ।

पत्नी मित्र जब आए घर, घूंट जहर की भरता हूँ,

भय से न कुछ कह सकूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

मार्गदर्शक बन पत्नी का, उसे समझाने लगता हूँ,

गैर पुरुष घर आने के, नुकसान बताने लगता हूँ।

आबरू तेरी मेरी एक समान, यह सिखाने लगता हूँ,

मन ही मन में डरता हूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

आज आहार कैसा तुम्हारा, घोर तामसिक बनाता है,

अपने सुख की खातिर वो, हत्यारिन बन जाती है।

कभी सांप से डंसवा कर, कभी ड्रम में चिनवाती है,

‘केके’ बड़ाई करें तुम्हारी, क्योंकि तूं आदमी है॥


                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’

 

बुधवार, 21 मई 2025

भारत माता की जय

 

                         भारत माता की जय

        देश की शान ये देश का गान है,
        बिन परिचय के ही देश की पहचान है, 
        दुश्मन में समाये हुए भय की धमक है,
        भारती के भाल की यह अनुठी चमक है,
        पापी को छलनी करता यह एक उद्घोष है, 
शत्रु की छाती पर जब बोले, भारत माता की जय। 
हमारे वीर सेनानी जब, मैदान में डट जाते हैं,
भारत की मर्यादा पर, शीश काट कर लाते हैं,
सिंहासन भी हिलने लगता, जहां पांव जमाते हैं, 
खून की गर्मी से उनके, धरती सिमट जाती है,
रण में भरी हुंकार से, सर-ताज सिहर जाते हैं,
दुश्मन का कलेजा यह सुन कांपे, भारत माता की जय।
निहत्थों पर गोली चला, नापाक वीरता दिखलाते हैं,
पहलगांव घाटी में कायर, बहनों का सिंदूर मिटाते हैं,
चोरी और सीना जोरी, फिर वे कर इतराते हैं,
ड्रोन, मिसाइल, वारहेड से, करके वार दिखाते हैं,
मिट्टी में मिल गए तब, सेना हिन्द से टकराते हैं,
आकाश भी बोले अब ये आवाज, भारत माता की जय।
न्यूक्लियर की हवा निकाली, हमारे वीर जाबांजों ने,
नौ ठिकाने असुरों के, ग्याहर ऐयरबेस उजाड़े हैं,
आसमां में उड़ते जहाज, ला धरती पर पछाड़े हैं,
गोली बदले गोला खाते, फिरते मुहं छिपाते हैं,
दहाड़ मारकर रोने लागे, अपनी मौत बुलाते हैं,
खून की गर्मी शांत हुई यह सुन, भारत माता की जय।
सिंदूर का बदला लेने को, सिंदूर ऑपरेशन चलाते हैं,
आधी रात के तारों में, जलता सूरज दिखलाते हैं,
सीना छलनी किया वैरी का, नही भाग वो पाते हैं,
देश करे नमन उन्हें, जो पाक को पाताल दिखाते हैं,
‘केके’ सेना माँ भारती, अद्भुत शौर्य है दर्शाती,
ब्रह्मोस की गर्जना से सुन वे कांपे, भारत माता की जय।


                                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’


शुक्रवार, 2 मई 2025

तुलना


                                       तुलना

         एक दिन मैं बैठ अकेला, 

        चाहता था पुस्तक पढना,

        चलता-चलता मन चला, 

तो लगा करने किन्ही, दो में तुलना।

पहले तुलना की मैने, 

        तराजू के दो पलडों की,

        इनकी भी क्या मजबूरी है,

एक ही रस्सी से बंधना,

फिर भी मैं कर रहा क्यूं, दोनों की तुलना।

पलडों का हुआ निर्माण समान, 

        एक बड़ा न दूसरा दयावान,

        दोनों करते एक दूसरे का मान,

        मजबूरी है उनकी अलग रहना,  

यूं ही मैं करने लगा उन, दोनों की तुलना।

एक मूल संग रहते दोनों,

स्वभाव है उनका दूरी पर रहना, 

एक की चाहत रहती है लेना,

दूसरा चाहता है हमेशा कुछ देना,

इसलिए मैं कर रहा हूं इन, दोनों की तुलना।

सरल निगाहें देख रही,

        तुला तो है एक ही,

        किसे बताऊ अच्छा, 

        यह समझ मैं पाया ना,

हां फिर क्यूं मैंने चाहा करना, दोनों की तुलना।

दो हाथ दिये हम सबको,

इनका प्रयोग तुम ऐसे करना,

एक को लेने की ना पड़े जरूरत,

दूसरे की चाह रहे कुछ देना,

तभी तो ‘केके’ कर रहा है इन, दोनों में तुलना।

          

                                                                     डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’

 

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