Tuesday, June 29, 2010

याद

याद पुरानी  
जी चावै के ! नाच ल्यूं ?  

मोर मचाये शोर

मोर मचाये शोर
ये आया रे ! झूम के


Tuesday, June 22, 2010

निर्जला एकादशी

एक तप  

                                  

        देश में त्यौहारों व व्रतों को अपना महत्व है। इनको अलग-अलग ढ़गों व तरीकों से मनाया जाता है। इन्हीं में से एकादशी के व्रत में भी लोगों की अगाध श्रद्घा है। एकादशी कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष के दौरान प्रत्येक माह में दो बार आती है। अनेक व्यक्ति इन सभी एकादशी का व्रत रखते हैं। परन्तु ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति सभी एकादशी का व्रत नही करते या नही कर सकते वे इस निर्जला एकादशी का व्रत कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं।
         निर्जला एकादशी ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष में आती है। इस व्रत को अधिकतर महिलाएं ही रखती है। यह व्रत एकादशी को सूर्योदय से लेकर द्वादशी के सूर्योदय तक करीब 24 घंटे की अवधि तक रखा जाता है। व्रत के दौरान व्रती केवल एक बार ही पानी ग्रहण करते है। इसलिए इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस निर्जला एकादशी को भीमा या भीम एकादशी के नाम से भी पुकारा जाता है।
        पौराणिक मान्यताओं के अनुसार निर्जला एकादशी का व्रत रखने से महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और इससे उनके घर व परिवारों में आयु, आरोग्यता, धन, दौलत, पुत्र-पौत्रादि व सुखों की वर्षा होती है। महिलाएं सुन्दर परिधानों व 16 श्रृंगारों से सजकर व्रत को सम्पन करने के लिए ब्राह्मणों भोजन, वस्त्रत, छतरी, जूते व अन्य वस्तुओं का दान करती है। इस व्रत के दौरान वे जल की बजाय दूध व फलादि का प्रयोग करती है। वैसे एक बार में लिया जाने वाला जल की मात्रा भी अधिक नही होती है। जल की यह मात्रा सरसों के एक बीच को भिगोने जितनी होती है। इसको यदि आंका जाए तो यह एक बूंद से भी कम होगी। व्रती को पूरे 24 घंटे इसी एक बूंद पानी में गुजारने होते हैं।
        निर्जला एकादशी को लोग बड़ी श्रद्घा से मनाते है। मंदिर, शहर, मौहल्लों, सड़कों और निर्जन राहों व स्था्नों पर आने जाने वाले राहगीरों, पशु व पक्षियों के लिए पानी की छबीलें लगाई जाती है और उन्हें पानी पिलाया जाता है। इस एकादशी को गांवों में खरबूजों से भी जोड़ कर देखा जाता है। गांवों मे इसे ‘खरबूजे खानी ग्यास’ के नाम से भी जाना जाता है। खरबूज में पानी मात्रा सबसे अधिक होती है। इसलिए खरबूजा ज्येष्ठ माह में निर्जला रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी को भी यह पूरा करता है।
        निर्जला एकादशी के व्रत को महाभारत काल के महर्षि वेदव्यास से जोड़कर भी देखा जाता है। बताया ‌जाता है कि महाभारत युद्घ के पश्चात एक दिन महर्षि पांडवों को एकादशी का महत्व बता रहे थे। उन्होंने कहा कि व्यक्ति द्वारा प्रत्येक एकादशी का व्रत रखने से उनकी प्रतिभा में निखार व सभी मनोकामना पूर्ण होती है। निर्जला पर भीम ने एतराज जताते हुए कहा कि पितामह! मेरे लिए तो प्रत्येक एकादशी का व्रत रखना सम्भव नही है, क्योंकि मुझे भूख बहुत लगती है और मैं भूख सहन नही कर सकता।
         इस पर वेदव्यास ने उन्हें ज्येष्ठ माह में आने वाली एकादशी को निर्जला रखने की बात कही, जिसको उन्होंने मान लिया। उन्होंने निर्जला एकादशी के दिन पानी पीने, उसके बहाव व बचाव रखने की बात कही। भीम की सहमति के मिलने कारण इस व्रत को भीम व्रत या भीम एकादशी व्रत के नाम से जाना जाता है। यह बहुत बड़ा व्रत है इसलिए भी इसे भीम यानि बड़ा व्रत कहा जाता है।
       महर्षि का यहां यह मानना भी हो सकता है कि व्यक्ति को एकादशी व त्रयोदशी के दिन-रात के दौरान अपने शरीर के अमूल्य पानी (वीर्य) का क्षय नही करना चाहिए और न ही इस दिन गर्भादान क्रिया करनी चाहिए। ऐसा करने से संतान में अनेक दोष हो जाते है। इस एकादशी को इसलिए भी निर्जला एकादशी कहा गया होगा। निर्जला एकादशी हमें यह संदेश भी देती है कि व्यक्ति को संसार में रहते हुए भी पूरी तरह निर्जला रहना चाहिए। जिस प्रकार कमल का फूल जल में रहता हुआ भी उससे ऊपर होता है उसी प्रकार मनुष्य को सांसारिक बु‌राईयों से ऊपर उठकर संसार में रहना चाहिए, तभी यह व्रत फलदायी होगा।  
                                                                 कृष्ण के. आर्य
 

