Wednesday, December 28, 2011

शब्द नही मिलते

          शब्द नही मिलते ?

एक विचार दिल में आया, लिखू मैं कुछ खाश,
सोच- विचार बैठा रहा, और करता रहा तलाश।
पहले ये लिखू या वो,  ऐसे भाव मन में आते,
थक-हार कर ‌बैठ जाता, जब शब्द नही मिल पाते।।
जीवन में हर व्यक्ति, चाहता है कुछ करना,
खुशियों के झरोखों से, पड़ता है कभी डरना।
अंधेर कोठरी की लौ में, हम स्वप्न देखा करते,
वे स्वप्न हम कैसे सुनाएं, जब शब्द नही मिलते।।
मां-बाप ने पाला हमको, छोड़ कर पीना-खाना,
बड़े होकर हमने फिर, त्याग दिया आना-जाना।
उन बुजूर्गों की बेबशी पर, चाहकर भी नही लिखते,
मैं लिखना तो चाहता हूं, पर शब्द नही मिलते।।
        प्रेम-पाश में बंद कर, सब कुछ दिखे झूठा,
        लड़के से लड़की बोले, है समाज बहुत खोटा।
        गात से मिले गात पर उनके, दिल कभी ना मिलते,      
        ऐसे प्रेम पर मैं क्या लिखूं, जब शब्द नही मिलते।।
सड़क किनारे ‌खड़ा बाल एक, बालों को यूं फाड़े,
भूख से पेट-कमर हुए एक, हर रा‌हगीर को पुकारे।
देख जनाब सब यह जाते, न हाथ मदद को बढ़ते,
कैसे कहूं दयनीय इसको, जब शब्द नही मिलते।।
बंसत में खिले फूलों से, महके हर एक क्यारी,
रंग-बिरंगे कुसुमों की, थी खुशबू अति न्यारी।
देख सूंघ कर मन हर्षाये, जब पुष्प वहां थे खिलते,
कैसे करू स्तुति इनकी, जब शब्द ही नही मिलते।।
एक शराबी बैठ अकेला, करता मद्यपान छुपके,
दूर खड़ा हो पुत्र भी, छोड़े धूएं वाले छल्लके।
ऐसे अनोखे पितृ पुजारी, मिलकर भी नही मिलते,
इस दशा पर मैं क्यू बोलू, जब शब्द नही मिलते।।
एक भिखारी एक पुजारी, मंदिर में संग आंये,
भिखारी भीख से पुजारी झूठ से, सीधों को बहकाये।
इनकी दोस्ती ऐसी निराली, मिल बैठकर थे खाते,
कृष्ण करे बड़ाई उनकी, जब शब्द उसे मिल जाते।
                               

                            कृष्ण कुमार ‘आर्य’


Monday, November 28, 2011

होत है-


                               होत है-

1.    अ से बनता अकार है, उ से उकार होत है।
        म से मकार होवे है, ओउम् बने सब जोत है।
2.     सुख का मूल धर्म है, धर्म मूल धन होत है।
        निग्रह से धन संचय होत, पर ‌सेवा मूल श्रोत है।   
3.      जल से शुद्घ होत शरीर, सत्य से शुद्घ मन होत है।
       विद्या व तप से रे मानव,     शुद्घ आत्मा होत है।।
4.     पांच कोसो की जीवनी, इनमें सब कुछ होत है।
        इनके बिना तो आत्मा की, ना जगी कभी भी जोत है।।
5.      अन्न, मन, प्राण, ज्ञान व आनन्द पांच कोस होत है।
इनसे ही है बने शरीर और निर्मल आत्मा होत है।।
6.      अन्न शरीर का आधार है, निग्रह मन से होत है।
        प्राण, ज्ञान से बुद्घि को, आनन्द घन सब ओत है।।
7.      चार चीजों की चमक चांदनी, जीवन लक्ष्य होत है।
        धर्म, अर्थ व काम तो,        सार मोक्ष का होत है।

