बुधवार, 21 मई 2025

भारत माता की जय

 

                         भारत माता की जय

        देश की शान ये देश का गान है,
        बिन परिचय के ही देश की पहचान है, 
        दुश्मन में समाये हुए भय की धमक है,
        भारती के भाल की यह अनुठी चमक है,
        पापी को छलनी करता यह एक उद्घोष है, 
शत्रु की छाती पर जब बोले, भारत माता की जय। 
हमारे वीर सेनानी जब, मैदान में डट जाते हैं,
भारत की मर्यादा पर, शीश काट कर लाते हैं,
सिंहासन भी हिलने लगता, जहां पांव जमाते हैं, 
खून की गर्मी से उनके, धरती सिमट जाती है,
रण में भरी हुंकार से, सर-ताज सिहर जाते हैं,
दुश्मन का कलेजा यह सुन कांपे, भारत माता की जय।
निहत्थों पर गोली चला, नापाक वीरता दिखलाते हैं,
पहलगांव घाटी में कायर, बहनों का सिंदूर मिटाते हैं,
चोरी और सीना जोरी, फिर वे कर इतराते हैं,
ड्रोन, मिसाइल, वारहेड से, करके वार दिखाते हैं,
मिट्टी में मिल गए तब, सेना हिन्द से टकराते हैं,
आकाश भी बोले अब ये आवाज, भारत माता की जय।
न्यूक्लियर की हवा निकाली, हमारे वीर जाबांजों ने,
नौ ठिकाने असुरों के, ग्याहर ऐयरबेस उजाड़े हैं,
आसमां में उड़ते जहाज, ला धरती पर पछाड़े हैं,
गोली बदले गोला खाते, फिरते मुहं छिपाते हैं,
दहाड़ मारकर रोने लागे, अपनी मौत बुलाते हैं,
खून की गर्मी शांत हुई यह सुन, भारत माता की जय।
सिंदूर का बदला लेने को, सिंदूर ऑपरेशन चलाते हैं,
आधी रात के तारों में, जलता सूरज दिखलाते हैं,
सीना छलनी किया वैरी का, नही भाग वो पाते हैं,
देश करे नमन उन्हें, जो पाक को पाताल दिखाते हैं,
‘केके’ सेना माँ भारती, अद्भुत शौर्य है दर्शाती,
ब्रह्मोस की गर्जना से सुन वे कांपे, भारत माता की जय।


                                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’


शुक्रवार, 2 मई 2025

तुलना


                                       तुलना

         एक दिन मैं बैठ अकेला, 

        चाहता था पुस्तक पढना,

        चलता-चलता मन चला, 

तो लगा करने किन्ही, दो में तुलना।

पहले तुलना की मैने, 

        तराजू के दो पलडों की,

        इनकी भी क्या मजबूरी है,

एक ही रस्सी से बंधना,

फिर भी मैं कर रहा क्यूं, दोनों की तुलना।

पलडों का हुआ निर्माण समान, 

        एक बड़ा न दूसरा दयावान,

        दोनों करते एक दूसरे का मान,

        मजबूरी है उनकी अलग रहना,  

यूं ही मैं करने लगा उन, दोनों की तुलना।

एक मूल संग रहते दोनों,

स्वभाव है उनका दूरी पर रहना, 

एक की चाहत रहती है लेना,

दूसरा चाहता है हमेशा कुछ देना,

इसलिए मैं कर रहा हूं इन, दोनों की तुलना।

सरल निगाहें देख रही,

        तुला तो है एक ही,

        किसे बताऊ अच्छा, 

        यह समझ मैं पाया ना,

हां फिर क्यूं मैंने चाहा करना, दोनों की तुलना।

दो हाथ दिये हम सबको,

इनका प्रयोग तुम ऐसे करना,

एक को लेने की ना पड़े जरूरत,

दूसरे की चाह रहे कुछ देना,

तभी तो ‘केके’ कर रहा है इन, दोनों में तुलना।

          

                                                                     डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’

 

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

पंछी की दुनिया

पंछी की दुनिया


        उल्लास भरे और भोर भए,

        चहचहाहट सी आवाजें करते हैं।

        पंखों की फडफ़ड़ाहट से,

        आसमां में खूब मचलते हैं

ऐसा है कौन बताओ, ये पंछी की दुनिया है।।

        नीलांबर में उडक़र जाते, 

        पेड़ों पर भूख मिटाते हैं।

        प्रकृति के आंगन में वे,

        खुशियां खूब लुटाते हैं।

फिर बतलाओ कैसी, ये पंछी की दुनियां हैं।।

        कुदरत की मोहकता में,

        वास वृक्ष पर बनाते है।

        अपने चूजों की सेहत खातिर, 

        स्नेह का ग्रास खिलाते हैं।

ऐसा हैं कौन बताओ, ये पंछी की दुनियां है।।

        पंख फैला और दिन ढ़ला,

        घोंसले में अपने आते हैं।

        शांति का पढ़ा पाठ वे,

        भोर भए उड़ जाते हैं।

क्या जान न पाए, ये पंछी की दुनियां है।।

        वे गाते गीत सुरीले अपने,

        और अपनी धुनें बजाते हैं।

        अपनी दुनिया में रहकर वे,

        दुनिया को जीना सिखाते है।

क्या तुम न जानो, ये पंछी की दुनियां है।।

        सुख-दुख का अहसास उन्हें भी,

        सबका आभार जताते हैं।

        दाना कोई डाले उनको,

        नतमस्तक हो जाते हैं।

अब तुम भी जानो, ये पंछी की दुनियां है।।

        आजादी से वह रहना चाहें,

        पिंजरा कब ठिकाना है।

        आसमां मापने वाले को,

        बंधन कब सुहाना है,

दासतां में रोने लागे, ये पंछी की दुनिया है।।

        दिनभर दाना चुनकर लाते,

        चूजों संग रात बिताते हैं।

        तोड़ घोंसला मार दे कोई,

        तो बहुत रुदन मचाते हैं।

केके अब समझो उनको, ये पंछी की दुनिया है।।

     

                                                                                                डॉ0 के कृष्ण आर्य


 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

इन्सान हूँ ?


