बुधवार, 5 जनवरी 2011

कोहरा

                                  कोहरा
      
         एक दिन जब कोहरे ने,
         जब अपनी चुनरी फैलाई।
         निकल कर देखा बाहर तो,
         कुछ ना दिया दिखाई।।
        जब सीढियों से मैं आया नीचे,
        तो एक तंग गलि सामने पाई,
        जान समझ कर रास्ता,
        उधर चल पड़ा मैं भाई॥
         दूर जग रहे दीपक ने,
         मार्ग मुझे दिखाया,
         बढ़कर देखा आगे तो,
         एक बुजुर्ग खड़ा पाया॥
        बुजुर्ग ने जब देखा मुझे,
        थोड़ा हंसा, थोड़ा मुस्कराया,
        बीच सड़क पर उसने मुझे,
        हाथ पकडकर बैठाया।।
         उसने चुपके से फिर यूं,
         मेरे कान में ये बोला।
         कोहरे से मुक्ति पाने को,
         ले आओ किसी नेता का झोला।।
        सोच समझकर फिर बोला वो,
        वैसे कोहरे का नही होता ताला,
        पर नेता जी ले जा सकते इसको,
        कोई करके बड़ा घोटाला।।
                        


                कृष्ण  कुमार ‘आर्य

                                            


शनिवार, 1 जनवरी 2011

Happy NEW Year

   Happy NEW Year










O my dear,
Forget your fear,
Be dreams your clear,
What…? My deer is very dear.

O my dear,
You let me hear,
Never belive on enemy swear,
What…?  When you are up in gear.

O my dear,
A red under wear,
I send you with pleasure,
What…? Motion can’t flow your tear.

O my dear,
Please me hear,
You stop your cheer,
What…? A black coat you wear.

O my dear,
I say in your ear,
Jump when you hear,
What…? HAPPY NEW YEAR.




               By:   Krishan K. Arya







मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

इन्सान हूँ ?


इन्सान हूँ !
इन्सान बनना चाहता हूँ ?
लाखों की भीड़ में इंसानियत को तलाश रहा हूँ

पर कोई हैजो डरा हुआ है, सहमा हुआ है
और अपने वजूद को बचाने के लिए दर-दर भटक रहा है

आखिर मिल गया वो,
पर निराश है, नाराज है, दुःखी है,
आसमान कि ओर निहार रहा है
परन्तु आसमान से किसी बदलाव की उम्मीद ने आँखें मैली कर दी है
सच्चाई के थपेड़ों ने चेहरे की लालिमा हर दी है।

अब तो वह दुःखी है, सच बोल कर,
तंग आ चुका है, झूठ को नकार कर,
लाचार है, बेबस है, किसे सुनाए सच

रहा नही कोई सच सुनने वाला,
सब बिकाऊ है, न कोई टिकाऊ है,
इंसान और उसका ईमान बिक रहा है,
फिर भी इसी उम्मीद के सहारे चला जा रहा हूँ,
चला जा रहा हूँ, चला जा रहा हूँ।

कि शायद इस भीड़ में कोई मिल जाए,
जो हो इंसान, जानता हो वो उस इंसान को,
जो ये कह दे कि
मैं इन्सान हूँ !
                        

                             कृष्ण आर्य

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

प्याज की सरकार

      क्या प्याज में है पवार या पवार का है प्याज।
    आओ इसका पता लगाए, क्यूं मंहगा हुआ प्याज॥
                                                                   
            -प्याज की सरकार-                           

एक दिन गरीब की झोंपडी में,

        प्याज ने लगाया ठुमका।
थाली से उठकर वह,
        जा कोने में दुबका॥
अगले दिन साहुकार जी वहां,
        आ करके यूं बोला।
चलो तुम साथ मेरे,
        मैं लाया हूं झोला॥
झोले में आकर प्याज को,
        हुई खुशी बहुत सारी।
आज नही तो कल,
        मेरे लिए होगी मारा-मारी॥
एक दिन झोले पर,
        नजर पड़ी बड़ी भारी।
झांक कर देखा प्याज ने तो,
        सामने थे कालाबाजारी॥
कालाबाजारियों के झोले में गिरकर,
        प्याज ने आंसू बहाए।
बोला, नही सहन होता अब मुझसे,
        मै दूंगा सबको रूलाए॥
रोता हुआ बोला प्याज,
        क्या तुम्हे समझ न आए पवार।
क्यूं भूल गए हो तुम कि,
        मैंने पहले भी गिराई थी सरकार॥