                                        कृष्ण कुमार आर्य


Thursday, October 20, 2011

शुभ-कामनाएं

                                                                                         
                                      ‌ दिवाली की शुभ-कामनाएं
                                                                                                         
दीपोत्सव के अवसर पर, खुशियां मनानी रे।
शुभ कामनाएं हों आपको, आई दिवाली रे।।
दुःख मिटे सब आपणे, पर रोशनी लानी रे,
फूलों से करे क्रिड़ा, है रूह मुस्कानी रे,
अन्धेरों की राहे हमको, दीपों से सजानी रे,
पूर्ण होवे सब आशाएं, शुभ यह मनानी रे।
शुभ कामनाएं हों तुमको, आई दिवाली रे।।
वीर बहादूर बंदों ने भी, खूब मनाई दिवाली,
खुशियों के भी संग उन्होंने, दुखियां गले लगाली,
जीवन छोड़ दयानन्द ने, जग रोशन कर डाली,
विष का प्याला पीकर उसने, दी जन को खुशहाली।
शुभ कामनाएं हों सबको, आज दिवाली आली।।
लक्ष्मी पूजन करें सब, खाऐ हलवा पूरी,
घर की लक्ष्मी दुःखी होवे, क्यू खुशी मनाएं अधूरी,
बेटी-बेटा दोनों बैठे, रहे प्रेम की दूरी,
राम अयोध्या वापस आये, कर वन यात्रा पूरी।
शुभ कामनाएं हों सबको, है खुशी दिवाली जरूरी।।
धन बढ़े और बढ़े मुद्राएं, हर रोज हजारों में,
दिवा में दिनकर शशि रात में, जैसे रहे सितारों में,
चमके वैसे ही आप, दुनियों के बाजारों में,
सबसे आगे हों खड़े आप, लम्बी कतारों में।
शुभ कामनाएं हों आपको, ऐसे त्योहारों में॥
सूरज तपता दे खुशहाली, चांद रस बढाये,
जीवन पथ की शूल सभी, स्वतः खत्म हो जाए,
आशा भरी निगाहें तुम्हारी, खुशी हमेशा लाए,
धर्य और मेहनत से हमेशा, कष्ट आपके जाएं।
स्वीकार करो शुभकामनाएं हमारी, जब कृष्ण आर्य सुनाएं॥

कृष्ण कुमार ‘आर्य’