इन्सान हूँ ? 

इन्सान बनना चाहता हूँ !

लाखो कि भीड़ में इंसानियत को तलाश रहा हूँ ...

पर कोई है जो डरा हुआ है , सहमा हुआ है

और अपने वजूद को बचाने के लिए दर-दर भटक रहा है ...,

आखिर मिल गया वो , पर निराश है , नाराज है , दुखी है ,

आसमान कि ओर निहार रहा है 

परन्तु आसमान से किसी बदलाव की उम्मीद ने आँखे मैली कर दी है .

सच्चाई के थपेड़ो ने चेहरे की लालिमा हर दी है .

अब तो वह दुखी है सच बोल कर, 

तंग आ चुका है झूठ को नकार कर,

लाचार है, बेबस है, 

किसे सुनाये सच, 

रहा नहीं कोई सुनने वाला, 

सब बिकाऊ है, न कोई टिकाऊ है, 

इन्सान और उसका ईमान बिक रहा है, 

फिर भी इसी उम्मीद के सहारे चला जा रहा हूँ, चला जा रहा हूँ... 

कि शायद इस भीड़ में कोई मिल जाये, 

जो हो इन्सान, 

जानता हो उस इन्सान को, 

जो ये कह दे कि... 

मै इन्सान हूँ !

                                                                      डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’ 



 

