'कुल्हिया में हाथी'... एक विचार-जरा सोचिये, सृष्टि संवत --1972949125, कलियुगाब्द---5125, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा- विक्रमी संवत-2081
सोमवार, 31 मार्च 2014
सोमवार, 5 अगस्त 2013
हे दीप !
हे दीप, प्रज्ज्वलित हो !
चमक जो अपार हो
रोशनी का आगाज हो,
निशा भी भ्रमित हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
शाम का धुधंलका हो,
रेत का गुब्बार हो,
पशुओं की हुंकार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
सुबह का सवेरा
हो,
खुशियों का
बसेरा हो,
जीवन में ना
अंधेरा हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
सुर्य जीवन ना आधार हो,
चित में जो अहंकार हो,
अज्ञान का व्यवहार हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
दुःखों का यदि अम्बार हो,
हर मेहनत बेकार हो,
कृष्ण सा भ्रमजाल हो
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
वृद्घों का
अनादर हो,
मूर्खों का सम्मान हो
शांत जब संस्कार हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
दुर्गुणों की भरमार हो,
कर्कस शरीर यार हो,
तेज जब निश्तेज हो,
हे दीप! प्रज्ज्वलित हो।
जीवन डगर का
अंत हो,
सांसों की
डोर जब्त हो,
अन्तिम जब
संस्कार हो,
हे दीप!
प्रज्ज्वलित हो।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
रविवार, 17 मार्च 2013
चुप रहता हूं !
चुप रहता हूं !
ना
मैं डरता हूं
ना
कुछ कहता हूं
दूसरों
का आदर करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
मां
मुझे जब दुलारती हैं
सपनों
में रस भर डालती हैं
पर
पिता की शर्म करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
स्कूल
में मैं पढता हूं
सीखने
की हठ करता हूं
पर
गलत उत्तर से डरता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
भाभी
मेरी अति शालीन है
नही करती कपड़े मलीन हैं
उनकी हरकतों से विचलता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
बीवी
बड़ी हठिली है
जुबां
से कटिली है
पर
दिल से प्रेम करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
बच्चे मन के अच्छे हैं
पर
संस्कारों के कच्चे हैं
उनका
स्ववध कैसे सह सकता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
बेटी है घर-आंगन मोरे
देखता हूं हर सुबह-सवेरे
पर-बेटों से डरता हूं
इसी लिए चुप रहता हूं।
वो कसते हैं ताने मुझको
जो दिखते है समझदार तुझको
किसी को बेईजत नही करता हूं
इसी लिए मैं चुप रहता हूं।
ऑफिस
के है साहब बड़े
काम
से है नाम बड़े
उनकी
समझ पर तरस करता हूं
इसी
लिए चुप रहता हूं।
कृष्ण ना मैं डरता हूं
ना कुछ समझता हूं
पर चापलूसी जब करता हूं
तभी मैं बोल पड़ता हूं !
तभी
मैं बोल पड़ता हूं !
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
बुधवार, 6 फ़रवरी 2013
केसरी
केसरी
आर्यों
की शान है,
गगन में पहचान है,
देश पर बलिदान है,
यही तो वह केसरिया
निशान है।
जो अस्त नही हो वह त्रिकाल है,
पर अस्त होना संध्या
काल है,
उदय होना प्रातः
काल है,
तभी तो वह केसरी
निशान है।
हवा की जो चाल है,
मेघ भेद जल जाल है,
अग्नि की ज्वाल है,
वह भी केसरी निशान है।
देख इसका जोशिला
रंग,
ज्वाला से डोले
हर अंग,
जो भंग करता
शत्रु का मान,
वही तो है केसरिया
निशान।
यह क्षत्रियों का सुहाग है,
वीरों की तप्त आग है,
दावानल सी उड़ान है,
यही तो केसरियां निशान है।
वेदमंत्र है धडकन इसकी,
शक्तितंत्र है ताकत जिसकी,
उपनिषदों की यह तान है,
यही वह केसरिया निशान है।
रंगों की है जान
यह,
प्यार की है पहचान यह,
रंग यही हमारी शान है,
तभी तो यह केसरी निशान है।
सुरज की लालिमा है यह,
फूलों
सी कलियां है यह,
कृष्ण
यही तेरी पहचान है,
आर्यों
का केसरी निशान है।
०००
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
लेबल:
जो भंग करता शत्रु का मान
स्थान:
Chandigarh, India
सोमवार, 15 अक्टूबर 2012
क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण !