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

एक कप चाय

             
                           चख कर देखो
कई बार छोटी सी घटना या कहानी भी जीवन का सार बता जाती है। व्यक्ति उससे शिक्षा ग्रहण कर एक बार तो वो सब कुछ छोडने का मन बना लेता है, जिन कार्यों के कारण वह स्वयं दुःखी होता है और दूसरों को दुःखी करता है। इसी बात को जहन में बिठाकर एक दार्शनिक ने अपने शिष्यों को समझाना चाहा।
एक दिन दार्शनिक एक कांच का जार लेकर कक्षा में आया और उसे अपनी सीट पर रख दिया। दा‌र्शनिक ने अपने शिष्यों से कहा कि वे आज उन्हें जीवन से जुड़ा एक पाठ पढाएंगे। यह कहते हुए दार्शनिक ने रबड़ की छोटी गेदों से जार को भर दिया और शिष्यों से पूछा कि क्या यह जार भर गया। शिष्यों ने जवाब दिया, हां गुरू जी ! जार तो भर गया। इसके बाद गुरूजी ने कुछ छोटे कंकड, पत्थर के टुकड़े जार में डाले और जार को हिला कर भरते हुए फिर शिष्यों से पूछा कि क्या अब जार भर गया। शिष्यों ने गर्दन हिलाते हुए फिर कहा कि जार अब तो भर गया, गुरूजी।
        इस पर गुरूजी ने रेत की पोटली खोली और इसे जार में रहे शेष छिद्रों में हिलाकर भरते हुए फिर पूछा कि अब जार पूरी तरह भर गया। शिष्यों ने इस बार तो पूरे विश्वास के साथ कहा कि गुरूजी अब तो जार पूरी तरह से भर गया। इस पर गुरू जी ने चाय के एक कप लिया और उसमें उडेल दिया। चाय को भी रेत के कणों ने पूरी तरह सोख लिया। इस पर शिष्य निरोत्तर हो गए और गुरूजी की तरफ निहारने लगे।
शिष्यों की लालसा को ‌देखते हुए गुरूजी ने गंभीर स्वर में कहा, देखों बालकों आप अपने जीवन को इस कांच के जार तरह समझों तथा रबड़ की गेंदें आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण भाग है इनसे आप जितनी समझदारी से खेलोंगे, जीवन गेंदों की तरह उतना ही ऊपर उठेगा। रबड की ये गेंदें हैं---आपके भाई, बन्धु, सखा, मित्र, परिवार है, जिनकी मदद से आप जीवन के सभी सुखों के साथ-साथ भगवान तक को प्राप्त कर सकते हो।
        गुरूजी ने कहा कि छोटे कंकडों को आप---अपने शौक, कोठी, कार, बंगला, धन दौलत जानो, जिनकी सहायता से आप सुखी जीवन जी सकते हो। इसी प्रकार रेत के कणों को आप छोटे-छोटे विवाद, मनमुटाव और झगडों को समझों। यदि आप इस कांच के बर्तन में सबसे पहले रेत भर देते तो उसमें न ही कंकडों को भरा जा सकता था और नही रबड़ की गेंदे ही उसमें आ पाती और जार को यदि पहले कंकडों से भर दिया जाता तो उसमें रेत यानि मनमुटाव, झगड़े आदि तो आ जाते परन्तु रबड की गेंदें फिर भी नही आती। अर्थात हम अपने सभी निकट के भाई, बन्धु, सखा, मित्र, परिवार वालों को खो देते।
        गुरूजी ने कहा कि ठीक उसी प्रकार यदि आप रेत की भांति अपने जीवन को पहले झगड़े, मनमुटाव व आपसी विवादों से भर लोंगे तो आपके पास दूसरी बातों के लिए समय ही नही बचेगा और आप उन सभी सुखों से दूर हो जाओगे, जिनको एक आम व्यक्ति पाने की इच्छा रखता है। मन की शांति के लिए भी आपको क्या चाहिए, यह भी आपको ही तय करना है। क्या आप अच्छा खाना-पीना, सैर करना, अपनी आत्मा की उन्नति के कार्य करना या क्या आप अपने बच्चों, पति, पत्नि के साथ घूमना-फिरना, माता पिता व मित्रों के साथ रहना चाहते हो, यही आवश्यक गेदें है बाकी सब तो रेत है।
        इसी बीच ध्यान से सुन रहे शिष्यों में से एक ने पूछा कि भगवन चाय के एक कप को मिलने का क्या अर्थ हुआ। इस पर गुरूजी ने कहा कि मैं सोच ही रहा था कि आपमें से किसी चाय बारे में क्यों नही पूछा। इसका उत्तर यह है कि जीवन कितना ही परिपूर्ण व सुख साधनों से सम्पन्न क्यों न हो जाए परन्तु अपने भाई, बन्धु, सखा, मित्र व परिवार वालों के साथ एक कप चाय पीने का स्थान व समय अवश्य बचा कर रखना चाहिए।                                                                     