कर्म

         या... ‘भस्मान्तम् शरीरम्’

     मानव जीवन में कर्म की अति महत्ता है। कर्म व्यक्ति को जहां जीने की सही कला सिखाता है वहीं कर्म ही व्यक्ति के जीवन स्तर को नीचे गिरा देता है। कर्म की विषमताओं के कारण ही जीवात्मा बार-बार जन्म लेता है। जीवात्मा द्वारा उसके विभिन्न जन्मों में किए गए कर्मों के आधार पर ही भगवान ने उसे दो अमूल्य तत्व भेंट किए हैं। उनमें एक है ‘शरीर’- जिसमें जीवात्मा एक नि‌श्चित समय तक वास करता है और कर्म करते हुए अपना प्रारब्ध बनाता है। दूसरा है ‘प्राण’- जोकि शरीर को चलाते है। जिस प्रकार शरीर के बिना आत्मा कुछ नही कर सकता है उसी प्रकार प्राण के बिना शरीर भी व्यर्थ हो जाता है और उसे ‘भस्मान्तम् शरीरम्’ भस्म कर दिया जाता है। शरीर व प्राण दोनों जीवात्मा द्वारा किए गए कर्मों का प्रतिफल होते है। अच्छे व शुभ कर्म करने से शरीर सुन्दर व आयु लम्बी मिलती है, जबकि बुरे कर्मों के फलस्वरूप शरीर कुरूप व अल्पायु प्राप्त होती है।
         इस संसार में कर्म के द्वारा बड़ी से बड़ी वस्तुओं को प्राप्त किया जा सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कर्म करते हुए भी व्यक्ति लक्ष्यित वस्तु को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है तो इसके पीछे भी कर्म की न्यूनता और कर्ता के प्रारब्ध कर्मों का परिणाम ही होता है। शास्त्रों , ऋषि, मुनियों और कवियों तक ने कर्म की महानता पर बल दिया है। शास्त्रों में कर्म से जी चुराने वाले व्यक्ति को ‘अकर्मा दस्यु’ कहा गया है यानि कर्महीन व्यक्ति राक्षस के समान होता है। कर्म से भागने वाले व्यक्ति को शास्त्रय भी अच्छा नही मानते क्योंकि कर्म ही व्यक्ति के जन्मजन्मान्तरों का आधार होता है। इसकी शुन्यता से संसार चक्र थम सकता है और सृष्टि का ह्रास होने लगता है। इसलिए कर्म करना प्रत्येक जीव के लिए अति आवश्यक है।
कर्म जीवन का आधार है। कर्म के द्वारा ही व्यक्ति बड़ी से बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। कर्महीन व्यक्ति कभी अपने लक्ष्य की प्राप्ती तो दूर उसके आसपास भी नही पहुंच सकते है। कर्म के विषय में एक कवि ने कहा है कि
‘सकल पदार्थ सब जग माही, कर्महीन नर पावत नाही’
अथार्थ इस संसार में सभी प्रदार्थ विद्यमान है परन्तु कर्महीन व्यक्ति उसे कभी प्राप्त नही कर सकते है। इसलिए कर्म प्राणी के जीवन की ज्योति है, जोकि कर्म करने से जलती रहती है और कर्महीन होने से यह ज्योति भी मन्द पड़नी शुरू हो जाती है।
        कर्म की गति बड़ी सूक्ष्म होती है। इसको समझना इतना आसान नही है। कर्मफल का ज्ञान तो ओर भी कठिन है। कभी-कभी बड़े-बड़े साधू, संत और उच्च श्रेणी के योगी इसमें मात खा जाते हैं और कर्मों के चक्करव्यूह में फंसकर, जन्म मरण के चक्कर काटते रहते है। यह तो सभी जानते है कि सभी प्राणियों में आत्मा का निवास होता है, जो अपने कर्मों से भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है। इसे कर्मों का ही परिणाम माना जाएगा कि एक व्यक्ति जन्म से अंधा, काना, लंगड़ा, लूला और अनेक भंयकर बिमारियों से ग्रसित पैदा होता है, जबकि दूसरा सम्पूर्ण स्वस्थ होकर जीवन के सभी सुखों का उपभोग करता रहता है। कर्मों के परिणामस्वरूप ही आत्मा गधे, कुत्ते, सुअर तथा स्थागवर इत्यादि अनेक निम्न योनियों (जातियों) में पैदा होता है और दुःखों को भोगता है। इसे भी कर्मों का ही परिणाम कहेंगे की मानव योनि में जन्म लेकर एक आत्मा पूरा जीवन सड़क किनारे झुठे पत्ते खाकर गुजारा करता है, वहीं एक कुत्ते की योनि (जाति) में पैदा हुआ आत्मा एसी गा‌ड़ियों में चलता हैं।
         कर्म की महानता किसी से छिपी नही है। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में कर्मयोग की महानता पर प्रकाश डाला है। गीता में कहा गया ‌है कि पातंजलि योग के आठ अंग तो शरीर का शोधन कर आत्मा को पवित्र करते है, जबकि कर्मयोग द्वारा व्यक्ति का प्रारब्ध बनाता है। यही प्रारब्ध कर्म आत्मा को सुन्दर शरीर व उत्कृष्ट परिस्थितियां प्रदान करता है। प्रारब्ध के आधार पर ही आत्मा को उसका भला या बुरा जन्म प्राप्त होता है। इसलिए कर्मयोग की महत्ता योगदर्शन में समाहित योग से भी ज्यादा प्रभावी होता है। ऋषियों ने कर्म को मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभिक्त किया है। इन्हीं तीन प्रकार के कर्मों से आत्मा जन्मों से लेकर मोक्ष तक पहुंचने के लिए गति करता रहता है। ये तीन प्रकार के कर्म इस प्रकार हैं- 1. क्रियमाण 2. प्रारब्ध 3. संचित
1. क्रियमाणः ये ऐसे कर्म होते हैं, जिन्हें हम इस जन्म में करते है। प्रतिदिन किए जाने वाले कर्मों को क्रियमाण कर्म कहा जाता है। क्रियमाण कर्मों को चार भागों में बांटा गया है।
• अकर्मः अपने लिए किए गए कर्मों को अकर्म कहते है यानि ऐसे कर्म जिनसे किसी दूसरे को न लाभ हो और न ही हानि हो वे अकर्म की श्रेणी में आते हैं। जैसे भूख लगने पर भोजन करना, प्यास लगने पर पानी पीना या अपनी दिनचर्या में शामिल अन्य कर्म करना होता हैं। इन कर्मों को नित्य कर्म भी कहा जाता है। इन कर्मों का प्रभाव भी आत्मा पर पड़ता है।

