बुधवार, 14 जुलाई 2010

तीन शक्तियां

                            किसे करें ग्रहण?

                                    त्रि शक्तिं ओउम् 
          जीवों में शक्ति शब्द का विशेष स्थाशन होता है। शक्ति ही जीवन का आधार है। पशु, पक्षी, पेड़, पौधे या जानवर भी हमेशा शक्ति की ही पूजा करते है और शक्तिशाली जीवों के सामने नतमस्तक हो जाते है। परन्तु मानव जीवन तो स्वयं एक शक्ति का प्रतिक है। सभी प्राणी मानव से भयभीत रहते हैं और सभी जीव मनुष्य जीवन प्राप्त कर उस जैसा बनना चाहते है।
         मानव जीवन सभी योनियों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह कर्म तथा भोग योनि है। शेष सभी भोग योनियां होती है। दूसरी योनियों में जीव कोई भी कर्म करने में स्वतन्त्र नही होता है, बल्कि वह अपने प्रारब्ध के आधार पर केवल अपने कर्मों के फलों को भोग सकती है। लेकिन मानव जीवन ऐसा एकल जीवन है, जिसमें जीव अपने पिछले जन्मों के कर्मों को भोगने के साथ-साथ इस जन्म में शुभ या अशुभ कर्म करने में भी स्वतन्त्र होता है।
        प्राणी द्वारा किए जाने वाले शुभ या अशुभ कर्म उसकी ग्राहण शक्ति का परिणाम भी होते हैं। वायुमंडल में उठने वाली किरणें व्यक्ति के कर्मों पर प्रभाव डालती हैं। ब्रह्मांड में तीन प्रकार की ऊर्जाएं यानि शक्तियां विद्यमान है। यही शक्तियां मनुष्य के शारीरिक तन्त्रर में भी होती है। कहते है कि ‘पिंडे सो ब्रह्मांडे’ यानि जो भी ब्रह्मांड है वही पिंड अर्थात शरीर में भी विद्यमान होता है। जीवात्मा की प्रवृति जैसी होती है वह अपनी बुद्घि से वैसी ही किरणों का ग्रहण कर लेती है और वैसा ही कर्म करने लग जाती है। इसके फलस्वरूप ही जीवात्मा का प्रारब्ध बनता है।
        ब्रह्मांड़ में हमेशा सकारात्मक, नकारात्मक और उदासीन तीन प्रकार की ऊर्जाएं अर्थात किरणें होती है। इन्हें त्री शक्तियां भी कहा गया है। इन्हीं किरणों के ग्रहण करने से व्यक्ति की सोच व विचार परिवर्तित होते हैं। व्यक्ति अपनी बौद्घिक क्षमता के आधार पर ही ब्रह्मांड से ऊर्जा ग्रहण करता है और वह जैसा सोचता है उसे वैसा ही परिणाम मिलना शुरू हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि किसी भी व्यक्ति या प्राणी के विषय में नकारात्मक विचार रखना स्वयं के लिए हानिकारक होता है। नकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सामने वाले का ऋणि हो जाता है, जबकि सकारात्मक विचारों से सामने वाला ‌ऋणि हो जाता है। यही सोच अर्थात विचार व्यक्ति का प्रारब्ध बनाने वाले होते है।
सकारात्मक - ब्रह्मांड में सकारात्मक (Positive Energy) प्रकृति की ऊर्जा होती है। इसके ग्रहण करने से व्यक्ति सही दिशा में अच्छा ही सोचता है। ‌मुसिबतों में भी सकारात्मक सोच रखने से परिणाम अच्छे मिलते है।
नकारात्मक – नकारात्मक (Negative Energy) सोच व्यक्ति के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है, जिससे वह उसी प्रकार के कर्म करने लगता है और परिणामस्वरूप व्यक्ति नकारा बन जाता है।
उदासीन – उदासीन (Neutral Energy) एक ऐसी ऊर्जा है, जिसमें व्यक्ति कर्मों के राग-द्वेश से दूर हो जाता है यानि तटस्थ हो जाता है। वह किचड़ में कमल की भांति हमेशा समाज की गंदगियों से ऊपर व अलग रहता है। यह योगियों की जीवनशैली में शामिल होता है।
         अतः व्यक्ति की सोच ही उसके सभी कर्म-फलों का कारण बनती है। एक कहावत है कि ‘If you think positive than the result will also be positive’ अर्थात ‘सकारात्मक सोच का परिणाम भी सकारात्मक ही होगा’। मनुष्य को शहद की मक्खी बनना चाहिए, जो कि फूलों से शहद ही इक्कठा करती है। गंदगी की मक्खी नही बनाना चाहिए जो अच्छे व साफ-सुथरे पदार्थों में भी गंदगी का ही चयन करती है। ऐसा करने से समाज में भी सकारात्मक ऊर्जा का विस्तार होगा और आपसी भावनात्मक रिश्तों का निर्माण होगा, जोकि समाज को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्घ होगा।