शिक्षा- ज्ञान और सुख अमूल्य व सुक्ष्म है, इसे प्राप्त करने के लिए विवादों से दूर रहना सीखो।          




सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

नागक्षेत्र

कलियुग के आगमन की निशानी है, नागक्षेत्र


        हरियाणा प्रदेश को भगवत-भूमि के नाम से जाना जाता है। इसके कदम-कदम की दूरी पर महापुरूषों के कदम पडे़ हैं, जिनका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है। हरियाणा की नस-नस में गीता के श्लोकों का बखान होता प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। कुरूक्षेत्र के 48 कोस की परिधि में सैकड़ों ऐसे नामी व बेनामी स्थल है, जहां महाभारत के योद्घयाओं के रथों के पहियों के चलने की गडगडाहट और हाथियों की चिंघाड़ सुनाई देने का आभास होता है।
        सफीदों भी उनमें से एक ऐसा ही स्थल है। यह हरियाणा राज्य के जीन्द जिले का एक छोटा सा कस्बा है। इस ऐतिहासिक नगरी को कलियुग के आगमन के समय करीब 5 हजार वर्ष पहले महाभारतकालीन पांडव अर्जुन के परपोत्र एवं महाराज परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने बसाया था। अपने पिता महाराज परीक्षित के तक्षक नाग द्वारा डसने से हुई मृत्यु से दुःखी होकर महाराज जन्मेजय ने इस भूमि पर एक सर्पदमन नामक यज्ञ रचाया था। इसके बाद इस जगह का नाम सर्पदमन पड़ गया, जोकि कालान्तर में सफीदों बन गया।
         सफीदों की जिस भूमि पर सर्पदमन नामक यज्ञ का आयोजन किया गया था, अब उसी यज्ञस्थली पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है। इस मंदिर को नागक्षेत्र के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर करीब पांच एकड़ भूमि में फैला हुआ है। इसके दोनों ओर छोटे-छोटे पार्कों का निर्माण करवाया गया है। मंदिर के सामने एक विशाल सरोवर है, जिसमें आज भी अनेक प्रकार के सर्प पाए जाते हैं।
         यह माना जाता है कि इसी सरोवर की तलहटी में कभी सर्पदमन यज्ञ की वेदि बनाई गई थी। इस तालाब के बगल से पश्चिमी यमुना नहर की हांसी ब्रांच पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। नदी व सरोवर के मध्य एक हरित पट्टी बनाई गई है। इस कारण ऐतिहासिक नगरी सफीदों के इस मंदिर को देखने व इसके इतिहास के बारे में जानने की लालसा तो अवश्य ही पैदा होती होगी।
          महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत कथा के अनुसार करीब 5100 वर्ष पहले भगवान श्रीकृष्ण द्वारा मानव देह त्याग कर मोक्षधाम गमन किया गया, जिसके बाद विचारशुन्य और संवेदनहीन लोगों को प्रभावित करने वाला और अधर्म की अधिकता वाला कलियुग का आगमन हो गया। इससे प्राणियों में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की प्रवृति बढ़ने लगी तो महाराज युधिष्ठिर से कलियुग को प्रभाव देखा नही गया। इससे दुःखी होकर उन्होंने हस्तिनापुर के सम्राट पद पर अपने पोत्र परीक्षित का राज्यभिषेक किया और संयास धारण कर लिया। युधिष्ठिर ने अन्न का त्याग कर दिया और वे अपने केश खोल व शरीर पर चीर वस्त्र धारण कर उत्तर दिशा में पहाड़ों की ओर चल दिए। महाराज की मौन व विक्षिप्त अवस्था से दुःखी होकर उनके भाई व महारानी द्रोपदी भी उनके पीछे-पीछे चल दिए।
          पांडवों के इस महापलायन के पश्चात महाराज परीक्षित पृथ्वी पर एकछत्र शासन करने लगे। गुरू कृपाचार्य की प्रेरणा से अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। दिग्विजय से लोटते हुए एक दिन महाराज परीक्षित ने एक व्यक्ति को गाय एवं बैल के जोडे को ठोकरे मारते हुए देखा। परीक्षित ने उसे दण्डित करना चाहा तो अमूक व्यक्ति गिडगिडाता हुआ उनके पांव में गिर गया और स्वयं पर कलियुग का प्रभाव बताया। महाराज परीक्षित ने उसे अभय दान देते हुए कहा कि पांडु पुत्र अर्जुन के वंशज अर्थात मेरे राज्य को सत्य और धर्म के आधार पर चलाया जा रहा है। तुम किसी धर्म के सहायक नही हो इसलिए तुम्हारा मेरे राज्य में कोई स्थान नही है।
