Thursday, March 31, 2011

नवरात्र


नवरात्र बन सकते है नवप्रभात, यदि...

भारत एक प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का देश है। यहां के लोगों द्वारा समय-समय पर विभिन्न त्यौहार मनाए जाते हैं। इन त्यौहारों के माध्यम से हम प्राचीन महापुरूषों तथा उनकी शिक्षाओं का स्मरण करते हैं। इससे समाज में नया जोश व उमंग भर जाता है। गांवों में एक सामान्य कथन आमतौर पर सुना जा सकता है, जिसके तहत त्यौहारों के आवागमन को दर्शाया गया है कि
आई तीज, बिखेर गई बीज।
आई होली, ले गई भर के झोली।।
देश में हर वर्ष अप्रैल से मार्च माह तक दर्जनों त्यौहार मनाए जाते है। ये त्यौहार हरियाली तीज से शुरू होते हैं और जन्माष्टमी, अहोई अष्टमी, दूर्गाष्टमी, दशहरा दीवाली और होली पर समाप्त हो जाते है। इसी दौरान मार्च व अक्तुबर में वर्ष में दो बार नवरात्रों को लोग बड़े चाव से मनाते है। नवरात्रों में लोग देवी दुर्गा माता की पूजा-अर्चना करते है और उनके आर्शीवाद के लिए उपवास रखते हैं।
अधिकतर लोगों द्वारा नौ दिनों तक मनाए जाने वाले नवरात्रों को मनाने के तरीके अमूमन एक जैसे ही होते हैं और उनमें से एक तरीका है उपवास (व्रत) रखने का! नवरात्रों के दौरान श्रद्घालु वर्ग में से कुछ लोग सभी नवरात्रों का व्रत रखते है, तो कुछ एक, दो या इससे अधिक दिन तक भूखे रह कर माता के दरबार में मन्नत मांगते है। नवरात्रों पर वैदिक और पौराणिक दो प्रकार की मान्यताएं हैं। आम आदमी इन्हीं को सामने रखते हुए नवरात्रों में माता की पूजा करते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्राचीन काल में महिषासुर नामक एक राक्षस हुआ करता था, जिसने चारों ओर उत्पात मचा रखा था। उसने देवताओं (श्रेष्ठ लोगों) को बन्दी बनाया और उन पर अत्याचार करने लगा। मुसिबत में फंसे देवताओं ने उससे छुटकारा पाने के लिए दुर्गा माता की उपासना और प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। देवताओं की प्रार्थना पर दुर्गा माता शेर पर सवार होकर ‘अष्टभुज’ रूप धारण करके महिषासुर का अन्त कर दिया। उसी समय से लोग इन दिनों को दुर्गा दिवसों अर्थात नवरात्रों के रूप में मनाते हुए माता की पूजा करते हैं।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार चैत्र (मार्च माह)और आश्विन माह (अक्तुबर) के शुक्ल पक्ष में नवरात्र मनाए जाते है। इन दिनों मौसम की समावस्था होने के कारण गर्मी या सर्दी की अधिकता नही होती अर्थात यह समय गर्मी व सर्दी के आवागमन का होता है। चैत्र मास में पृथ्वी की गति तेज हो जाती है और सुर्य की गति धीमी होने लगती है। इसके कारण दिन बड़े और रातें छोटी होने लगती है। सूर्य उत्तरायण में निकलने लगता है। इसके विपरित आश्विन मास में पृथ्वी और सूर्य दोनों की गति पर विपरित प्रभाव पड़ने से सूर्य दक्षिणायण में निकलने लगता है। परिणामतः दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती है।