सोमवार, 31 मार्च 2025

नवरात्र

 नवरात्र पर देवलोक गमन कर गए थे भगवान श्रीकृष्ण


        हमारे त्यौहार हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। भारतवर्ष के ऋषि-मुनियों ने ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य की गति और शारीरिक आवश्यकताओं पर आधारित विभिन्न उत्सव मनाने की व्यवस्था दी है ताकि जीवन सदैव उल्लास से भरा रह सके। तीज से लेकर होली के सभी त्यौहारों का रंग और ढ़ंग अलग-अलग है। एक त्यौहार तीज जहां सावन के झूलों के साथ मनाया जाता हैं वहीं दीवाली के दीप और होली के रंग जीवन को रंगीन बनाने वाले हैं। ऐसे ही पृथ्वी की गति और ‘अयन’ पर आधारित नवरात्र मनाए जाते हैं। यह वर्ष में दो बार ऋतु परिवर्तन पर आते हैं। एक बार उत्तरायण में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में होते हैं तो दूसरे दक्षिणायन में आश्विन मास में शुक्ल पक्ष में मनाए जाते हैं। परन्तु चैत्र मास का पहला नवरात्र हमारे सत्य सनातन वैदिक धर्म के अनुसार नववर्ष होता है। इसे नव-सम्वत भी कहा जाता है। 
           दक्षिण भारत में इसे “उगादी” के नाम से जानते हैं। ‘उगादी’ उसी भारतीय सनातन संस्कृति का संवाहक है, जो भारतीय नववर्ष के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। यह वही दिन है जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना आरम्भ की थी, इसी दिन से युगों की गणना आरम्भ की जाती रही है। अतः यह दिन सृष्टिक्रम से जुड़ा है। इसलिए इसको सृष्टिवर्ष आरम्भ दिवस भी कहा जाता है। युगों की शुरूआत इसी दिन होने कारण इसे युगादि कहा गया है। इतना ही नही सनातन धर्म में वर्ष की गणना भी इसी दिन से आरम्भ की होती है, इसलिए भारतवंशी इसे नववर्ष के रूप में मनाते रहे हैं। यह पर्व चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मनाया जाता है, अतः इसे वर्षी प्रतिपदा भी कहा गया हैं। 
            भारतीय सनातन संस्कृति के जानकार मानते हैं कि ईश्वर ने जिस दिन सृष्टि रचना का कार्य आरम्भ किया था, उसी दिन को चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा कहा जाने लगा। मान्यता है कि सृजन का यह कार्य नौ अहोरात्र तक यह निरंतर चलता रहा, इसलिए इन्हें नवरात्र कहा गया है। इसी दिन से पूरे देश में नौ दिनों तक नवरात्र मनाए जाते हैं और मातृशक्ति दुर्गा के नौ रुपों की पूजा की जाती है। यह वह समय होता है जब बसंत ऋतु अपने यौवन पर होती है। प्रत्येक दिशा में प्रकृति का शोधन होता दिखाई देता है। इन दिनों में सभी पेड़, पौधों एवं झाड़ियों पर रंगबिरंगे फूलों से मन प्रफुल्लित हो उठता है और वातावरण में एक मंद-मंद सुगंध का प्रवाह रहता है। पौधों पर नई-नई पत्तियों तथा फलों का आगमन होता है। प्रकृति का यह मनोहर दृश्य वर्ष में केवल इन्हीं दिनों में दिखाई देता है। 
        हमारे शास्त्रों में कहा है कि ‘यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे’ अर्थात् जो हमारे पिंड यानि शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है तथा जो ब्रह्मांड में है, वही हमारे शरीर में है। इस दौरान प्रकृति की भांति प्राणियों के शरीरों में भी नवरक्त और नवरसों का संचार होता है। इसलिए इस समय को नवरस काल कहा जाता है, जो प्रकृति के साथ-साथ शरीरों में आई जड़ता को भी दूर करता है। पंजाब, हरियाणा में इसे न्यौसर कहते हैं। इस समय शरीर को सक्रिय रखने वाली ऊर्जा से मन में उल्लास भर जाता है। इस दौरान श्रद्धालु माता दुर्गा की उपासना और उपवास रखते हैं, जिससे हमारा शरीर निरोग एवं शुद्ध होता है। यह समय जल, वायु, मन, बुद्धि और शरीर के शौधन का समय होता है। इसलिए शास्त्रों में नित्य यज्ञ करने का विधान बताया है ताकि यज्ञ की अग्नि से शरीर और पर्यावरण गतिशील बन सके। यह समय शक्ति संचय और ब्रह्मचर्य पालन के लिए उत्तम बताया है, जिसके लिए योग के सभी आठ अंगों को अपनाना आवश्यक है।
         नवरात्र सृष्टि सृजन के वह दिन हैं, जिसे देश में विभिन्न रूपों में मनाए जाते हैं। दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, महाराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों में इसे युगादि अर्थात उगादी के नाम से जाना जाता है। उत्तर भारत के पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मु-कश्मीर, उत्तरप्रदेश, दिल्ली सहित कई राज्यों में इसे नवरात्र कहते हैं। इस पर्व को विभिन्न प्रदेशों में जहां अलग-अलग ढंग से मनाते हैं, वहीं उनके खाने के शौक भी भिन्न होते हैं। इस समय दक्षिण भारतीय राज्यों में श्रद्धालु पच्चडी का सेवन करते हैं। पच्चडी को कच्चा नीम, आम के फूल, गुड, इमली, नमक और मिर्च के मेल से बनाया जाता है। वहीं उत्तर क्षेत्र में नवरात्रों पर फलाहार, शामक, साबुधाना की खीर का सेवन करते हैं। इससे रक्त का शौधन होकर शरीर व्याधियांे से मुक्त होता है। इतना ही नही नवरात्रों में नई फसल के आगमन पर घरों में खुशियों का माहौल भी होता हैं।
      भारतीय नववर्ष एवं नव-संवत्सर का ऐतिहासिक महत्व भी है। हमारे तपस्वी पूर्वजों ने इस दिन की प्राकृतिक महत्ता को समझते हुए, इसे हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक पन्नों में जोड़ दिया है ताकि हमारी भावी पीढ़ियां इसे जीवन का अंग बना सके। सत्य सनातन वैदिक शास्त्रों के अनुसार 1,96,08,53,126 वर्ष पूर्व भारत की इसी धरा पर सृष्टि की रचना हुई थी। इसके उपरान्त निरंतर सृष्टिक्रम चलता आ रहा है। विभिन्न कालखंडों में अनेक यशस्वी राजाओं और महापुरुषों ने इस धरा पर जन्म लिया है। उन्होंने लोगों के जीवन को सरल और सहज बनाने के लिए अपनी संस्कृति के प्रसार हेतु अनेक प्रयास किए। इस दिन के महत्व को समझते हुए भगवान श्रीराम ने लगभग 9 लाख वर्ष पूर्व लंका विजय के उपरांत चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को अयोध्या का राज सिंहासन ग्रहण किया था। महाभारत युद्ध के उपरांत महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था।  
         इसके साथ ही भारत के इतिहास की एक बड़ी घटना भी इसी दिन घटित हुई थी, जिसको कम लोग जानते होंगे। यह माना जाता है महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात 3045 वर्ष विक्रमी सम्वत पूर्व कलियुग का आरम्भ हुआ था। इसी दिन कलियुग प्रारम्भ होने से ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्राण त्यागकर देवलोक को गमन किया था। इस संबंध में मैंने अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि लगभग 5127 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण इसी दिन धरा को त्याग गए थे। 

        महाभारत काल के बाद देश में महान एवं तपस्वी राजा वीर विक्रमादित्य हुए हैं, उनका राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हुआ था। देश के इस महान सपूत एवं प्रतापी राजा वीर विक्रमादित्य के नाम से आरम्भ हुए वर्ष को विक्रमी सम्वत कहा जाता है, जिसे 30 मार्च 2025 को आरम्भ हुए 2082 वर्ष हो गए हैं। महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना भी इसी दिन की थी। अभी भी विद्यालयों में दाखिले और व्यापारियों के बही-खातों का आरम्भ होता है। इस तरह नवरात्र हमारे देश के महान और सृष्टि सृजन का त्यौहार है। परन्तु आज हम अपनी प्राचीन संस्कृति और मान्यताओं को भूलते जा रहे हैं, जिसके कारण हमारे आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन हुआ है। अतः भारतीय समाज और जनमानस के लिए यह विचारणीय विषय है। अंत में मैं कहना चाहूंगा कि... 
मंद-मंद धरती मुस्काए, मंद-मंद बहे सुगंध।

ऐसा ‘नवरात्र’ त्यौहार हमारा, सबके हो चित प्रसन्न।।


 डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’