क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण !
भारत की देव भूमि पर अनेक ऋषि-मुनि तथा महापुरूष समय-समय पर जन्म लेते रहे हैं।
इस धरती को जहां राम, कृष्ण तथा हनुमान जैसे मनीषी वीरों ने अलंकृत किया है वहीं रावण
तथा कंस जैसे दुराचारियों ने सामाजिक मर्यादाओं को तार-तार भी किया है। राम ने अपने
मर्यादित जीवन तथा कृष्ण ने गीता उपदेश से जहां समाज को बंधनमुक्त करने का कार्य किया
वहीं रावण और कंस जैसे दुष्टों ने अपनी दुष्टता से समाज को बंदी बनाने में भी कमी नही
छोड़ी। इसलिए त्योहारों के अवसर पर हम भी उन महापुरूषों के गुणों को धारण करने और अवगुणों
को छोड़ने की शिक्षा देते रहते हैं।
समाज के उपकार के लिए ही हम इस
प्रकार के कार्य करते हैं ताकि प्रत्येक व्यक्ति का जीवन मधुर हो सकें परन्तु हमें
इस बात का जरा सा भी ईलम नही है कि क्या हम इतनी योग्यता रखते हैं? जिससे भोले-भाले
लोगों का सही मार्गदर्शन कर सकें या क्या हम उस ज्ञान को रखते है? जिसे दूसरे लोगों
के लाभ के लिए बांटना चाहते हैं या वह शिक्षा हमारी पथप्रदर्शक है? जिसकी सहायता से
हम समाज को बदलने की कामना रखते हैं या हमारा आचरण उसी स्तर का है? जैसा हम दूसरों
को बनने का उपदेश करते हैं अर्थात क्या हम वो कृष्ण है, जिसने अधर्मियों को सजा देकर
एक महा-न-भारत की स्थापना की थी या फिर वह राम हैं, जिसने रावण जैसे आतताई से छुटकारा
दिला कर जीवन में आदर्शों का पुनः उत्थान किया था।
इन सभी सवालों का जवाब यदि नही है! तो फिर क्यूं हम उन भोले
भाले लोगों को दिग्भ्रमित कर स्वयं तथा समाज को दोखा दे रहे हैं; क्यों उस झूठी शिक्षा
का प्रचार कर रहे हैं, जो हमारा भी उपकार करने में सक्षम नही है तथा क्यों उस रावण
के वध करने का नाटक कर रहे हैं; जोकि हर वर्ष फिर पैदा हो जाता है और लोंगों को फिर
से उसे जलाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। काश! हम अपने आचरण से समाज को बदलने का जज्बा
रखते, जिससे समाज में व्यवहारिक बदलाव दिखाई दे सकता। परन्तु अपने आचारण के विपरित
कर्म करके हम कहीं समाज में बुराईयों को बढावा तो नही दे रहे है या उस पाखंड की ओर
अग्रसर हो रहे हैं, जो हमें अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहा है। क्या? हम रावण की उन राक्षसी
वृतियों का प्रचार-प्रसार तो नही कर रहे, जो कि हर वर्ष रामलिला के मंच से दिखाई जाती
है। इन सभी बातों का जवाब हमें ढूंढना होगा और यह पता लगाना होगा कि वह रावण! जिसको
अपमानित करके हर वर्ष जलाते है, वह फिर दोबारा जन्म कैसे ले लेता है?