Tuesday, August 2, 2011

श्रृंगारों की तीज

                  श्रृंगारों की तीज



हमारे जीवन में त्यौहारों का विशेष महत्व है। इन त्यौहारों को यादगार बनाने के लिए महिलाएं काफी संजीदा होती है। महिलाएं अपने जीवन में त्यौहारों की भांति ही श्रृंगारों का रंग भरने की कोशिश करती है। महिलाएं स्वयं को खूबसूरत दिखाने के लिए खूब श्रृंगार करती हैं परन्तु अनेक ‌महिलाओं को पूरे श्रृंगारों की जानकारी तक भी नही होती, जिसके कारण वे स्वयं को दूसरों से पीछे महसूस करने लगती है।
        भारतीय समाज में 16 श्रृंगारों का विशेष स्थान है। विवाह शादियों या तीज त्यौहारों पर महिलाए इन श्रृंगारों से सज कर स्वयं को दूसरों से अलग दिखना चाहती है। ये श्रृंगार होते कौन से है, आओ इसका पता लगाए।
‌शरीर को कांतिमय बनाने के लिए उबटन महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे त्वचा और चेहरा दमक उठता है। शरीर में सफूर्ति और तेज का संचार होता है तथा चेहरे पर लगातार लगाने और रगड़कर हटाने से चेहरे की झुरियां व दाग धब्बे समाप्त हो जाती है। उबटन का‌ निर्माण हल्दी, बेसन, कमल के फूल, हरसिंगार के पुष्प को गाय के शुद्ध दूध में मिलाकर बनाया जा सकता है।
बिन्दी- 
विवाहित महिलाएं अपने माथे पर बिन्दी लगाती हैं, यह महिलाओं की सुन्दरता को बढाने का कार्य करती है। इसमें रोली, सिंदूर और स्टिकर बिन्दी भी लगाई जाती है।
सिंदूर-  
        यह लाल रंग का पाऊडर होता है, जिसको महिलाएं अपनी मांग में भरती है। यह सुहाग का ‌प्रतिक माना जाता है।
मांग टीका- 
        सुहागिनें अपनी मांग को पूर्ण करने के लिए बालों से ‌जोड़कर मांग टीका लगाती है। यह सोने का बना होता है। सोना माथे पर होने के कारण इससे मस्तिक शांत रहता है।   
काजल- 
        नेत्रों को सुन्दर और आकर्षक बनाने के लिए काजल का प्रयोग किया जाता है। अच्छे काजल से न केवल सुन्दरता ‌में निखार आता है बल्कि आंखों के रोगों को दूर करने में सहायता मिलती है। यह आंखों की बरौनियों तथा पलकों पर लगाया जाता है।
नथ-
        दुलहन को परम्परागत सौंदर्य प्रदान करने में नथ का विशेष महत्व है। यह बांये नथ में पहनी जाती है तथा सोनी की बनी होती है।
हार-
        हार या मंगल सूत्र को शुभ का प्रतिक माना जाता है। इसे गले में धारण किया जाता है तथा सोना का बना होता है। आजकल हार में रत्नों को जड़ा जाता है।
कर्ण पुष्प-
        कर्णपुष्प कानों में डाले जाने वाले सोने के रिंग होते हैं। इससे कानों की सुन्दरता बढती है। इसके अतिरिक्त शरीर को फूलों से सजाया जाता है। गले में फूलों की हार, कलाईयों पर फूलों या सोने के कंगन तथा बालों में फूलों के गजरे लगाये जाते हैं।
मेहंदी-
        मेहंदी एक ऐसा श्रृंगार है जो न केवल सुन्दर लगता है बल्कि शरीर के लिए लाभदायक भी होता है।  इसे अमुमन हाथों, अंगुलियों तथा हथेली पर लगाया जाता है। महावर भी एक प्रकार की मेहंदी ही होती है। इसको पांवों में लगाया जाता है। तीज पर महिलाएं विशेष तौर पर इसका प्रयोग करती है। इससे पांव सुन्दर दिखते हैं।
चूड़ियां-
        चूड़ियों को हाथों का गहना माना जाता है। यह सुन्दरता में बढौतरी करता है तथा इनके धारण करने से महिला या दुलहन नई नवेली दिखाई देती है। चूड़ियां प्रायः सोने, धातु या कांच की पहनी जाती हैं।
बाजूबंध-
        बाजूबंध बाजू के ऊपरी हिस्सों में धारण किए जाते हैं। इन्हें आर्मलैट भी कहा जाता है। इनका आकार चूड़ियों जैसा तथा थोडा भिन्न दिखाई देता है। आमतौर मुगल काल, जयपुरी या राजस्थानी बाजूबंध काफी प्रचलित हैं।
आरसी-
        आरसी भी अंगुठी ही होती है परन्तु इसे पांव के अंगूठे में धारण किया जाता है। इस पर आमतौर शीशा जड़ा होता है। इससे महिला या दुलहन स्वयं तथा अपने जीवन साथी की झलक देख सकती है।
केश सज्जा-
        महिलाओं में केश सज्जा एक विशेष श्रृंगार है। इससे महिलाएं सुन्दर व मनमोहक दिखाई देती है। बालों में सुगंधित व पौष्टिक तेल का प्रयोग करने से बालों की चमक बनी रहे। बालों का अच्छी तरह से बांधने से दुलहन और शोभामान हो जाती है।
कमरबंध-
        कमरबंध दुलहन की कमर पर बांधा जाता है, जिसको बैलेट भी कहा जाता है। यह रत्नों से जड़ित सोने या चांदी से बना होता है। इसको दुलहन के लिबास को कसने के लिए बांधा जाता है तथा यह दुलहन की सुन्दरता को भी बढाता है।
पायल-‌बिछवे-
        ये चांदी के बने होते हैं। पायल पांव के टकने पर डाली जाती है, जोकि एक चेन के साथ जुड़े कुछ घूंघरूओं से बनी होती है। बिछवे भी चांदी से बने होते है और हाथों की अंगुठियों की भांति इन्हें पांव की अंगुठियां माना जाता है।
इत्र-
        आजकल अनेक प्रकार के सुगंधित इत्र चले हुए है परन्तु पहले महिलाएं केसर जैसे सुगंधित पदा‌र्थों की लकीरे माथे पर लगाती थी, जोकि सुन्दरता व सुगंध को बढाती है।
       