सोमवार, 24 मार्च 2025

कष्ट

 कष्ट

कष्ट नही जिनके जीवन में,

वे भी कितने अभागे हैं।

ऐसे दुःखों से क्या डरना,

जो राह दिखाने वाले हैं।।

द्वंद्व भाव में फंसे जो,

मार्ग देख न पाएगा,

जन्मांतर के चक्कर में,

वह फंसता ही जाएगा

जीवन का कुछ अर्थ नही,

जब तक तम न आएगा,

मिटकर जब मिटाओ अंधेरा,

तो नया सवेरा आएगा।।

क्षणभर का विश्राम नही जब,

जीवन पथ के राही को।

तभी तो वह मानुष कहलाए,

जब आफत का विग्राही को।।

न जाने कष्ट क्यूं अब,

तुमसे लगाव हो गया।

जिस दिन न भागूं पीछे तेरे,

लगता वो दिन बेकार हो गया।।

        हे कष्ट! तेरे बिन अब,

        जीना अच्छा नही लगता।

        तुम अच्छे तो नही हो पर,

        बिन तेरे परिचय नही मिलता।।

फिर क्यूं तुमसे भागें दोस्त,

तु ही तो दर्शक है मेरा।

जो कराता है दर्शन केके को,

अपना कौन और बेगाना है तेरा।।

                                                                        डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’


मंगलवार, 4 मार्च 2025

ठंडी हवा


 ठंडी हवा

आज वो ठंडी हवा, 

उतनी ठंडी नही लगती।

गंध तो बहुत है, 

पर अच्छी नही लगती।।

बंसत के बाद फिर,

गर्मी यूं कहर ढ़ाने लगती।

ए.सी. तो चलते हैं बहुत,

पर ठंडी नही लगती॥

        गंध तो बहुत है, 

पर अच्छी नही लगती।।

भूख-प्यास बिन तुम,

जब खाए जात चटपटा। 

पेट बिगडऩे पर तुम्हें,

खट्टा नींबू भी खट्टा नही लगता॥

        गंध तो बहुत है, 

पर अच्छी नही लगता।।

        मात-पिता की कुटिया में,

थी ठंडक़ बड़ी लगती।

दारुण के आने पर वह,

ठंडक़ उतनी ठंड़ी नही लगती॥

        गंध तो बहुत है, 

पर अच्छी नही लगती।।

कुल्फी तो प्रेम की जो,

खूब है जमने लगती।

जब ढ़ीली हो स्नेह लड़ी,

कोठी अपनी भी बेगानी लगती।।

        गंध तो बहुत है, 

पर अच्छी नही लगती।।

सुन री तू ठंडी हवा,

आज क्यूं तू अनजानी लगती।

        केके जब करता संवेदन तेरा,

        तेरे ठंडक वही पुरानी लगती।

        गंध तो बहुत है, 

पर अच्छी नही लगती।।

 

आर्य कृष्ण कुमार ‘केके’


सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

आग

आग 

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एक आग से सब जन उपजे,

एक आग सब मर जाए।

कैसी-कैसी अग्नि है ये,

सुने तो सब डर जाए॥

एक आग है भूख-प्यास की,

पेट की आंत सिकुड़ जाए।

कुत्तों से भी बदतर हो वे,

          छीन कर रोटी ले जाए।।

एक आग लगी जो दिल में,

विचारों को जलाती जाए।

मन-बुद्धि को मलिन करे,

सच वो जान ना पाए॥

एक आग लगी जब तन में,

वासना यूं ही बढती जाए।

कौवे जैसी हालत हो उसकी,

और चरित्रहीन वह कहलाए॥

एक आग लगी जब मन में,

व्यक्ति कुंठित होता जाए।

धन, बुद्धि, शांति उसके,

द्वेष से सब जलते जाए॥

एक आग प्रभु-प्रेम की,

निश्चल भाव जो होए।

हो यह आग सही यदि,

केके दर्शन ईश के पाए॥

  

                                                                              आर्य कृष्ण कुमार ‘केके’


सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

इंसान एक खिलौना है !


इंसान एक खिलौना है !

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इंसान एक खिलौना है,

      जिसे हंसना और रोना है।

जिस राह पे वो जाए,

उस राह सा होना है।।

जीवन की नदिया में,

एक बूंद सा पानी है।

सुख में वो उड़ता जाए,

दुःख में बहता झरना है।।

बचपन में बढ़कर वो,

        जवानी में खिलता है।

अधेड़ में ऊधड़ जाए,

प्राणों का रेला है।

काम की गठरी लिए,

क्रौध में रहना है।

लोभ से गिरकर वह,

अहंकार में मिटना है।।

अपनों की बगिया में,

        ना अपना ठिकाना है।

उस राह पे सब जाएं,

जिसका नही निशाना है।।

माता तो अपनी वो,

पिता जो सहारा है।

भ्रात, पूत और सब नाते,

उन्हें भूल ही जाना है।।

जीव की फूलवारी में,

        कुदरत सुहाना हो।

हे ईश ! अनुभूत तेरा,

        केके को होना है।।

इंसान एक खिलौना है,

        जिसे हंसना और रोना है।

जिस राह पे वो जाए,

उस राह सा होना है।।


आर्य कृष्ण कुमार ‘केके’

गीत-‘जीवन एक बगिया है’ के सुर में गाया जा सकता है।

 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

बसंत पंचमी विशेष

 