रावण को सिर्फ व्यक्ति ही नही बल्कि बुराइयों का प्रतिक भी माना
जाता है। ये बुराइयां ऐसी हैं, जो समाज को घुन की तरह खाये जा रही है। ऐसी बुराईयां
हैं, जिनके कारण समाज तथा राजतंत्र को लकवा मार रहा है, इन्हीं बुराईयों के कारण ही
आज समाज में बहन और बेटियों को सम्मानित जीवन जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है।
हर वर्ष रावण को जलाने वाले राम की संख्यां लाखों होते हुए भी हर वर्ष लाखों सीता माता
जैसी देवियों की इज्जत तार-तार की जाती है, हजारों कन्याएं अपने सतीत्व की रक्षा करने
में असमर्थ होकर आत्महत्या कर लेती है परन्तु उन्हें अपने आंसू पौछने वाला कोई राम
नही मिलता।
राम के चरित्र को दर्शाने के लिए
देशभर में हजारों मन्दिर बनाये गए है परन्तु उन्हीं दक्षिण के मन्दिरों में तथाकथित
लाखों देवदासियां बेबसी, लाचारी तथा असहाय होकर रावण वृतिक अनेक पुजारियों की वासना
का शिकार बनती आ रही है। हालांकि विभिन्न मत तथा सम्प्रदाय इस प्रकार की बातों को स्वीकार
नही करते परन्तु कुछ तो हो ही रहा है। मध्यकालिन युग से शुरू हुई इस प्रथा में सूले,
भोगम या सानी जैसे नामों से जाना जाता था, जिसका अर्थ धार्मिक वेश्या ही होता है।
भाईयों! यह रावण हम सबके बीच में
रहता है, हम हर रोज इससे दुआ-स्लाम करते है परन्तु कभी पहचान नही पाते। इसी कारण आज
समाज में इस प्रकार की अस्थिरता का माहौल पैदा हो रहा है। यह रावण कोई ओर नही बल्कि
केवल हमारा आचरण है, हमारी वासना और वे सभी दुष्वृत्तियां है, जिसने समाज की रीढ़ को
तोड़ दिया है। यह रावण हमारे विचार है तथा हमारी उच्च-नीच भेद की मानसिकता है जो समाज
को संगठित होने से रोक रही है। इन बुराईयों को मिटाने के लिए रामलीला में पर्दे के
पीछे वाले राम की नही बल्कि सदाचारी, सहनशील तथा दूसरों की बहन-बेटियों को अपनी बहन-बेटियां
से समान समझने और स्वीकार करने वाले राम की आवश्यकता है।
आज बड़े-बड़े नेता, मंत्री तथा उद्योगपति रामलीलाओं का उद्घाटन
करते है, रामलीलाओं के मंचों से रावण, मेघनाथ तथा कुम्भकरण के पुतलों को आग लगाते है।
परन्तु क्या इनको पता है कि राम के बाण और हनुमान की गद्दा केवल दुष्टों को दंड देने
के लिए ही उठती थी। उनका बल असहाय, गरीब तथा सदाचारी, ईमानदार और योग्य लोगों की रक्षा
और सुरक्षा के लिए प्रयोग होता था; व्यभिचारी, ढोंगी, बहरूपियों तथा कदाचिरों के बचाव
में षडयंत्र रचने के लिए नही। आज के मंचनकर्ताओं को इस बात का अहसास होना चाहिए कि
राम एक आदर्श पुत्र, सदाचारी, देश प्रेमी, हर प्रकार के नशों से दूर तथा सम्पूर्ण प्रजापालक
श्रेष्ठ राजा थे तथा देश की बहन-बेटियों की आबरू की रक्षा के लिए स्वयं का जीवन आहूत
करने के लिए तैयार रहने वाले महापुरूष थे।
दशहरे के पावन पर्व पर समाज के सभी वर्गों को चाहिए कि राम के
जीवन को अपनाते हुए रावण जैसी दुष्वृत्तियों का नाश करें। राम के आदर्शों को अपनाते
हुए समस्त बुराईयों पर विजय पताका फहराएं। राम की शिक्षाओं, आचार-विचार, व्यवहार तथा
ब्रह्मचर्य जैसे अमोघ राम बाणों को अपना कर देश में राम राज्य लाने के लिए प्रयत्न
करें, जिसमें न कोई चोर हो, न भूखा, न बिमार तथा न ही व्यभिचारी पुरूष हों। जब व्यभिचारी
पुरूष नही होगा तो व्यभिचारिणी स्त्री स्वतः ही नही होगी और समाज कुदंन बन जाएगा। इससे
समाज को नई दिशा, चेतना और जागृति मिल सकेगी औरदेश में कोई भी अहंकारी, दम्भी, द्वेषी,
कपटी तथा धोखेबाज न रह सके।
यदि हम ऐसा करने में सफल होते है तो हमारी धरती से रावण जैसा भूत हमेशा हमेशा के
लिए मिट जाएगा। इससे हमें बार-बार रावण को जलाना नही पडेगा अन्यथा वही रावण फिर हर
वर्ष जन्म लेगा, बढे़गा तथा संसार को अंधकार और व्यभिचार की गर्त में धकेलता रहेगा
और उस नकली रावण को मारने के लिए नकली राम बनते रहेंगे तथा समस्या जस की तस बनी रहेगी।
हर वर्ष हम उसे मारने के लिए कागज के पुतले जलाते रहेंगे। इससे केवल पैसे की बर्बादी
और प्रदूषण बढ़ने के सिवाय कुछ भी हमारे हाथ नही लेगेगा और हमें हर बार यह सोचना नही
पड़ेगा कि ‘क्यू पैदा होता है हर वर्ष रावण’।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
लेबल:
नकली रावण ?