स्नान का विशेष महत्व है, इसके करने से शरीर में ताजगी आती है। मौसम के अनुसार ठंडे या गुनगुने पानी से स्नान करना लाभदायक तथा शरीर को सुन्दरता प्रदान करने वाला होता है। पानी में गुलाब, केवड़ा या नींबू का रस मिलाने से शरीर की सुन्दरता में निखार आता है। मौसम, शरीर की प्रकृति और शारीरिक बनावट के अनुसार वस्त्रों का चयन करना एक महत्वपूण कलां है। सुन्दर व रेशमी वस्त्र महिलाओं या पुरूषों दोनों के सौंदर्य में चार चांद लगा देते है।
विवाह के समय दुलहन के मुहं से दुर्गंध न आए इसके लिए इलायची, लौंग या केसरयुक्त पान का सेवन किया जाता है। लाल होंठों का कौन कायल नही होता है। पहले महिलाएं इसके लिए दंद्रासा लगाती थी, जोकि मुख को स्वस्थ व होंठों को लाल रखता है। आजकल अनेक प्रकार की लिपस्टिक बाजार में है। महिलाएं दांतों को सुन्दर बनाने और मसूडों को मजबूत बनाने के लिए मंजन लगाती थी तथा दांतों के बीच की लकीरों को काला करती थी। चेहरे की सुन्दरता बनाने के लिए महिलाएं अपने चेहरे पर कोई कृत्रिम तिल भी बनवा लेती है। यह तिल एक काली बिन्दी या मशीन से उकेरा जाता है। जीवन में आभूषणों का भी विशेष महत्व है। आमतौर पर सोना, चांदी, प्लेटिनम जैसी धातुओं के आभूषण धारण किए जाते है। सोना पहनने से न केवल सुन्दरता बढती है बल्कि शारीरिक तौर पर लाभ होता है।



Monday, July 25, 2011

योगा ऑफ डोगा

योगा ऑफ डोगा (कुत्ता)

एक दिन हमने देखा, डोगा को करते योगा,
पर हर दिन सबने देखा, मानव को करते भोगा।
        हमने था एक जगह पढ़ा, भोगा है एक रोगा,
        भोगो की ओर भागे जोग, भोग नही जाए भोगा,
        भोग रहेगा वही पर, मानव हो जाए डोगा,
        तभी तो यह कहा है—‘भोगो न भोक्ता, व्यमेव भुक्ता’।
दोपहरी में क्या देखा तुमने, साधु को करते तपता,
तपने से भी नही तपा वो, पर हो गया सुखा पत्ता।
आत्मा के दोषों से मानव, नही कभी वह ऐसे छुटता,
तभी कहा शास्त्रों ने—‘तपो न तप्ता, व्यमेव तप्ता’।
        पढा यही था हमने भी, होती बलवति तृष्णा,
        तृष्णा है बड़ी बावरी, मन छलनी कर दे कृष्णा।
        कभी न पूरी होत यह, करवाती है बड़ी घीर्णा,
        यही कहा विद्वानों ने—‘तृष्णा न जीर्णा, व्यमेव जीर्णा’।
बीत रहा पल-पल मानव, काल नही बित पाता,
सुबह उठे जब शाम को आये, घर वहीं है पाता।
30 से बढ़कर 50 के हुए, हर साल है बढता जाता,
तभी तो कहा है मानुषों ने—‘कालो न याता, व्यमेव याता’।
सुख चैन सब कुछ छीना, हमें क्या करना होगा,
तो आइये सब मिलकर करें—‘योगा लाइक डोगा’।