बसंत पंचमी को ही मृत्यु लोक त्याग गए थे पितामह भीष्म

बंसत ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। यह शिशिर ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का परिचायक है। बंसत ऋतु ठंड के जाने और गर्मी के आने का बौद्ध करवाती है। सर्दी से सिकुड़े प्राणियों के शरीरों में पुनः ऊष्मा का संचार होने लगता है। शरीर की अकड़ाहट दूर होने लगती है। सर्दी के कम होने से बुजुर्ग जहां राहत का अनुभव करते हैं वहीं विद्यार्थी परीक्षाओं की तैयारी के प्रति गंभीर हो जाते हैं। 

     बसंत को प्रकृति के नवसृजन का समय माना जाता है। प्रकृति भी अपना श्रृंगार बिखेरने लगती है। खेतों में गेहूं की फसल पर आ रही बालियां और सरसों के पीले फूलों की बयार लोगों के मन को हर्षित करती है। मंडियों में धान की फसल आने से किसानों के घरों में खुशहाली का संचार होता है। इससे बाजारों में रौनक बढ़ने लगती है तथा विवाह-शादियों का सीजन आरम्भ हो जाता है। अतः लोगों के चेहरे का ओज उनकी प्रसन्नता का बखान करने लगता है।

      इस दौरान ब्रह्मांड के महत्वपूर्ण अवयव सूर्य के तेज में उत्तरोतर वृद्धि आरम्भ हो जाती है। वर्ष के 12 महीनों में सूर्य की रश्मियों की गर्माहट 12 कलाओं के रूप में प्रदर्शित होने लगता हैं। चैत्र से फाल्गुण मास तक सूर्य की गति भिन्न-भिन्न होती जाती है, जिनसे ऋतुएं बनती हैं। सूर्य की गति और कलाओं से अयन बनते हैं, जिन्हें उत्तरायण और दक्षिणायन कहा जाता है। प्रत्येक अयन में तीन-तीन ऋतुएं आती हैं। मकर सक्रांति से लगे उत्तरायण में शिशिर, बसंत और ग्रीष्म तथा दक्षिणायन में वर्षा, शरद् तथा हेमन्त ऋतु रहती हैं।

          बसंत पंचमी, माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाई जाती है। इसे श्री पंचमी या ज्ञान पंचमी भी कहा जाता है। इस दिन विद्या की देवी माता सरस्वती की पूजा की जाती है। सत्य सनातन वैदिक काल से ही बसंत पंचमी का अति महत्व रहा है। इस दिन सभी आम एवं खास परिवारों के बच्चों का दाखिला गुरुकुलों में करवाया जाता था। विद्यार्थियों का उपनयन संस्कार करवाया जाता है, जिससे उन्हें विद्या की देवी माता सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। 

      हमारे शास्त्रों में कहा है कि...

‘आहार शुद्धो सत्व शुद्धि, सत्व शुद्धो ध्रुवा स्मृति’

इन दिनों खाने-पीने पर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। गुरुकुलों में आयुर्वेद के अनुसार आहार की आदतों को एक दिशा दी जाती है। इससे बालकों का सर्वांगीण विकास होता है और वे पढ़ाई के साथ-साथ वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से बलिष्ठ बनते हैं। बसंत ऋतु के दौरान आहार-विहार पर ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि यह प्रकृति के करवट लेने का समय होता है। हमारा शरीर प्रकृति का ही रूप है, उसके बदलने के साथ ही हमें भी अपनी दिनचर्या में बदलाव करने की आवश्यकता होती है। इसका बौद्ध बसंत पंचमी ही करवाती है। इस दिन से होलिका त्यौहार का आरम्भ माना जाता है तथा श्रद्धालु यज्ञ, पूजा तथा अग्निहोत्र करते हुए मीठे चावलों का भोग लगाते हैं।

      भारतीय इतिहास की अनेक घटनाओं का सम्बन्ध भी बसंत पंचमी से रहा है। हमारे देश के एक महान राजा भोज का जन्म इसी दिन हुआ था। इस दिन एक वीर बालक हकीकत राय ने अपने सत्य सनातन वैदिक धर्म पर अड़िग रहते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। पंजाब के सियालकोट में जन्मे हकीकत राय ने मात्र 12 वर्ष की आयु में जिंदा रहने के लिए मुस्लिम बनने की शर्त को ठुकरा कर गर्दन कटवाना बेहतर समझा। इसके फलस्वरूप ही हकीकत राय ने 1734 ईस्वी में धर्म की रक्षार्थ मौत को गले लगा लिया। इसी दिन इतिहास की एक और महत्वपूर्ण घटना घटी थी, जिसको अवश्य याद रखना चाहिए। 

     कुरुवंश के ज्येष्ठ और महाभारत के महान यौद्धा पितामह भीष्म ने बसंत पंचमी के दिन ही अपने प्राण त्यागे थे।महाभारत के अनुशासन पर्व के 32 वें अध्याय के 25 श्लोक में कहा है कि...