यह समय नई फसल के आगमन का भी होता है, जिससे प्रत्येक घर खुशियों से भरा होता है। सभी लोग अपने-2 घरों में यज्ञादि शुभ कार्यों से परमपिता परमात्मा का आभार व्यक्त करते हैं। इन्हीं यज्ञों के अनुष्ठान से ही पृथ्वी की समावस्था को गति मिलती है।
ऋषियों और प्राचीन मान्यताओं को आधार माना जाए तो इन नवरात्रों में 9 प्रकार के यज्ञ किए जाते हैं। इन 9 यज्ञों को ही दुर्गा माता के नवरूपों के तौर पर माना गया है। मां दुर्गा के लिए किए जाने वाले ‘ब्रह्म यज्ञ, विष्णु यज्ञ, शिव यज्ञ, ऋषि यज्ञ, कन्या यज्ञ, वृष्टि यज्ञ, पुत्रेष्टि यज्ञ, सोमभूमि यज्ञ तथा अनुकृति यज्ञ सहित इन 9 यज्ञों में माता के दर्शन समाहित है।
शास्त्रों के अनुसार परमात्मा के गुणों का मनन, चिन्तन तथा स्वाध्याय करना ‘ब्रह्म यज्ञ’ कहलाता है। इनसे सदगुणों को जीवन में उतार कर दूसरों की रक्षा करना, उनका पालन व दुरितों का विनाश करना तथा विद्या प्राप्ति से स्वयं व दूसरों को आप्त पुरूषों के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना ही ‘विष्णु यज्ञ, शिव यज्ञ तथा ऋषि यज्ञ’ कहा गया है। दुर्गा माता के एक रूप को पृथ्वी एवं प्रकृति भी कहा गया है, इसी प्रकार कन्या को भी पृथ्वी कहा गया है। इस लिए अपने शुभ कार्यो द्वारा कन्या को पुष्ट करना तथा समय पर वर्षा होने व करवाने को ‘कन्या यज्ञ व वृष्टि यज्ञ’ कहते है।
देश, धर्म व मातृशक्ति का सम्मान करवाने वाला गुणवान, सदाचारी और मानवमात्र के लिए कार्य करने वाले पुत्र की प्राप्ति ही ‘पुत्रेष्टि यज्ञ’ होता है। वर्षा से सर्वसाधारण, गरीबों, किसानों व जरूरतमंदों की अन्न जल और औषधियों से रक्षा करना और करते ही रहना ‘सोमभूमि यज्ञ तथा अनुकृति यज्ञ’ कहलाता है। इन्हीं 9 यज्ञों को ही दुर्गा मां के 9 रूप माना गया है, जिन्हें नवरात्रों की परिभाषा भी जाती है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने गीता उपदेश में कहा है कि-
‘अष्टचक्राः नवद्वाराः देवनाम् पुःयोध्या’
भगवान श्री कृष्ण ने मानव शरीर को आठ चक्रों और नवद्वारों से बनी दिव्य नगरी माना है। ‘मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहत चक्र, हृदय चक्र,  विशुद्घि चक्र, सौषुम्ण ज्योति चक्र तथा चक्र दर्शन’ मानव शरीर के आठ चक्र है, जिन में ध्यान लगा कर व्यक्ति परमात्मा का आभास कर सकता है। नवद्वारों में ‘कान, आंखें, नाक (प्रत्येक दो), त्वचा तथा मल व मूत्र इंद्रियां मानव शरीर के 9 द्वार है। इन सभी चक्रों एवं द्वारों के योग से ही इस अयोध्या नगरी रूपी शरीर का निर्माण होता है। इन द्वारों पर संयम रखने से ही व्यक्ति परमात्मा तथा दुर्गा माता का आर्शीवाद प्राप्त करने का अधिकारी होता है। मानव शरीर का अध्ययन कर ही महर्षि मनु ने प्राचीन काल की अयोध्या नगरी का निर्माण कराया था।
गीता में आहार, निंद्रा और ब्रह्मचर्य के तप व नवद्वारों के शोधन से मानव शरीर रूपी इस अयोध्या नगरी को शोधित करने का उपदेश है। जिस प्रकार नवरात्रों में दुर्गा के नवयज्ञों द्वारा वायुमंडलीय गन्दगी को धोया जाता है, ठीक उसी प्रकार नवरात्रों में मनुष्यों को अपने नवद्वारों की वासनाओं पर काबू में रखना चाहिए, जिससे मां दुर्गा का आर्शीवाद सहजता से प्राप्त हो सके।