शुक्रवार, 31 अगस्त 2012
पैसे पेड़ पर ही लगते हैं?
एक दिन बेटा मेरा, लगा
करने जिद्द ऐसे,
मिठाई लाओ पापा और, ले
आना एक चुप्पा,
कितने लाये ये बतलाना, सभी को दे खिलाएं,
पत्नी बोली सुनो बेटा,
ऐसे जिद्द नही करते,
पापा तो ले आयेंगे, पर
पैसे पेड़ पर नही लगते।
इतना सुनकर बेटा मेरा, लगा यूं घुर्राने,
गुस्से में उठकर बोला, क्यूं करते हो बहाने,
लाने को चुप्पा तुम, क्यू दे रहे हो ताने,
कितने पेड़ों को देखा मैंने, लटके उन पर पैसे,
फिर क्यू कहते हो मम्मी! पेड़ पर नही लगते
पैसे।
मेरे दोस्त की मम्मी
ने, घर में बगिया लगाई,
कही आम,अमरूद कही, फूलों
की चादर बिछाई,
माली आते रोज वहां, तोड़ इन्हें ले जाते,
बदले में वो इसके, फिर पैसे उन्हें थमाते,
फिर क्यू कहते हो मम्मी!
पैसे पेड़ पर नही उगते।
एक दिन पापा मैंने, टीवी पर देखी पहाड़ी,
पेड़ वहां बहुत थे, और कुछ थी वहां झाड़ी,
झाड़ी पर पील, पंजोए, पेड़ों पर फल लटके,
किसान बेच कर फिर इन्हें, पैसे व्यापारी से
लाते,
फिर भी मम्मी कहती हो, पैसे पेड़ पर नही उगते।
एक दिन देखा मैंने, पहाड़ी पर भूकम्प आया,
पेड़ गिरे और मकान, सब धरती में समाया,
कोयला बनता पेड़ों से, ऐसा मास्टर ने पढाया,
कोयला बेच फिर नेताजी, अथाह धन कमाते,
फिर क्यू कहते हो आप, पैसे पेड़ पर नही उगते,
एक दिन ताऊ मुझे,
खेत में लेकर गए,
खेत में गन्ना
लगाया, ऐसा वे बतलायें,
गन्ने से चीनी
बना, फिर व्यापारी ले जायें,
महंगें दामों
में बेच इसे, वे मोटा लाभ कमाते,
मम्मी! फिर भी
कहती हो, पैसे पेड़ पर नही उगते।
ये सब सुनकर मम्मी, क्या
समझ आपको आया,
सब कुछ पैसों से बनता,
पैसा पेड़ों से पाया,
पेड़ तो है जीवन आधार,
कैसे आधार बने निराधार,
सम्मान करों इन पेड़ों
का, ऐसा कृष्ण सब कहते,
अब तो मान जाओ मम्मी!
पैसे पेड़ पर ही लगते।
कृष्ण कुमार ‘आर्य’
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