माघोऽयं समनुप्राप्तो मासः सौम्यो युधिष्ठिर।

त्रिभागशेषं पक्षोऽयं शुक्ला भवितुमर्हति।।

अपने प्राण त्यागते हुए पितामह कहते है युधिष्ठिर ! इस समय चन्द्रमास के अनुसार माघ का महीना प्राप्त हुआ है। इसका यह शुक्लपक्ष चल रहा है, जिसका एक भाग बीत चुका है और तीन भाग शेष हैं। इस आधार पर उस समय माघ माह शुक्ल पक्ष की पंचमी का दिन बनता है, जिसे बंसत पंचमी कहा जाता है। 

     तब भीष्म ने कहा कि धृतराष्ट्र ! तुम अपने पुत्रों के लिए शोक मत करना, वह सब दुरात्मा थे। युधिष्ठिर शुद्ध हृदय है वह सदैव तुम्हारे अनुकूल रहेगा। इसके पश्चात् पितामह ने श्रीकृष्ण से कहा हे बैकुण्ठ ! हे पुरुषोत्तम ! अब मुझे जाने की आज्ञा दीजिए। श्रीकृष्ण ने कहा कि हे महातेजस्वी भीष्म जी ! मैं आपके लिए प्रार्थना करता हूँ कि आप वसुलोक (मोक्ष) को प्रस्थान करें। इस प्रकार अपनी मातृ भूमि को प्रणाम करते हुए पितामह भीष्म ने बसंत पंचमी को अपनी देह का त्याग कर दिया। मैंने इसका उल्लेख अपनी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में भी किया है।

      वर्तमान में बसंत पंचमी पर उल्लास का प्रतीक माने जाने वाली पतंगबाजी भी की जाती है। परन्तु इससे अनेक दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं। कहते हैं कि पतंगबाजी चीन, कोरिया और जापान के रास्ते से भारत आई है। हालांकि पूरे भारत में बसंत पंचमी के त्यौहार को अलग-अलग रूपों में मनाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल सहित अनेक प्रदेशों में इसे हर्षोल्लास से मनाया जाता है। बसंत हमारे जीवन में नवशक्ति का संचार करने वाला वह त्यौहार है, जिसके लिए कहा जा सकता है कि.. 

बसंत है त्यौहार निराला, उल्लास भरा अमृत प्याला।

चिर चेतना का संवाहक, सनातन की धधकती ज्वाला


   कृष्ण कुमार ‘आर्य’

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

अब किससे डरना है


उठो बहना चीर सम्भालों,

अब खुद ही तो लड़ना है।

मर जाओ या मार गिराओ,

अब किस से ड़रना है।।

झूठ-मूठ के रिश्ते फरेबी,

अब नही है कोई करीबी।

जन्म-जात से हर कोई शत्रु,

अब उनको ही मसलना है।

मर जाओ या मार गिराओ,

अब किस से ड़रना है।।।

स्वयं को कर मजबूत स्वयं तुम,

कब तक आस लगाओ गी।

दोहन करता हर जो जन,

उसका सिर कुचलना है।।

मर जाओ या मार गिराओ,

अब किस से ड़रना है।।।

हाथ आबरु पर जिसने डाला,

नहीं बचा, किया मुहं काला।

फाड पेट, कर सर कलम उसका,

फिर किससे यूं हिचकना है।।

मर जाओ या मार गिराओ,

अब किस से ड़रना है।।।

 शर्त यहीं बस मेरी बहना,

तुम खुद, खुदी को रखना संभाल।

सामने आए अगर कोई खिलजी,

सीना चीर उसी का देना।।

मर जाओ या मार गिराओ,

अब किस से है ड़रना।।।


आर्य कृष्ण कुमार (केके)

जब किसी महिला को प्रताडित किया जा रहा है। वह दूसरों से सहायता मांगती है परन्तु उसका साथ देने के लिए कोई सामने नहीं आता है। ऐसी स्थिति में एक कविता के माध्यम से क्या कहता है, आओ जानें।


शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

गणतंत्र


         त्याग एवं बलिदान ही जनतंत्र का प्रहरी

   भारत का इतिहास अति प्राचीन है। यह देवों की धरती है। इस पर महर्षि, मनस्वियों से लेकर भगवान श्रीराम, सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र एवं भगवान श्रीकृष्ण जैसे आप्त पुरुषों ने जन्म लिया है और संसार का मार्ग दर्शन किया है। इस दिव्य धरा पर सदैव सत्य सनातन वैदिक आचरण को ही व्यवहार में लाया जाता रहा है। महाभारत युद्ध के उपरान्त देश को भारी सामाजिक और आध्यात्मिक हानि उठानी पड़ी, जिसकी भरपाई आज 5 हजार से अधिक वर्ष बीत जाने पर भी नही हो पा रही है। 

आज से लगभग 2350 वर्ष पूर्व तक सब ठीक से चलता रहा, परन्तु महान सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य काल में सिकन्दर ने भारत के कुछ भाग पर हमला किया। मात्र 30 वर्ष की आयु में दुनिया जीतने वाले सिकन्दर को आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने भारत-भूमि से भगा दिया। इसके सैकड़ों वर्षों बाद तक देश को सम्राट अशोक, सम्राट विक्रमादित्य, राजभोज जैसे अनेक आर्य प्रतापी राजाओं ने देश की शालीनता और संस्कृति को बचाकर रखा। परन्तु उनके पश्चात अनेक विदेशी हमलावरों का आना आरम्भ हो गया।