प्राचीन आचार्यों ने नवरात्रों की तुलना माता के गर्भ के नवमासों से भी की है, जहां मल और मूत्र की अधिकता होती है। इस दौरान यहां रूद्र रमण करते है, नाना रूपों में विभिन्न धाराएं मानो ठहर जाती है, जहां अन्धकार ही अन्धकार होता है। यही नवरात्र हैं यानि माता के गर्भ की 9 रातें।
इन्हीं नवरातों (नवमासों) में आत्मा, माता के गर्भ की काल कोठरी में वास करती हुई अपने शरीर का निर्माण करवाती है। यह सिलसिला जन्मजन्मान्तरों में चलता रहता है। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य, दुर्गा मां की अष्ट भुजाओं को अपना सकते है। इससे मानव अपने नवद्वारों का शोधन कर सकता है।
माता दुर्गा की ये आठ भुजाएं, महर्षि पांतजलि के योगदर्शन के वही आठ अंग है, जिनको अपना कर आत्मा ऊर्धव गति को प्राप्त होता है। योगदर्शन के ये आठ अंग है- ‘यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि’ हैं। महर्षि पांतजलि के अनुसार आत्मा इन्हीं आठ भुजाओं को अपना कर जन्मजन्मान्तरों तक माता के गर्भ में आने वाली आत्मा को उसके प्रारब्ध से छुटकारा दिला देती हैं और मुक्त हो जाती है। माता के गर्भ की इन नवरातों से छुटकारा पाकर ही आत्मा, परमात्मा के अमृतमय कोश मोक्ष यानि ‘नवप्रभात’ का अधिकारी बन जाता है।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार महिषासुर नामक कोई राक्षस नही था बल्कि हमारी आत्मा को मलिन कर रही मन की दूषित वृतियां ही महिषासुर है। इन दुःवृतियों ने ही देवताओं जैसी हमारी मन, बुद्घि, चेतना और शुभ संकल्पों को बंदी बना रखा है। शुभ विचारों के जागृत होने पर ये सभी आत्मा रूपी दुर्गा मां से इन राक्षसी दुष्वृतियों से रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं।
इनकी आवाज सुनकर आत्मा रूपी दुर्गा मां अष्टभुज रूप धारण कर यानि योग के आठ अंगों को अपनाकर और शेर रूपी प्राण पर सवार होकर आती है तथा मन व बुद्घि की दूषितवृतियों का नाश करती है।
महर्षि पांतजलि ने कहा कि प्राणायाम की सहायता से ही मन व बुद्घि के समस्त दोष नष्ट हो जाते है क्योंकि ‘ प्राणायामः परमम् तपः’ अर्थात प्राणायाम से बडा कोई तप नही है। यही प्राण हमारी दुर्गा मां ‘आत्मा’ का शेर है, जिस पर सवारी करके, अपने मन की महिषासुर नामक राक्षस जैसी दुष्वृतियों का विनाश किया जा सकता है। नवरात्रों (प्रतिदिन)के दिनों में यदि हम स्वयं को ‘ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकरार’ का त्याग और योग की आठ भुजाओं को अपनाएगें तो हम अपनी आत्मा पर जमे मैल को उतारने में सफल होंगे। यदि हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो यही नवरात्र, हमारे लिए नया सवेरा लेकर आएंगे और ‘नवप्रभात’ का कार्य करेंगे।

                                  कृष्ण कुमार आर्य

सूर्य की गति का द्योतक है उगादी

          देश में मनाए जाने वाले त्यौहार भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता के परिचायक हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन,...