                        कृष्ण के आर्य





--- क्या आप भी कर सकते हो इतना सुन्दर योगा--- 




Wednesday, June 15, 2011

दोहे


                         दोहे


कृष्णा तेरी झोपड़ी, गहन समुद्र पार। 
जाएगा सो पाएगा, मोती धो दो-चार।।
चलती धरती देखकर, कृष्णा यूं पछताए।
रात भर सोते रहे, सुबह वहीं मिल जाए।।
आज करे सो कल कर, कल करे सो परसो।
परसो भी हम क्यू करें, जब आयेगा दिन तरसो।।
जल्दी-जल्दी रे मित्रा, जल्दी कुछ ना होये।
जो तुम जल्दी करें, तो पास रहे ना कोये।।
प्रभू वो सब दीजिए, जिसमें जगत समाये।
पडोसी पे कुछ हो यदि, वो मेरे पास आ जाये।।
कृष्णा खडा दिवार पर, ना करे किसी से बैर।
पर है सभी से दोस्ती, ना मनाऊ किसी की खैर।।
पतरे पढ-पढ़ जग में, पंड़ित सब जन होये।
मैं क्यू पंड़ित तब बनू, जेब काटे हर कोये।।
ईंट पत्थर जोड़ कर, घर लिया हमने बनाये।
वृद्ध हुए मां-बाप तो, उनको दिया भगाये।।
बात करो जो साधु की, उसके पिता ना कोये।
ऊपर उठे जब साधु यदि, तो पिता सामने होये।।
पानी में बर्फ रहती, तारों में करंट बहता।
ऐसे ही तू समझ ले, अन्दर तेरे ही प्रभू रहता।।
अच्छा ढूढंन मैं चला, अच्छा मिला ना कोये।
जो मैंने खोजा स्वयं को, तो मुझसे अच्छा ना कोये।।

      कृष्ण आर्य

आज की परिस्थितियों के आधार पर ये दोहे कबीर जयंती के अवसर पर लिखे गए है।


Sunday, May 8, 2011

मातृ दिवस पर लिखित - माँ

 माँ

बचपन में जब हम छोटे थे,
मां की गोद के लिए रोते थे।
रोते-रोते सो जाते थे,
फिर सपनों में यह कहते थे, कि ये मेरी मां है, मेरी मां है।
सुबह उठकर माता मुझको,
दूध अपना पिलाती थी,
दूलार कर फिर मुझको माता,
छाती से लगाती थी, फिर हम ये कहते थे, ये मेरी मां है।
बाहर से जब बड़ा भाई आया,
गोद से उसने मुझको उतरवाया,
मां से उसने फिर खाने को मंगवाया,
गोद में बैठकर वह, फिर ये कहने लगा कि ये मेरी मां है।
इन्हीं हठखेलियों में हम,
पढ लिखकर हुए बड़े,
इसी संग माता के भी,
हाथ पांव लगे सिकुडने, फिर हम लगे कहने कि ये हमारी मां है।
छोटा बेटा बना बड़ा अधिकारी,
बड़ा बेटा हुआ अफसर सरकारी,
एक से बढ़ कर दूसरा समझे,
वृद्घ मां को आश्रय देने पर, फिर वे कहने लगे कि ये हमारी मां है।
एक शाम फिर ऐसी आई,
टहलते हुए मां ने चोट खाई,
इससे टांग में हुई खिचाई,
मां को साथ ले जाने को लेकर कहने लगे दोनों भाई कि ये हमारी मां है।
चोट का दर्द हुआ बड़ा भारी,
चलने फिरने में भी हुई लाचारी,
मां को दिक्कत थी बड़ी सारी,
सेवा के लिए फिर कहने लगे दोऊ भाई, ये तेरी मां है, तेरी मां है।
परेशान मां की परेशानी से,
परेशान हुए दोनों भाई,
देखरेख करने को उन्होंने बुला ली फिर अपनी ताई,
साथ ले जाने पर फिर वे लगे झगड़ने कि ये तेरी मां है।
बिमार मां को फिर दोनों ने,
वृद्घाश्रम दिया पहुंचाये,
दवाई बूटी पर खर्च के लिए,
हाथापाई करते हुए फिर वे कहने लगे कि ये तेरी मां है, तेरी मां है।