पुर्तगाली, फ्रांसिसी, यवन, मुगल तथा अंग्रेजों ने जमकर भारत का दोहन किया। इनसे मुक्ति पाने के लिए समय-समय पर असंख्य वीर बलिदानियों ने भारत माता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इन विदेशी हमलावरों को नाकों चने चबाने के लिए दक्षिण के महाराज कृष्णदेव राय, रानी दुर्गावती, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, रानी लक्ष्मीबाई, टांत्या टोपे, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के नामों को भूलाया नही जा सकता है। इनके अतिरिक्त अनेक वीरों के बलिदानों से भारत माता ने 15 अगस्त 1947 को आजादी की खुली हवा में सांस लिया। इसको सुचारू रूप से चलाने के लिए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर द्वारा बनाए गए संविधान को 26 नवम्बर 1950 को अंगिकार कर लिया गया तथा आज ही के दिन 26 जनवरी 1950 से देश में संविधान लागू कर दिया गया।

इसी संविधान में दिए गए अधिकारों की बदौलत आज हमने अपना राष्ट्रीय ध्वज फहराया है। यह तिरंगा हमारी आन, बान और शान का प्रतीक है, जो सदैव आसमान में यूं ही सबसे ऊंचा लहराता रहे। इसका दंड स्तम्ब सदैव मजबूत रहे, जिससे हमारा देश हमेशा बुलंदियों को छूता रहे। यह कामना हम सब करते हैं। इस पर किसी ने कहा कि..   

‘झंडा ऊंचा रहे हमारा, डंडा है झंडे का सहारा और डंडे ने दुष्टों को सुधारा’

हमारा झंडा ऊंचा कैसे रहेगा, हमारे देश का गणराज्य कैसे चिरस्थाई बना रहे। इसके लिए त्याग, बलिदान और दंड की आवश्यकता है। यह हमारी जन्मभूमि है, जो स्वर्ग से भी महान है। 

‘जननी जन्मभूमिस्य स्वर्गादपि गरीयसी’

अतः अपनी जन्मभूमि को कैसे महान बनाया जा सकता है। वेद में इस विषय पर संगठन सुक्त में कहा है।

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनासि जानताम,

देवा भागं यथा पूर्वे सं जानाना उपासते।

कि हम एक साथ चले, एक जैसा बोले, हमारे मन एक समान हों ताकि हम अपने देवतुल्य पूर्वर्जों की भांति अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहें।

    परन्तु इसके लिए हमें तप करना होगा, स्वयं को साधना होगा तथा हमें उन दोषों से दूर रहना पडे़गा, जो महाभारत के शांतिपर्व में कहे गए हैं।

क्रोधो भेदो भयं दण्डः, कर्षणं निग्रहो वधः।

नयत्य रि वशं सद्यो गणान् भरत सत्तम।।

गणराज्य के लोगों में क्रोध, आपसी फूट, भय, एक-दूसरें को निर्बल बनाना, परेशानी में डालना या मार डालना की प्रवृति होने से हम, हमारे घर, परिवार तथा समाज शत्रुओं के आगोश में चला जाता है।

हमारा यह भारत युगों से ‘एक-भारत’ है तभी तो ‘श्रेष्ठ-भारत’ है। महाराज भरत के नाम से बने भारत में यह भावना कूट-कूटकर भरी थी। महाराज भरत ने अपने नौ पुत्रों में से युवराज पद के लिए किसी को भी योग्य नहीं समझा। मेरी पुस्तक ‘कर्मयोगी कृष्ण’ में इस संदर्भ में दिया है कि उनकी अयोग्यता के कारण महाराज भरत ने अपने राज्य के कुशल एवं योग्य युवक ऋषि भरद्वाज पुत्र भूमन्यु को देश की भागडोर सौंपी, जो एक उत्कृष्ट लोकतंत्र एवं गणतंत्र का उदाहरण है।

सैकड़ों वर्षों की गुलामी से हम आजाद हो गए हैं, जिससे हमें राजनैतिक, सामाजिक आजादी प्राप्त हुई है परन्तु क्या हम मानसिक रूप से आजाद हो सकें हैं। यह एक यक्ष प्रश्न है ! इसके बिना बौधिक आजादी तथा आध्यात्मिक आजादी भी नही हो सकती है। आज हमें अध्यात्म के नाम पर कोई भी हांक कर ले जाता है। यह कितना सही है, परन्तु विचारणीय है! इसलिए यह कहा जा सकता है कि...

राज आजाद, समाज आजाद, आजाद कृष्ण सब ओर,

बिन मन आजाद, अध्यात्म आजाद, नही कहीं पर ठोर।।


                           कृष्ण कुमार ‘आर्य’


शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

हिन्दी दिवस

10 जनवरी विश्व हिन्दी दिवस पर विशेष

 

    भाषा किसी भी प्राणी की एक विशेष अभिव्यक्ति है, जिससे वह आसपास और समाज को अपने क्रियाकलापों की जानकारी देते हैं। भाषा न केवल मानवमात्र के लिए उपयोगी होती है परन्तु जीव-जन्तु भी इससे अछूते नही हैं। पक्षी अपनी चहचाहट, पशुओं का राम्बना (आवाज) तथा जानवर अपनी गर्जना से ही सभी सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। इसी प्रकार मानव भी अपने रहन-सहन की आदतों, क्षेत्र की परिस्थितियों तथा समाज के व्यवहार से बोलना सीखते हैं और भावनाओं को अपने भाव द्वारा प्रदर्शित करते हैं। इतना ही नही, भाषा उनकी जीवनशैली को ही प्रदर्शित करती हैं।