• कर्मः वे कर्म जो दूसरों की भलाई के लिए किए जाते हैं, जिनमें अन्य जीवों का लाभ समाहित होता है उन्हें कर्म कहा जाता है। जैसे दूसरों की सहायता करना इत्यादि।
• विकर्मः ऐसे कर्म जिनसे अन्य प्राणियों की हानि होती है, उनको किसी भी तरह की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है उन्हें विकर्म की श्रेणी में शामिल किया गया है।
• सुकर्मः जो कर्म जीवात्मा को मोक्ष मार्ग पर ले जाने व आत्मा को बन्धन मुक्त करने वाले होते है उन्हें सुकर्म कहा जाता है।
2. प्रारब्धः उक्त सभी कर्मों का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव आत्माो पर पड़ता है, जो भावी जन्मों का कारण बनते है। इसे आत्मा का प्रारब्ध कहा जाता है। इसी प्रारब्ध के प्रतिफलस्वरूप आत्मा को अगला जन्म प्राप्त होता है। शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप अच्छा और अशुभ कर्मों से निम्न कोटि का शरीर प्राप्त होता है।
प्रारब्ध को उच्चकोटि का बनाने के लिए तीन प्रकार के कर्म और किए जाते हैं। इसमें ‘नित्य कर्म, नैमितिक कर्म तथा काम्य कर्म’ शामिल हैं।

नित्य कर्मः उक्त अकर्मों को ही नित्य कर्मों की श्रेणी गिना जाता है। ये कर्म प्रतिदिन किए जाने वाले कर्म होते हैं।

