वाद... खबरिया "खोदा पहाड़ निकली चुहिया"
आतंक-वाद के बारे में हम बहुत कुछ जानते हैं परन्तु आतंक को समझने की कौशिश कम ही करते हैं, आतंक-वाद से केवल आर्थिक नुकसान ही नहीं होता है बल्कि इससे सामाजिक, शारीरिक और मानसिक पीड़ा भी उठानी पड़ती है. आतंक को यदि मोटे शब्दों में समझा जाये तो, यह वह आचरण है, जिससे लोगों को न केवल असहाय दर्द से गुजरना पड़ता है बल्कि इससे सामाजिक व्यवस्था भी हिल जाती है.
देश में ऐसा आतंक तो कम ही होता है जिससे जन, धन और बल की हानि होती है परन्तु एक ऐसा आतंक भी है, जो हररोज हमें मानसिक तौर पर प्रताड़ित करता है, दिलों में पीड़ा भरता है और रातों की नींद हराम कर देता है. लेकिन हम उस आतंकवादी को नहीं पहचान पा रहे हैं, जिसको हम हररोज झेल रहे हैं. कौन सा है वह आतंक? कहाँ है वह आतंक, क्या करता है वह आतंक'वादी'? वह एक ऐसा आतंकवादी है जो आकाश मार्ग से आता है और हमारे घरों में घुस जाता है. इतना ही नहीं वह अपने आतंक से घरों में बैठी माँ, बहनों और बुजर्ग को न केवल लज्जाहीन कर देता है बल्कि घर में ही घरवालों की संवेदनाओं को तार-तार कर जाता है. यह आतंक कोई और नहीं बल्कि यह है "टीवी का आतंक", जो पलभर में ही भाई-बहन, बाप-बेटी तथा माँ-बेटे जैसे पवित्र घरेलू रिश्तों को आधारहीन बना देता है. यह आतंक हमें मर्यादाहीन कर जाता है, पर हमें पता भी नहीं चलता, इस आतंकवादी को हम जानते हैं, पहचाने हैं पर हम उस पर काबू पाने में असमर्थ हैं. इस आतंक - 'वाद' (विचार) ने जहाँ मानवीय चैन को छीन लिया है वहीँ इससे लोगों की मानसिकता भी दूषित हो रही है.
लेकिन आज के समझदार लोग इसे नए जमाने का पुराना राग अलापना करार देते हैं. आजकल हम नये युग में रहते है जहाँ आतंकी भी रूप बदल-बदलकर आतें है. एसे आतंकवादी को हररोज हमारे घरों में देखे और सुने जातें हैं. इस आतंक को यदि 'ब्रेकिंग-आतंक' कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. चैनलों का यह आतंक लोगों को भयाक्रांत करता है, डराता है और रातों की नींद उड़ा देता है. आपने अनेक चैनलों पर यह कहते हुए देखा होगा की "आज रात आप सो नहीं सकोगे, नींद नहीं आएगी आपको यह सुन कर, इस लिए गौर से देखिये हमारी यह विशेष रिपोर्ट--> "धरती नष्ट हो जाएगी, आसमान टूट पड़ेगा, सिग्नल फेल हो जायेगे, बाढ़ आ जाएगी, सागर शहरों को निगल जायेगा, सब नष्ट हो जायेगा, कोई नहीं बचेगा..., हाँ यदि ऐसा हुआ तो... आदि आदि." परन्तु अगले दिन सब ठीक ठाक मिलता है लेकिन यदि ठीक नहीं मिलता तो वे हैं लोगों के विचार. बच्चों के मन पर पड़ी भय की छाप और रात का बचा हुआ खाना, जो भय के कारण परिवार वालों ने नहीं खाया. यह आतंक खुनी आतंक से कही अधिक घातक है. इस आतंक से निजात पाने के बारें में कोई विचार नहीं करता.
इतना ही नहीं कुछ चैनलों की भाषा तो ऐसी भी होती है कि यदि उस भाषा को बड़े भी सुन लेंगें तो वैराग्य उत्पन्न हो जाये कि अब तो जीना ही नहीं, फिर काम करके क्या करना हैं. उन चैनलों की वोइस ओवर का अंदाज तो देखो कि 'कोई है...जो देख रहा है इस धरती को, जो निहार रहा है... आपकी हर गतिविधि को, वह निगल जायेगा... आपको! सावधान! संभल कर रहना, आज कि रात नहीं है खतरों से खाली... ?.' परन्तु प्रोग्राम के अंत में दिखाते हैं कि कुछ तारों की हलचल से आकाश में एक आकृति बनी थी यानि 'खोदा पहाड़ निकली चुहिया.'
कुछ सनसनी फ़ैलाने वाली ख़बरें भी आपने देखी व सुनी होगी. इन ख़बरों के द्वारा चैनल लोगों का भविष्य बताते हैं, वो भी उस दिन, जब जनता राखी का त्यौहार को मनाने की तैयारियां कर रही होती हैं. चैनल पर कोई दाड़ी वाला बाबा बैठा दिखाई देगा, कुछ देर शांत रहने के बाद बाबा बोलना शुरू करता है कि "आपकी राशी में सूर्य लगन है, जो आपके भाई के जीवन के लिए घातक हो सकता है, इससे टूट सकती है आपके भाई की कलाई, दुर्घटना है संभव, मौत भी हो सकती है," इसलिए शनि के मंदिर में जाकर 21 हजार रूपये, 21 बर्तन, 21 दान के वस्त्रों से पूजा करें और यदि भाई को सरसों के तेल से स्नान कराएंगें तो यह कष्ट ख़त्म हो जायेगा. ये सब सुन कर बहने उस त्यौहार को ही मनाना छोड़ देतें हैं .
इस प्रकार से चैनलों द्वारा फैलाये जा रहे आतंक, खौप पैदा करने वाले समाचार और भयभीत करने वाली ख़बरों से बच्चों, महिलाओं और लोगों के दिलोदिमाग को भ्रमित किया जा रहा है. उनके नाजुक दिमाग में शंका का बीज भर दिया जाता है. वही शंका उनके स्वस्थ व सुखी जीवन को प्रभावित करती है! इस आतंक से आज का समाज उभर नहीं पा रहा है. क्योंकि आतंक का पर्याय बन चुके ये चैनल समाज सुधार, उसकी प्रगति और निर्माण कार्यों को बढ़ावा देने कि बजाये लोगों को दिग्भ्रमित करने का कार्य कर रहे हैं. यदि प्रेस या मिडिया अपने माध्यमों का प्रयोग लोकहित में करेंगें तो इससे समाज का उत्थान संभव होगा, परन्तु डराने, भ्रम फ़ैलाने और ख़बरों के तोड़ने मरोड़ने से समाजहित संभव नहीं है. इसके लिए मीडिया को खुद अपनी आचार संहिता बनाने कि आवश्यकता है. यदि मिडिया ऐसा न कर सका तो वह भविष्य में खुद से भी नजरें नहीं मिला सकेगा और जब तक उसे अपनी गलती का एहसास होगा तब तक देर हो चुकी होगी.
कुमार कृष्ण आर्य