                                        कृष्ण आर्य

Thursday, March 31, 2011

नवरात्र


नवरात्र बन सकते है नवप्रभात, यदि...

भारत एक प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का देश है। यहां के लोगों द्वारा समय-समय पर विभिन्न त्यौहार मनाए जाते हैं। इन त्यौहारों के माध्यम से हम प्राचीन महापुरूषों तथा उनकी शिक्षाओं का स्मरण करते हैं। इससे समाज में नया जोश व उमंग भर जाता है। गांवों में एक सामान्य कथन आमतौर पर सुना जा सकता है, जिसके तहत त्यौहारों के आवागमन को दर्शाया गया है कि
आई तीज, बिखेर गई बीज।
आई होली, ले गई भर के झोली।।
देश में हर वर्ष अप्रैल से मार्च माह तक दर्जनों त्यौहार मनाए जाते है। ये त्यौहार हरियाली तीज से शुरू होते हैं और जन्माष्टमी, अहोई अष्टमी, दूर्गाष्टमी, दशहरा दीवाली और होली पर समाप्त हो जाते है। इसी दौरान मार्च व अक्तुबर में वर्ष में दो बार नवरात्रों को लोग बड़े चाव से मनाते है। नवरात्रों में लोग देवी दुर्गा माता की पूजा-अर्चना करते है और उनके आर्शीवाद के लिए उपवास रखते हैं।
अधिकतर लोगों द्वारा नौ दिनों तक मनाए जाने वाले नवरात्रों को मनाने के तरीके अमूमन एक जैसे ही होते हैं और उनमें से एक तरीका है उपवास (व्रत) रखने का! नवरात्रों के दौरान श्रद्घालु वर्ग में से कुछ लोग सभी नवरात्रों का व्रत रखते है, तो कुछ एक, दो या इससे अधिक दिन तक भूखे रह कर माता के दरबार में मन्नत मांगते है। नवरात्रों पर वैदिक और पौराणिक दो प्रकार की मान्यताएं हैं। आम आदमी इन्हीं को सामने रखते हुए नवरात्रों में माता की पूजा करते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में महिषासुर नामक एक राक्षस हुआ करता था, जिसने चारों ओर उत्पात मचा रखा था। उसने देवताओं (श्रेष्ठ लोगों) को बन्दी बनाया और उन पर अत्याचार करने लगा। मुसिबत में फंसे देवताओं ने उससे छुटकारा पाने के लिए दुर्गा माता की उपासना और प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। देवताओं की प्रार्थना पर दुर्गा माता शेर पर सवार होकर ‘अष्टभुज’ रूप धारण करके महिषासुर का अन्त कर दिया। उसी समय से लोग इन दिनों को दुर्गा दिवसों अर्थात नवरात्रों के रूप में मनाते हुए माता की पूजा करते हैं।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र (मार्च माह)और आश्विन माह (अक्तुबर) के शुक्ल पक्ष में नवरात्र मनाए जाते है। इन दिनों मौसम की समावस्था होने के कारण गर्मी या सर्दी की अधिकता नही होती अर्थात यह समय गर्मी व सर्दी के आवागमन का होता है। चैत्र मास में पृथ्वी की गति तेज हो जाती है और सुर्य की गति धीमी होने लगती है। इसके कारण दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती है। सूर्य उत्तरायण में निकलने लगता है। इसके विपरित आश्विन मास में पृथ्वी और सूर्य दोनों की गति पर विपरित प्रभाव पड़ने से सूर्य दक्षिणायण में निकलने लगता है। परिणामतः दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती है।
