भारत ऋषि परम्परा से अनुप्राणित दिव्य भूमि रहा है। इस दिव्य परम्परा में योगिराज शिव तथा ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यंत ऋषियों ने अपनी मनीषा से विश्व को आध्यात्मिक तथा भौतिक विज्ञान से साक्षात्कार कराया है। श्रीकृष्ण के अलौकिक जीवन में मानव जीवन की सम्पूर्णता दृष्टिगोचर होती है। श्रीराम ने जहाँ अपने जीवन से सामाजिक मर्यादाओं को स्थापित किया वहीं श्रीकृष्ण ने मानवमात्र को कर्म की महता के प्रति अनुप्रेरित किया है।
आर्य कृष्ण कुमार ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित पर आधारित ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ लिखा है। मैंने इस पुस्तक की मूल प्रति अच्छे से पढ़ी है। लेखक, पुस्तक में श्रीकृष्ण के जीवन तथा इतिहास के साथ न्याय करते हुए नज़र आ रहे हैं। श्रीकृष्ण चरित से सम्बन्धित फैले भ्रामक विचारों से अन्तरिक्ष को कुलीन करने का उद्देश्य लेखक ने प्रारम्भ में ही घोषित कर दिया है।
श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भ्रम फैलाने का सबसे अधिक काम ’सुखसागर’, ’प्रेमसागर’ तथा ’भागवत पुराण’ आदि पुस्तकों के प्रचारक एवं कथावाचकों ने किया है। इन सबने माखन चोर, मटकी फोड़, रास रचैया तथा नचकैया आदि आक्षेप लगाकर श्रीकृष्ण को उच्छृंखल ठहराने का प्रयास रहा है। लेखक लिखता है कि ‘योगबल से स्वयं को तपाने वाले श्रीकृष्ण का चरित्र अग्नि में तपे सोने के समान था, जिन पर कोई आक्षेप ठहर ही नहीं सकता।’ श्रीकृष्ण ने अनेक युद्धों का संचालन करते हुए भी कभी अपनी दिनचर्या का त्याग नहीं किया। अतः वह जीवनपर्यन्त एक महान् अग्निहोत्री, महान् योगी, महान् वैज्ञानिक तथा महान् ब्रह्मचारी बने रहे।
लेखक ने पुस्तक के माध्यम से अनेक अनसुलझी गुत्थियों को सुलझाने का भी सफल प्रयास किया है। उदाहरणतः ’श्रीकृष्ण की आत्मा के विषय में धारणा है कि वह क्षीर सागर में निवास करती थी।’ यहाँ लेखक क्षीर सागर को मोक्ष के रूप में व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि क्षीर सागर वह स्थान है जहाँ निरन्तर पवित्रता हो। यहाँ पर जीवात्माएं अपनी ज्ञानन्द्रियों से विभिन्न रसों की अनुभूति करते हुए स्वच्छन्द विचरण करती हैं। ऐसा वह स्थान केवल अन्तरिक्ष ही हो सकता है। जो विशुद्ध है, सीमातीत और सदैव है। श्रीकृष्ण जैसी अनेक आत्माएं वहां से ही ब्रह्मांड की घटनाओं को निहारती रहती हैं।
भागवत आदि पुस्तकों में भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का घृणित व्याख्यान है। महाभारत में युवा श्रीकृष्ण और उसके बाद के जीवन एवं कार्यों का वर्णन है। इन ग्रन्थों में श्रीकृष्ण का अपूर्ण जीवन मिलता है। किन्तु लेखक ने अपनी विवेकशील लेखनी से भगवान श्रीकृष्ण जी के जन्म से पूर्व की परिस्थितियों से लेकर निर्वाण गमन तक के सम्पूर्ण जीवन को सप्रमाण क्रमबद्ध प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है। लेखक ने जहां जैन परम्परा के ग्रन्थों को उद्धृत किया है, वहीं ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी (पूर्वजन्म के श्रृंगी ऋषि) के सुषुप्ति अवस्था में दिए गए प्रवचनों से महत्त्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
लेखक ने श्रीकृष्ण की वंशावली को बड़े पुरुषार्थ तथा प्रामाणिकता से प्रस्तुत कर जहाँ हमारे प्राचीन इतिहास का गौरव बढ़ाया है वहीं श्रीकृष्ण के द्वारा किये अद्भुत कार्यों का प्रभावी ढंग से प्रस्तुतिकरण किया है। ऋषि सांदीपनि के गुरुकुल में विद्याध्ययन, गृहस्थ जीवन तथा युद्धों में रहते हुए भी श्रीकृष्ण की दिनचर्या कैसे नियमित थी, यह केवल इसी पुस्तक में मिलेगा अन्यत्र कहीं नहीं। पुस्तक के पठन में कहीं-कहीं तो पाठक शून्य सी अवस्था में पहुँच जाता है। यथा द्वारिका में यदुकुल का विनाश तथा श्रीकृष्ण का निर्वाण प्रकरण बहुत मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी है। सारांश रूप में कहूँ तो लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन चरित के प्रत्येक प्रकरण को कुशल शिल्पी की भाँति प्रामाणिक तथा प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।
इस पुस्तक को लिखने के लिए लेखक के पुरुषार्थ की प्रशंसा करता हूँ तथा उनके सुन्दर स्वास्थ्य एवं उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। विश्वास हैं कि पाठक ‘कृष्णश्रुति-कर्मयोगी कृष्ण’ को पढक़र भगवान श्रीकृष्ण के जीवन तथा इतिहास पर गर्व करेगा। मेरी इच्छा है कि यह पुस्तक प्रत्येक घर में तथा प्रत्येक युवा एवं विद्यार्थी के हाथ में पहुंचे, जिससे वे श्रीकृष्ण के आदर्श चरित्र को समझकर अपने स्वयं के जीवन को ऊँचा उठा सकें।
इस सफल लेखन पर मैं, लेखक श्री कृष्ण कुमार आर्य जी को पुनः हृदय से शुभ आशीर्वाद प्रदान करता हूं।
मंगलाभिलाषी
संत विदेह योगी, महर्षि दयानन्द सेवा सदन, कुरुक्षेत्र, हरियाणा
कृष्ण आर्य