          विश्व में विभिन्न भाषाओं के बोलने वालों की कमी नहीं है। दुनिया में लगभग 7139 भाषाओं को बोला जाता है। विभिन्न देशों में अधिकतर बोले जाने वाले वाक्य वहां की बोली का रूप धारण कर लेते हैं, जिससे भाषा का प्रादुर्भाव होता है। दुनिया में मुख्य रूप छः भाषाएं से बोली जाती है। इसमें सबसे अधिक लगभग 145 करोड़ लोग अंग्रेजी भाषा बोलते है, चाईनिज 113 करोड़, हिन्दी लगभग 61 करोड लोगों द्वारा विश्व की तीसरी सबसे अधिक बोली जानी वाली भाषा है, वहीं स्पैनिस भाषा को लगभग 56 करोड़, फैंच को लगभग 31 करोड़ तथा अरबी भाषा के जानकार लगभग 27 करोड़ लोग हैं। 

    इतना ही नही, किसी देश के अधिकतर भागों में बोली जाने वाली भाषा भी विभिन्न क्षेत्रों में बोली का रूप ले लेती है। भारत भी इससे अछूता नही है। भारत में मूल भाषा हिन्दी सहित कुल 22 भाषाएं अनुसूचित हैं, जो देश के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाती है। स्थानीय स्तर पर इन्हीं भाषाओं में कार्यों के निष्पादन को प्राथमिकता दी जाती है। भारत के विषय में कहावत है कि...

कोस-कोस पर बदले पानी, तो चार कोस पर वाणी

          भारत एक बहुभाषी देश है, जहां लगभग 780 बोलियां बोलचाल का माध्यम है। यदि किसी एक प्रदेश जैसे हरियाणा के विषय में समझने का प्रयास किया जाए तो, उसके एक ही शब्द को जीन्द में जो बोला जाता है तो उसी शब्द का भिवानी या सिरसा में रूपांतरण हो जाता है। परन्तु हमारी मूल भाषा हिन्दी ही है। हिन्दी को पूरे उत्तर भारत में बोला एवं समझा जाता है। हिन्दी भारत की मूल और आत्मिक भाषा है, जिसको बच्चा भी समझ और बोल सकता है। भारत के बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल, झारखंड, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा उत्तराखंड सहित कुछ अन्य प्रदेशों में हिन्दी बोली जाती है। भारत में सबसे अधिक लगभग 57 करोड़ लोग हिन्दी को अपनी मूल भाषा के रूप में प्रयोग करते हैं, जो देश की कुल आबादी का लगभग 44 प्रतिशत से अधिक है और लगातार बढ़ भी रहा है। भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, नेपाल, दक्षिणी अफ्रीका, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में भी हिन्दी बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयोग की जाती है।

          विश्व की प्रमुख भाषाओं में हिन्दी का विशेष स्थान है। प्राचीन भारत की एक नदी सिन्ध से हिन्द और सिन्धु से हिन्दु तथा सिन्धी से हिन्दी की उत्पत्ति मानी जाती है। भारत की राजभाषा भी हिन्दी ही है, जिसका मूल स्त्रोत संस्कृत भाषा को माना जाता है। हिन्दी एवं संस्कृत दोनों भाषाओं की लिपी देवनागरी है, इसमें 11 स्वर और 33 व्यंजन हैं। इस भाषा को बाईं से दाईं ओर लिखा जाता है, जबकि कुछ भाषाएं दाईं से बाईं ओर लिखी जाती है। भारत में हिन्दी को राजभाषा के रूप में 10 जनवरी 1949 को अपनाया गया था। इसके बाद भारत सरकार ने वर्ष 2006 में इस दिन को विश्व हिन्द दिवस के रूप में मनाने की शुरूआत की ताकि हिन्दी को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलवाई जा सके। 

    व्यक्ति अपनी भाषा में ही स्वयं को पोषित कर सकता है। अपनी मातृ भाषा हिन्दी में संवाद, व्यवहार, लेखन और पठन करने से हम न केवल अपनी संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं बल्कि अपनी परम्पराओं तथा मूल्यों को भी सहजता से व्यक्त कर सकते हैं। आज अनेक लेखक विश्व स्तर पर हिन्दी को वैश्विक पहचान देने के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं। केन्द्र एवं हरियाणा सरकार भी हिन्दी भाषा लेखकों को साहित्य अकादमी के माध्यम से प्रोत्साहित किया जा रहा है। इससे अनेक साहित्यकार अपनी रचनाओं से हिन्दी को नई पहचान दिलवा रहे हैं।

    हमारे प्राचीन ग्रन्थ वेदों की रचना हिन्दी की जनक कही जाने वाली संस्कृत भाषा में ही हैं, वहीं रामायण, महाभारत तथा अनेक साहित्य हिन्दी एवं संस्कृत भाषा में लिखे गए है। हिन्दी भाषा भारत और भारत से बाहर रहने वाले लोगों को जहां एक कड़ी में पिरोने का कार्य कर रही है, वहीं इससे एक-दूसरे के मर्म समझना भी आसान बनाती है। अतः हिन्दी को वैश्विक स्तर पर पहुँचाने की जिम्मेदारी प्रत्येक भारतीय को समझनी चाहिए।

अन्त में कहना चाहँुगा कि हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए हमें, स्वयं हिन्दी के प्रति समर्पित होना चाहिए। हिन्दी को भाषा नही बल्कि एक संस्कृति का द्योतक और जीवनशैली है। एक कवि ने कहा कि ...

हिंद देश हिन्दुस्तां हमारा, हिंदी हमारी पहचान।

भारत के माथे की बिन्दी हिन्दी, देश का गौरव गान॥

 

कृष्ण कुमार आर्य


भारत माता की जय