                                                            कृष्ण कुमार ‘आर्य’

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

ग्लोबलवार्मिंग

  एक खतरा 
                                                            
         प्रकृति में प्रत्येक जीव एवं वस्तु उपयोगी होती है। ये सभी एक दूसरे पर निर्भर रहती है। वनस्पति जगत, पशु जगत और प्राकृतिक सम्पदाएं आपस में सहयोगी है। प्रकृति का हर एक क्रियाकलाप एक व्यवस्था में बंधा हुआ दिखाई देता है। सूर्य तथा चन्द्रमा का समय पर उदय व अस्त होना एक नियमानुसार है। पेड़-पौधे समय पर फल व फूल विसर्जित करते हैं। मनुष्य इनका प्रयोग अपने आहार के लिए करता है। सुअर, मुर्गें, चील, कव्वे तथा अन्य जीव मानव के खानपान से बनने वाले अपशिष्ट पदार्थों का भक्षण कर अपने जीवन को चलाते हैं। मानव शरीर से उत्सर्जित होने वाली कार्बनडाईआक्साईड जैसी हानिकारक गैसों को पेड़-पौधे अपने भोजन के रूप में प्रयोग कर पर्यावरण का शोधन करते हैं। इससे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है।
      आज कल मानवमात्र द्वारा किए गए क्रिया-कलापों से वायुमंडलीय ढ़ाचा बिगड़ रहा है। गाड़ियों का धुआं, जीवाश्मों का दहन, कारखानों व फैक्ट्रियों का कचरा, पेडों की कटाई, जीवों द्वारा प्रतिक्षण लिए जा रहे श्वास-प्रश्वास तथा त्यागे जा रहे अपशिष्ट पदार्थों की दुर्गन्ध से वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड़ गैस की मात्रा दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड़ गैस के परिणामस्वरूप वायुमंडल का तापमान में हरपल वृद्घि हो रही है। इसी वायुमंडलीय ताप की बढोतरी को ग्लोबलवार्मिंग कहा जाता है।
         पृथ्वी के चारों ओर करीब 40 किलोमीटर की ऊंचाई तक गैस का एक आवरण होता है, जिसे वायुमंडल कहते है। इसमें नाईट्रोजन, आक्सीजन, कार्बनडाईआक्साईड, कार्बनमोनोआक्साईड, नाईट्रोजनडाईआक्साईड, धूलीकण तथा जलकण सहित अनेक गैसें पाई जाती है। वायुमंडल में आक्सीजन 21 प्रतिशत, नाईट्रोजन 78 प्रतिशत तथा शेष अन्य गैसें 1 प्रतिशत होती है। इसमें कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा 0.033 फीसदी होती है। परन्तु उक्त कारणों से वायुमंडल में प्रत्येक क्षण कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा बढ़ रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार गत 100 वर्षों में करीब 36 हजार करोड़ टन कार्बनडाईआक्साईड गैस जीवाश्म ईन्धनों के दहन, कृषि एवं अन्य कार्यों से उत्पन्न हुई है। इसके परिणामस्वरूप वायुमंडल में कार्बनडाईआक्साईड गैस मी मात्रा में करीब 13 फीसदी बढोतरी हुई है।