        कलियुग के प्रतिक व्यक्ति द्वारा अपने लिए रहने का स्थान देने की प्रार्थना की गई। इस पर महाराज परीक्षित ने कलियुग को द्यूत, मद्यपान, परस्त्रीगमन जैसे कुकृत्यों में रहने की आज्ञा दी। इस पर कलियुग ने राजा से कहा कि इस प्रकार के स्थानों पर मुझे हमेशा आपका भय रहेगा, इसलिए मुझे ओर कोई सुरक्षित स्थान बताएं, जहां मैं स्थाई रूप से निवास कर सकूं। इस पर राजा ने उसे स्वर्ण (सोने)में रहने की अनुमति दे दी। स्वर्ण में वास की आज्ञा पाकर कलियुग महाराज के स्वर्णताज में वास कर उनकी बुद्घि मलिन करने लगा।
         एक दिन जगंल विहार के दौरान राजा परीक्षित को प्यास सताने लगी। पानी की तलाश में राजा महर्षि शमिक के आश्रम गए। वहां राजा ने समाधि में लीन महर्षि से पीने के लिए जल मांगा। परन्तु जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं से दूर महर्षि द्वारा कोई जवाब न पाकर, राजा क्रोधित हुए और समीप पडे़ एक मरे हुए सांप को ऋषि के गले में डाल कर चल दिए। महल में पहुंच कर जब राजा ने अपना मुकुट उतारा तो उन्हें कलियुग के प्रभाव से की गई गलती का अहसास हुआ।
        उधर शमिक ऋषि की बेटा श्रृंगि जब टहलता हुआ वहां पहुंचा तो वह अपने पिता के गले में पड़े मरे हुए सांप को देखकर आग बबुला हो गया और शाप देते हुए कहा कि जिसने भी ऐसा घृणित कार्य किया है, उसकी सातवें दिन सर्प के काटने से मृत्यु हो जाएगी। समाधि से उठे ऋषि को जब ऋषि कुमार द्वारा दिए गए शाप का ज्ञान हुआ तो वे बहुत क्रोधित हुए। उधर शाप की सूचना पाकर महाराज परीक्षित पश्चाताप करने महर्षि वेदव्यास के पुत्र शुकदेव मुनि के आश्रम पहुंच गए।
        महाराज परीक्षित ने मुनि से अनुरोध किया कि वह थोड़े समय में मरने वाले मनुष्य के लिए आत्मा और अन्तःकरण को शुद्घ करने वाले कर्माें का ज्ञान देने की कृपया करें। मुनिवर ने राजा की प्रार्थना स्वीकार करते हुए अपने उपदेश में कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह ज्ञान के शस्त्र द्वारा अपने चित की वासनाओं का पूर्णतः दमन कर दें। ज्ञान मनुष्य को परम धाम मोक्ष पथ का अनुगामी बनाता है। योग की सीढियां ज्ञान के चक्षुओं को खोलने में सहायक होती है, अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह योग के सभी आठ अंगों द्वारा आत्मा पर जमे मैल को उतार दें। इससे व्यक्ति के मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
        मुनिवर के ब्रह्मज्ञान से राजा का मोह एवं भय नष्ट हो गया और राजा महल में पहुंच कर ध्यानमग्न हो गया। इसके कुछ समय उपरान्त तक्षक नाग आया और उसने राजा परीक्षित को डस लिया, जिससे राजा ब्रह्मलीन हो गए। राजा परीक्षित के बेटे जन्मेजय को जब इस घटना का पता चला तो उसने सर्पों के नाश करने का संकल्प लिया। उसने विद्घान पंडितों के मार्गदर्शन में सर्पदमन नामक यज्ञ प्रारम्भ किया। यज्ञ के प्रभाव से सर्पों का नाश होने लगा।
       जन्मेजय के कृत्य से दुःखी होकर महर्षि बृहस्पति ने उन्हें यज्ञ बन्द करने की सलाह दी। महर्षि ने कहा कि हर मनुष्य अपने प्रारब्ध कर्मों के परिणामस्वरूप ही सुख-दुःख तथा जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है। उन्होँने कहा कि
‘सतिमूले तद्विपाको, जातिआयुर्भोगः’
अर्थात सभी जीवों को उनके प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप ही जन्म से जाति (योनि), आयु और भोग निश्चित मात्रा में प्राप्त होते हैं। उनकी समाप्ति पर ही प्राणी इस देह का त्याग करता है। आपके पिता महाराज परीक्षित भा प्राणांत भी इसी के परिणामतः हुआ है। इसलिए उनके दुःख को भूल कर, निरपराध सर्पों के नाश करने का यह कार्य बन्द कर देना चाहिए। अब आप इस पाप रूपी कर्मों को बन्द कर दे। महर्षि के इस उपदेश पर जन्मेजय ने सर्पदमन यज्ञ बन्द कर दिया।

