नवरात्र पर देवलोक गमन कर गए थे भगवान श्रीकृष्ण

हमारे त्यौहार हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य की गति और शारीरिक आवश्यकताओं पर आधारित विभिन्न उत्सव मनाने की व्यवस्था दी है ताकि जीवन सदैव उल्लास से भरा रह सके। तीज से लेकर होली के सभी त्यौहारों का रंग और ढ़ंग अलग-अलग है। एक त्यौहार तीज जहां सावन के झूलों के साथ मनाया जाता हैं वहीं दीवाली के दीप और होली के रंग जीवन को रंगीन बनाने वाले हैं। ऐसे ही पृथ्वी की गति और ‘अयन’ पर आधारित नवरात्र मनाए जाते हैं। यह वर्ष में दो बार ऋतु परिवर्तन पर आते हैं। एक बार उत्तरायण में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में होते हैं तो दूसरे दक्षिणायन में आश्विन मास में शुक्ल पक्ष में मनाए जाते हैं। परन्तु चैत्र मास का पहला नवरात्र हमारे सत्य सनातन वैदिक धर्म के अनुसार नववर्ष होता है। इसे नव-सम्वत भी कहा जाता है।
दक्षिण भारत में इसे “उगादी” के नाम से जानते हैं। ‘उगादी’ उसी भारतीय सनातन संस्कृति का संवाहक है, जो भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह वही दिन है जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना आरम्भ की थी, इसी दिन से युगों की गणना आरम्भ की जाती रही है। अतः यह दिन सृष्टिक्रम से जुड़ा है। इसलिए इसको सृष्टिवर्ष आरम्भ दिवस भी कहा जाता है। युगों की शुरूआत इसी दिन होने कारण इसे युगादि कहा गया है। इतना ही नही सनातन धर्म में वर्ष की गणना भी इसी दिन से आरम्भ की होती है, इसलिए भारतवंशी इसे नववर्ष के रूप में मनाते रहे हैं। यह पर्व चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है, अतः इसे वर्षी प्रतिपदा भी कहा गया हैं।
भारतीय सनातन संस्कृति के जानकार मानते हैं कि ईश्वर ने जिस दिन सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ किया था, उसी दिन को चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा कहा जाने लगा। मान्यता है कि सृजन का यह कार्य नौ अहोरात्र तक यह निरंतर चलता रहा, इसलिए इन्हें नवरात्र कहा गया है। इसी दिन से पूरे देश में नौ दिनों तक नवरात्र मनाए जाते हैं और मातृशक्ति दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब बसंत ऋतु अपने यौवन पर होती है। प्रत्येक दिशा में प्रकृति का शोधन होता दिखाई देता है। इन दिनों में सभी पेड़, पौधों एवं झाड़ियों पर रंगबिरंगे फूलों से मन प्रफुल्लित हो उठता है और वातावरण में एक मंद-मंद सुगंध का प्रवाह रहता है। पौधों पर नई-नई पत्तियों तथा फलों का आगमन होता है। प्रकृति का यह मनोहर दृश्य वर्ष में केवल इन्हीं दिनों में दिखाई देता है।
हमारे शास्त्रों में कहा है कि ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ अर्थात् जो हमारे पिंड यानि शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है तथा जो ब्रह्मांड में है, वही हमारे शरीर में है। इस दौरान प्रकृति की भांति प्राणियों के शरीरों में भी नवरक्त और नवरसों का संचार होता है। इसलिए इस समय को नवरस काल कहा जाता है, जो प्रकृति के साथ-साथ शरीरों में आई जड़ता को भी दूर करता है। पंजाब, हरियाणा में इसे न्यौसर कहते हैं। इस समय शरीर को सक्रिय रखने वाली ऊर्जा से मन में उल्लास भर जाता है। इस दौरान श्रद्धालु माता दुर्गा की उपासना और उपवास रखते हैं, जिससे हमारा शरीर निरोग एवं शुद्ध होता है। यह समय जल, वायु, मन, बुद्धि और शरीर के शौधन का समय होता है। इसलिए शास्त्रों में नित्य यज्ञ करने का विधान बताया है ताकि यज्ञ की अग्नि से शरीर और पर्यावरण गतिशील बन सके। यह समय शक्ति संचय और ब्रह्मचर्य पालन के लिए उत्तम बताया है, जिसके लिए योग के सभी आठ अंगों को अपनाना आवश्यक है।