यह समय नई फसल के आगमन का भी होता है, जिससे प्रत्येक घर खुशियों से भरा होता है। सभी लोग अपने-2 घरों में यज्ञादि शुभ कार्यों से परमपिता परमात्मा का आभार व्यक्त करते हैं। इन्हीं यज्ञों के अनुष्ठान से ही पृथ्वी की समावस्था को गति मिलती है।
ऋषियों और प्राचीन मान्यताओं को आधार माना जाए तो इन नवरात्रों में 9 प्रकार के यज्ञ किए जाते हैं। इन 9 यज्ञों को ही दुर्गा माता के नवरूपों के तौर पर माना गया है। मां दुर्गा के लिए किए जाने वाले ‘ब्रह्म यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शिव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, कन्या यज्ञ, वृष्टि यज्ञ, पुत्रेष्टि यज्ञ, सोमभूमि यज्ञ तथा अनुकृति यज्ञ सहित इन 9 यज्ञों में माता के दर्शन समाहित है।
शास्त्रों के अनुसार परमात्मा के गुणों का मनन, चिन्तन तथा स्वाध्याय करना ‘ब्रह्म यज्ञ’ कहलाता है। इनसे सदगुणों को जीवन में उतार कर दूसरों की रक्षा करना, उनका पालन व दुरितों का विनाश करना तथा विद्या प्राप्ति से स्वयं व दूसरों को आप्त पुरूषों के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना ही ‘विष्णु यज्ञ, शिव यज्ञ तथा ऋषि यज्ञ’ कहा गया है। दुर्गा माता के एक रूप को पृथ्वी एवं प्रकृति भी कहा गया है, इसी प्रकार कन्या को भी पृथ्वी कहा गया है। इस लिए अपने शुभ कार्यो द्वारा कन्या को पुष्ट करना तथा समय पर वर्षा होने व करवाने को ‘कन्या यज्ञ व वृष्टि यज्ञ’ कहते है।
देश, धर्म व मातृशक्ति का सम्मान करवाने वाला गुणवान, सदाचारी और मानवमात्र के लिए कार्य करने वाले पुत्र की प्राप्ति ही ‘पुत्रेष्टि यज्ञ’ होता है। वर्षा से सर्वसाधारण, गरीबों, किसानों व जरूरतमंदों की अन्न जल और औषधियों से रक्षा करना और करते ही रहना ‘सोमभूमि यज्ञ तथा अनुकृति यज्ञ’ कहलाता है। इन्हीं 9 यज्ञों को ही दुर्गा मां के 9 रूप माना गया है, जिन्हें नवरात्रों की परिभाषा भी जाती है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने गीता उपदेश में कहा है कि-
‘अष्टचक्राः नवद्वाराः देवनाम् पुःयोध्या’
भगवान श्री कृष्ण ने मानव शरीर को आठ चक्रों और नवद्वारों से बनी दिव्य नगरी माना है। ‘मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, हृदय चक्र,  विशुद्घि चक्र, सौषुम्ण ज्योति चक्र तथा चक्र दर्शन’ मानव शरीर के आठ चक्र है, जिन में ध्यान लगा कर व्यक्ति परमात्मा का आभास कर सकता है। नवद्वारों में ‘कान, आंखें, नाक (प्रत्येक दो), त्वचा तथा मल व मूत्र इंद्रियां मानव शरीर के 9 द्वार है। इन सभी चक्रों एवं द्वारों के योग से ही इस अयोध्या नगरी रूपी शरीर का निर्माण होता है। इन द्वारों पर संयम रखने से ही व्यक्ति परमात्मा तथा दुर्गा माता का आर्शीवाद प्राप्त करने का अधिकारी होता है। मानव शरीर का अध्ययन कर ही महर्षि मनु ने प्राचीन काल की अयोध्या नगरी का निर्माण कराया था।
गीता में आहार, निंद्रा और ब्रह्मचर्य के तप व नवद्वारों के शोधन से मानव शरीर रूपी इस अयोध्या नगरी को शोधित करने का उपदेश है। जिस प्रकार नवरात्रों में दुर्गा के नवयज्ञों द्वारा वायुमंडलीय गन्दगी को धोया जाता है, ठीक उसी प्रकार नवरात्रों में मनुष्यों को अपने नवद्वारों की वासनाओं पर काबू में रखना चाहिए, जिससे मां दुर्गा का आर्शीवाद सहजता से प्राप्त हो सके।