          पृथ्वी की सतह के चारों ओर लगभग 16 से 23 किलोमीटर की ऊंचाई पर एक रक्षात्मक गैस का आवरण होता है, जिसे ओजोन (o3) परत कहते है। ओजोन की यह परत पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यह परत सूर्य द्वारा उत्सर्जित हानिकारक पराबैंगनी (ultra violet) किरणों को अवशोषित कर पृथ्वी तक नही पहुंचने देती। ये किरणें चरम रोगों को बढ़ावा देती है। ओजोन परत से प्राणीमात्र सूर्य की हानिकारक किरणों के कुप्रभाव से बचा रहता है। सूर्य से निकलने वाले प्रकाश का एक भाग वायुमंडल को गर्म करता है, जिसे अवरक्त प्रकाश (infra red) कहते है। सामान्य परिस्थितियों में यह प्रकाश पृथ्वी से टकराकर परावर्तित हो जाता है परन्तु पर्यावरण में बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा इसे वापिस न भेज कर सोख लेती है। इसके कारण वायुमंडल गर्म हो जाता है, जिसको ग्रीन हाऊस प्रभाव कहते है। यह वायुमंडल का तापमान बढाने का कारण बनता है।
          पहले बुजुर्ग लोग सूर्य, चांद व तारों की परिस्थितियों से मौसम बदलने का अनुमान लगा लेते थे, जोकि आज सम्भव नही लगता है। आज बढ़ते ‘ग्रीन हाऊस प्रभाव’ के कारण वस्तुस्थिती बदल चुकी है। हरे पौधे व महासागर भी बढ़ती हुई कार्बनडाईआक्साईड गैस का पूर्ण उपयोग कर वायुमंडल को संतुलित नही कर पा रहे। हरे पौधे जहां कार्बनडाईआक्साईड गैस को लेकर इसके बदले ‘प्राणवायु आक्सीजन’ छोड़ते हैं वहीं महासागर भी कार्बनडाईआक्साईड गैस को कार्बोनेटों में बदल देते हैं। इसके बावजूद भी कार्बनडाईआक्साईड की मात्रा में 0.04 प्रतिशत वार्षिक वृद्घि दर्ज की जा रही है। इसके चलते गत करीब 40 वर्षों के दौरान वायुमंडलीय ताप में करीब 1.5 डिग्री सैल्सियस से 4.8 डिग्री सैल्सियस तक की वृद्घि दर्ज की गई है।
           प्राचीन काल में जीवाश्म इन्धन की अपेक्षा सूर्य को ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत के तौर पर प्रयोग किया जाता था। आजकल जीवाश्म इन्धनों का परिवहन से 42 प्रतिशत, औद्योगिक क्रिया क्लापों से 14 प्रतिशत, ईन्धन के दहन से 21 प्रतिशत, जंगलों की आग से 8 प्रतिशत, अपशिष्ट पदार्थों से 5 प्रतिशत तथा अन्य साधनों से 10 प्रतिशत प्रदूषण फैल रहा है। इसके परिणामस्वरूप मौसम के बदलते मिजात के कारण वर्षा की अनिश्तिता तथा ग्लेशियरों का पिघलना लगातार बढ़ रहा है। एक रिर्पोट के आधार पर हिमालय के गढवाल क्षेत्र के लिए ढोकरियनी बारनाक ग्लेशियर 66 फुट तथा गंगोत्री हिमखंड 98 फुट की दर से हर वर्ष पिघल रहे है। इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश के गिरिराज में 539 फुट, गंगोत्री में 175.2 फुट, पिंडार में 283.5 फुट तथा असम के पहाडों के ग्लेशियर 167 फुट प्रतिवर्ष की गति से पिघल रहे हैं।