नैमितिक कर्मः किसी त्यौहार या विशेष अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों को नैमितिक कर्म कहा जाता है। जैसे दीवाली, दशहरा इत्यादि पर किए जाने वाले कर्म इत्यादि।
काम्य कर्मः किसी विशेष कामना को लेकर ‌किए जाने वाले कर्मों को काम्य कर्म कहते है। जैसे लग्न उत्सव, नामकरण संसकार, पूत्रे‌‌‌ष्टि यज्ञ, वृष्टि यज्ञ इत्यादि।
3. संचितः आत्मा द्वारा जन्मजन्मान्तरों में किए गए सभी शुभाशुभ कर्मों के अंश मात्र उसके सुक्ष्म शरीर के साथ जमा होते जाते है, जिन्हें संचित कर्म कहा जाता है। ये कर्म आत्मा का बैंक बलैन्स है। जब आत्मा के संचित कर्म, फल देने लायक नही रहते तक आत्मा मोक्ष का सुख प्राप्त करने के लिए मुक्त हो जाती है। परन्तु जब तक आत्मा के संचित कर्म शेष रहते है तो वह जन्मों के बन्धन से घिरा रहता है और उसे उक्त सभी कर्म करते रहना पड़ता है।
      आत्मा को उर्ध्व गति प्रदान करने के लिए कर्म का विशेष स्था न होता है इसलिए स्वयं के उत्था न के लिए शुभ कर्म ही करने चाहिए, जिससे जीव, समाज व राष्ट्र सभी का भला होगा।                                                                           कृष्‍ण के. आर्य



Wednesday, June 9, 2010

जब से हुई है शादी

आंसु बहा रहा हूं,

जब से हुई है शादी, आंसु बहा रहा हूं,
आफत गले पड़ी है, उसको निभा रहा हूं।
बीवी मिली है ऐसी, वो काम क्या करेगी,
खुद लक्स में नहाकर, खुशबू में तर रहेगी,
टुकड़े बचे हुए है, उनसे नहा रहा हूं।
आफत गले पड़ी है, उसको निभा रहा हूं।
12 बजे गाड़ी में, मैडम जी सो रही हैं,
बच्चों की फौज आके, मेरी जां को रो रही है,
बच्चों के साथ बैठा, खाना पका रहा हूं,
आफत गले पड़ी है, उसको निभा रहा हूं।
सोई है वो पलंग पर, सर दर्द के बहाने,
किस की मजाल है जो, जाएं उसे उठाने,
यारो बुरा ना मानो, मै सर दबा रहा हूं,
आफत गले पड़ी है, उसको निभा रहा हूं।
दुनिया को ये पता है, बेगम का हूं मैं शोहर।
इस घर का मैं था मालिक, अब बन गया हूं नोकर।
बिस्तर लगा रहा हूं, चादर बिछा रहा हूं।
आफत गले पड़ी है, उसको निभा रहा हूं।।
जब से हुई है शादी, आंसु बहा रहा हूं,
आफत गले पड़ी है,उसको निभा रहा हूं।
अंग्रेजी शब्दों में लिखी यह कविता दर्द शायरी से ली गई परन्तु इसका हिन्दी रुपान्तरण मैनें कृष्ण आर्य ने किया है।

Jab Se Hui Hai Shadi…


Aansoo Baha Raha Hoon

Jab Se Hui Hai Shaadi
Aansoo Baha Raha Hoon
Aafat Gale Padi Hai
Usko Nibha Raha Hoon
Biwi Mili Hai Aisi
Vo Kaam Kya Karegi
Khud Lux Mein Naha Kar
Khushbu Mein Tar Rehegi
Tukde Bache Hue Hain
Unse Naha Raha Hoon
Aafat Gale Padi Hai
Usko Nibha Raha Hoon
Barah Baje Ghadi Mein
Madam Ji So Rahi Hain
Bacho Ki Fauj Aake
Meri Jaan Ko Ro Rahi Hai
Bacho Ke Saath Baitha
Khana Paka Raha Hoon
Aafat Gale Padi Hai
Usko Nibha Raha Hoon
Soyi Hai Vo Palang Par
Sar Dard Ke Bahane
Kis Ki Majaal Hai Jo
Jaaye Use Uthane
Yaaro Bura Na Mano
Mein Sar Daba Raha Hoon
Aafat Gale Padi Hai
Usko Nibha Raha Hoon
Jab Se Hui Hai Shaadi
Aansoo Baha Raha Hoon
Aafat Gale Padi Hai
Usko Nibha Raha Hoon…
Duniya Ko Yeh Pata Hai
Begum Ka Hoon Mein Shohar
Is Ghar Ka Mein Tha Malik
Ab Ban Gaya Hoon Naukar
Bistar Laga Raha Hoon
Chadar Bicha Raha Hoon
Aafat Gale Padi Hai
Usko Nibha Raha Hoon
From Dard Shayari , Sad Shayari

Thursday, June 3, 2010

कोशिश करने वालों की

हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
- हरिवंशराय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan) (few people think that it is from सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला")









सूर्य की गति का द्योतक है उगादी

          देश में मनाए जाने वाले त्यौहार भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता के परिचायक हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन,...