प्राचीन आचार्यों ने नवरात्रों की तुलना माता के गर्भ के नवमासों से भी की है, जहां मल और मूत्र की अधिकता होती है। इस दौरान यहां रूद्र रमण करते है, नाना रूपों में विभिन्न धाराएं मानो ठहर जाती है, जहां अन्धकार ही अन्धकार होता है। यही नवरात्र हैं यानि माता के गर्भ की 9 रातें।
इन्हीं नवरातों (नवमासों) में आत्मा, माता के गर्भ की काल कोठरी में वास करती हुई अपने शरीर का निर्माण करवाती है। यह सिलसिला जन्मजन्मान्तरों में चलता रहता है। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य, दुर्गा मां की अष्ट भुजाओं को अपना सकते है। इससे मानव अपने नवद्वारों का शोधन कर सकता है।
माता दुर्गा की ये आठ भुजाएं, महर्षि पांतजलि के योगदर्शन के वही आठ अंग है, जिनको अपना कर आत्मा ऊर्धव गति को प्राप्त होता है। योगदर्शन के ये आठ अंग है- ‘यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि’ हैं। महर्षि पांतजलि के अनुसार आत्मा इन्हीं आठ भुजाओं को अपना कर जन्मजन्मान्तरों तक माता के गर्भ में आने वाली आत्मा को उसके प्रारब्ध से छुटकारा दिला देती हैं और मुक्त हो जाती है। माता के गर्भ की इन नवरातों से छुटकारा पाकर ही आत्मा, परमात्मा के अमृतमय कोश मोक्ष यानि ‘नवप्रभात’ का अधिकारी बन जाता है।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार महिषासुर नामक कोई राक्षस नही था बल्कि हमारी आत्मा को मलिन कर रही मन की दूषित वृतियां ही महिषासुर है। इन दुःवृतियों ने ही देवताओं जैसी हमारी मन, बुद्घि, चेतना और शुभ संकल्पों को बंदी बना रखा है। शुभ विचारों के जागृत होने पर ये सभी आत्मा रूपी दुर्गा मां से इन राक्षसी दुष्वृतियों से रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं।
इनकी आवाज सुनकर आत्मा रूपी दुर्गा मां अष्टभुज रूप धारण कर यानि योग के आठ अंगों को अपनाकर और शेर रूपी प्राण पर सवार होकर आती है तथा मन व बुद्घि की दूषितवृतियों का नाश करती है।
महर्षि पांतजलि ने कहा कि प्राणायाम की सहायता से ही मन व बुद्घि के समस्त दोष नष्ट हो जाते है क्योंकि ‘ प्राणायामः परमम् तपः’ अर्थात प्राणायाम से बडा कोई तप नही है। यही प्राण हमारी दुर्गा मां ‘आत्मा’ का शेर है, जिस पर सवारी करके, अपने मन की महिषासुर नामक राक्षस जैसी दुष्वृतियों का विनाश किया जा सकता है। नवरात्रों (प्रतिदिन)के दिनों में यदि हम स्वयं को ‘ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकरार’ का त्याग और योग की आठ भुजाओं को अपनाएगें तो हम अपनी आत्मा पर जमे मैल को उतारने में सफल होंगे। यदि हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो यही नवरात्र, हमारे लिए नया सवेरा लेकर आएंगे और ‘नवप्रभात’ का कार्य करेंगे।

                                  कृष्ण कुमार आर्य

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