नवरात्र सृष्टि सृजन के वह दिन हैं, जिसे देश में विभिन्न रूपों में मनाए जाते हैं। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों में इसे युगादि अर्थात उगादी के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मु-कश्मीर, उत्तरप्रदेश, दिल्ली सहित कई राज्यों में इसे नवरात्र कहते हैं। इस पर्व को विभिन्न प्रदेशों में जहां अलग-अलग ढंग से मनाते हैं, वहीं उनके खाने के शौक भी भिन्न होते हैं। इस समय दक्षिण भारतीय राज्यों में श्रद्धालु पच्चडी का सेवन करते हैं। पच्चडी को कच्चा नीम, आम के फूल, गुड, इमली, नमक और मिर्च के मेल से बनाया जाता है। वहीं उत्तर क्षेत्र में नवरात्रों पर फलाहार, शामक, साबुधाना की खीर का सेवन करते हैं। इससे रक्त का शौधन होकर शरीर व्याधियांे से मुक्त होता है। इतना ही नही नवरात्रों में नई फसल के आगमन पर घरों में खुशियों का माहौल भी होता हैं।
भारतीय नववर्ष एवं नव-संवत्सर का ऐतिहासिक महत्व भी है। हमारे तपस्वी पूर्वजों ने इस दिन की प्राकृतिक महत्ता को समझते हुए, इसे हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक पन्नों में जोड़ दिया है ताकि हमारी भावी पीढ़ियां इसे जीवन का अंग बना सके। सत्य सनातन वैदिक शास्त्रों के अनुसार 1,96,08,53,126 वर्ष पूर्व भारत की इसी धरा पर सृष्टि की रचना हुई थी। इसके उपरान्त निरंतर सृष्टिक्रम चलता आ रहा है। विभिन्न कालखंडों में अनेक यशस्वी राजाओं और महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है। उन्होंने लोगों के जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए अपनी संस्कृति के प्रसार हेतु अनेक प्रयास किए। इस दिन के महत्व को समझते हुए भगवान श्रीराम ने लगभग 9 लाख वर्ष पूर्व लंका विजय के उपरांत चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अयोध्या का राज सिंहासन ग्रहण किया था। महाभारत युद्ध के उपरांत महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था।
इसके साथ ही भारत के इतिहास की एक बड़ी घटना भी इसी दिन घटित हुई थी, जिसको कम लोग जानते होंगे। यह माना जाता है महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात 3045 वर्ष विक्रमी सम्वत पूर्व कलियुग का आरम्भ हुआ था। इसी दिन कलियुग प्रारम्भ होने से ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्राण त्यागकर देवलोक को गमन किया था। इस संबंध में मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि लगभग 5127 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण इसी दिन धरा को त्याग गए थे।
महाभारत काल के बाद देश में महान एवं तपस्वी राजा वीर विक्रमादित्य हुए हैं, उनका राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हुआ था। देश के इस महान सपूत एवं प्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य के नाम से आरम्भ हुए वर्ष को विक्रमी सम्वत कहा जाता है, जिसे 30 मार्च 2025 को आरम्भ हुए 2082 वर्ष हो गए हैं। महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। अभी भी विद्यालयों में दाखिले और व्यापारियों के बही-खातों का आरम्भ होता है। इस तरह नवरात्र हमारे देश के महान और सृष्टि सृजन का त्यौहार है। परन्तु आज हम अपनी प्राचीन संस्कृति और मान्यताओं को भूलते जा रहे हैं, जिसके कारण हमारे आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन हुआ है। अतः भारतीय समाज और जनमानस के लिए यह विचारणीय विषय है। अंत में मैं कहना चाहूंगा कि...
मंद-मंद धरती मुस्काए, मंद-मंद बहे सुगंध।
ऐसा ‘नवरात्र’ त्यौहार हमारा, सबके हो चित प्रसन्न।।
डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’