         जन्मेजय ने वह सर्पदमन यज्ञ आज के सफीदों नगर में ही किया था। इसी यज्ञ के कारण ही इस जगह का नाम पहले सर्पदमन और बाद सफीदम तथा अब सफीदों हो गया। बाद में, इस स्थान पर एक विशाल मन्दिर का निर्माण किया गया है,जिसको नागक्षेत्र के नाम से पुकारा जाता है। जिसे देखने से कलियुग के आगमन का आभास होता है, क्योंकि यहां के लोगों की धारणा है कि वर्तमान नागक्षेत्र मंदिर में ही वह प्राचीन यज्ञकुंड एवं कुछ ऐतिहासिक सामान भी मिल सकता है।
        कुरूक्षेत्र के 48 कोस की परिधि में आने वाले सफीदों के आसपास अनेक धार्मिक एवं प्राचीन स्थल मौजूद है। जहां लोगों की आस्था आज भी बरकरार है। लोगों का मानना है कि बिना किसी देख रेख के कारण ये तीर्थ अब अपने अस्तित्व की लड़ाई लग रहे है।
         लोगों की मान्यता के अनुसार धर्म युद्घ के पश्चात पांडव पुत्रों ने अपने सगे सम्बधियों की आत्मा के तर्पण के लिए पांडू पिंडारा नामक स्थान पर पिंड दान किए थे। यह स्थान सफीदों से करीब 25 किलोमीटर अर्थात लगभग 5 कोस की दूरी पश्चिम में स्थित है। इसी के नजदीक महर्षि जैमिनि का आश्रम है, जिनके नाम पर गांव जामनी बसा हुआ है।
         सफीदों के दक्षिण में स्थित गांव हाट में एक बडा शिवालय है, जिसे हटकेश्वर तीर्थ के नाम से जाना जाता है, स्थानीय लोग इसका संबंध भी महाभारत काल से मानते है। सफीदों से करीब 4 कोस की दूरी पर उत्तर पश्चिम में स्थित महर्षि पराशर का आश्रम स्थित इसके नाम से ही गांव पाजू बसा है। इस गांव में महर्षि पराशर की गुफाएं आज भी देखी जा सकती है। गांव में ही महाभारत कालीन एक सरोवर भी है, जिसको पदधोनी के नाम से जाना जाता है। बताया जाता है कि पिंडारा जाते वक्त पांडवों ने इस सरोवर में अपने पांव धौकर थकान दूर की थी।
         सफीदों के पश्चिम में सबसे बडे गांव मुआना में भी एक मदन मोहन तीर्थ है। इसी के नाम पर गांव मुआना नामकरण हुआ है। इस गांव में भी एक भव्य मंदिर बनाया गया है। इस गांव के पूर्व में एक प्राचीन गांव सिंघाना बसा है। यहां महर्षि श्रृंगि का आश्रम रहा था। यहां कुछ प्राचीन गुफाएं आज भी विद्यमान हैं, जोकि आज भी प्राचीन इतिहास की याद ताजा करती हैं।

कृष्ण कुमार आर्य

मैं आदमी हूँ!