          ग्रीन हाऊस प्रभाव ही ग्लोबलवार्मिंग का जनक है। इसी के कारण ही पर्यावरण आज मानवता के लिए खतरा बना हुआ है। हिमालय में पांच प्रमुख ग्लेशियर है, जो भारतीय नदियों में जल बन कर बहते हैं। इनमें सियाचिन ग्लेशियर सबसे बड़ा है। यह ग्लेशियर 72 किलोमीटर लम्बा और करीब 2 किलोमीटर चौड़ाई में फैला हुआ है। बालटोरो, बीयाफो, नूब्रा तथा हिसपुर ग्लेशियर भी 60 से 62 किलोमीटर की लम्बाई में फैले हुए है। इसी प्रकार उत्तरांचल में 6-7 ग्लेशियर है, जोकि देश की नदियों में पानी देते है।
          कनाड़ा के पर्यावरण मंत्रालय ‘एन्वार्यमैंट कनाड़ा’ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 45 वर्षों के दौरान कनाड़ा के पश्चिमी आर्कटिक के तापमान में 1.5 डिग्री सैल्सियस से अधिक की वृद्घि हुई है, जिसके कारण वहां विद्यमान बर्फ सिकुड़ रही है तथा समुद्रतल छोटे हो रहे है। वैज्ञानिक आंडाकि का मानना है कि बढ़ती कार्बनडाईआक्साईड गैस की मात्रा के कारण वायुमंडलीय सुरक्षा कवच ‘ओजोन परत’ का छिद्र बड़ा हो रहा है, फलतः सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों में बढोतरी हुई है।
         यूएन इंटरनैश्नल पैनल ऑन क्लाइमेट चैंज (IPPC) के चेयरमैन डॉ. आर के पचौरी ने कहा कि यदि ग्लोबलवार्मिंग इसी प्रकार बढ़ती गई तो वर्ष 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर पूरी तरह पिघल जाएंगे। हिमालय पर्वत बर्फ से खाली हो जाएगा और ये ग्लेशियर नदियों के किनारों को तोडते हुए समुद्र की ओर बढ़ने लगेंगे। नदियों का पानी मैदानी भागों को निगल जाएगा और समुद्र के किनारे छोटे होने लगेंगे। इससे मुम्बई, गोवा तथा मालदीव जैसे क्षेत्रों को भी अपना अस्तित्व बचाना मुस्किल होगा।
          बढ़ते प्रदूषण को कम करने के लिए 1997 में जापान के क्योटा में ग्लोबलवार्मिंग पर एक संधि हुई थी, जिसमें वर्ष 2012 तक सभी देशों को कार्बनडाईआक्साईड, मिथेन जैसी जहरीली गैसों को 7 प्रतिशत तक कम करने पर सहमति हुई, परन्तु भारत एक ऐसा महान देश है, जहं धार्मिक और राजनैतिक मंशाओं की पूर्ति के लिए जमकर प्रदूषण फैलाया जाता है। देश में प्रतिवर्ष गणेश की लाखों मूर्तियां समुद्र में बहाई जाती है, जिससे समुद्र में 8 प्रतिशत हैवी मैटल बढ़ जाता है। इससे समुद्री जीवों के जिन्दा रहने पर प्रश्न चिह्न लगता है। इतना ही नही लोगों द्वारा अपने नीजि स्वार्थों की पूर्ति के लिए अंधाधूंध पेडों की कटाई की जाती है।
         वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं व आम लोगों की भी जिम्मेदारी होनी चाहिए। हमें अधिक से अधिक पेड लगाने चाहिए। आजकल तो देश व विदेशों में भी यज्ञ को भी प्रदूषण से मुक्ति दिलाने का प्रमुख साधन माना जाता है। यज्ञ में सुगंधित पदार्थों के दहन से हानिकारक परमाणु सुक्ष्म रूप में बदल जाते हैं। इससे यज्ञ के आसपास के क्षेत्रों को प्रदुषण के किटाणुओं से मुक्ति मिलती है और कार्बनडाईआक्साईड गैस के परमाणु उपयोगी तत्वों में विभिक्त हो जाते हैं। अतः पर्यावरण में रहने वाले को इसकी सुद लेनी होगी अन्यथा वह दिन दूर नही होगा जब हमें स्वयं पर ही पछताना पड़ेगा।
                                                         कृष्ण कुमार ‘आर्य’






मंगलवार, 22 जून 2010

निर्जला एकादशी

एक तप  

                                  

        देश में त्यौहारों व व्रतों को अपना महत्व है। इनको अलग-अलग ढ़गों व तरीकों से मनाया जाता है। इन्हीं में से एकादशी के व्रत में भी लोगों की अगाध श्रद्घा है। एकादशी कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष के दौरान प्रत्येक माह में दो बार आती है। अनेक व्यक्ति इन सभी एकादशी का व्रत रखते हैं। परन्तु ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति सभी एकादशी का व्रत नही करते या नही कर सकते वे इस निर्जला एकादशी का व्रत कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं।
         निर्जला एकादशी ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष में आती है। इस व्रत को अधिकतर महिलाएं ही रखती है। यह व्रत एकादशी को सूर्योदय से लेकर द्वादशी के सूर्योदय तक करीब 24 घंटे की अवधि तक रखा जाता है। व्रत के दौरान व्रती केवल एक बार ही पानी ग्रहण करते है। इसलिए इसे निर्जला एकादशी कहा जाता है। इस निर्जला एकादशी को भीमा या भीम एकादशी के नाम से भी पुकारा जाता है।
        पौराणिक मान्यताओं के अनुसार निर्जला एकादशी का व्रत रखने से महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और इससे उनके घर व परिवारों में आयु, आरोग्यता, धन, दौलत, पुत्र-पौत्रादि व सुखों की वर्षा होती है। महिलाएं सुन्दर परिधानों व 16 श्रृंगारों से सजकर व्रत को सम्पन करने के लिए ब्राह्मणों भोजन, वस्त्रत, छतरी, जूते व अन्य वस्तुओं का दान करती है। इस व्रत के दौरान वे जल की बजाय दूध व फलादि का प्रयोग करती है। वैसे एक बार में लिया जाने वाला जल की मात्रा भी अधिक नही होती है। जल की यह मात्रा सरसों के एक बीच को भिगोने जितनी होती है। इसको यदि आंका जाए तो यह एक बूंद से भी कम होगी। व्रती को पूरे 24 घंटे इसी एक बूंद पानी में गुजारने होते हैं।
        निर्जला एकादशी को लोग बड़ी श्रद्घा से मनाते है। मंदिर, शहर, मौहल्लों, सड़कों और निर्जन राहों व स्था्नों पर आने जाने वाले राहगीरों, पशु व पक्षियों के लिए पानी की छबीलें लगाई जाती है और उन्हें पानी पिलाया जाता है। इस एकादशी को गांवों में खरबूजों से भी जोड़ कर देखा जाता है। गांवों मे इसे ‘खरबूजे खानी ग्यास’ के नाम से भी जाना जाता है। खरबूज में पानी मात्रा सबसे अधिक होती है। इसलिए खरबूजा ज्येष्ठ माह में निर्जला रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी को भी यह पूरा करता है।
        निर्जला एकादशी के व्रत को महाभारत काल के महर्षि वेदव्यास से जोड़कर भी देखा जाता है। बताया ‌जाता है कि महाभारत युद्घ के पश्चात एक दिन महर्षि पांडवों को एकादशी का महत्व बता रहे थे। उन्होंने कहा कि व्यक्ति द्वारा प्रत्येक एकादशी का व्रत रखने से उनकी प्रतिभा में निखार व सभी मनोकामना पूर्ण होती है। निर्जला पर भीम ने एतराज जताते हुए कहा कि पितामह! मेरे लिए तो प्रत्येक एकादशी का व्रत रखना सम्भव नही है, क्योंकि मुझे भूख बहुत लगती है और मैं भूख सहन नही कर सकता।
         इस पर वेदव्यास ने उन्हें ज्येष्ठ माह में आने वाली एकादशी को निर्जला रखने की बात कही, जिसको उन्होंने मान लिया। उन्होंने निर्जला एकादशी के दिन पानी पीने, उसके बहाव व बचाव रखने की बात कही। भीम की सहमति के मिलने कारण इस व्रत को भीम व्रत या भीम एकादशी व्रत के नाम से जाना जाता है। यह बहुत बड़ा व्रत है इसलिए भी इसे भीम यानि बड़ा व्रत कहा जाता है।
       महर्षि का यहां यह मानना भी हो सकता है कि व्यक्ति को एकादशी व त्रयोदशी के दिन-रात के दौरान अपने शरीर के अमूल्य पानी (वीर्य) का क्षय नही करना चाहिए और न ही इस दिन गर्भादान क्रिया करनी चाहिए। ऐसा करने से संतान में अनेक दोष हो जाते है। इस एकादशी को इसलिए भी निर्जला एकादशी कहा गया होगा। निर्जला एकादशी हमें यह संदेश भी देती है कि व्यक्ति को संसार में रहते हुए भी पूरी तरह निर्जला रहना चाहिए। जिस प्रकार कमल का फूल जल में रहता हुआ भी उससे ऊपर होता है उसी प्रकार मनुष्य को सांसारिक बु‌राईयों से ऊपर उठकर संसार में रहना चाहिए, तभी यह व्रत फलदायी होगा।  
                                                                 कृष्ण के. आर्य
 

कर्म

         या... ‘भस्मान्तम् शरीरम्’

     मानव जीवन में कर्म की अति महत्ता है। कर्म व्यक्ति को जहां जीने की सही कला सिखाता है वहीं कर्म ही व्यक्ति के जीवन स्तर को नीचे गिरा देता है। कर्म की विषमताओं के कारण ही जीवात्मा बार-बार जन्म लेता है। जीवात्मा द्वारा उसके विभिन्न जन्मों में किए गए कर्मों के आधार पर ही भगवान ने उसे दो अमूल्य तत्व भेंट किए हैं। उनमें एक है ‘शरीर’- जिसमें जीवात्मा एक नि‌श्चित समय तक वास करता है और कर्म करते हुए अपना प्रारब्ध बनाता है। दूसरा है ‘प्राण’- जोकि शरीर को चलाते है। जिस प्रकार शरीर के बिना आत्मा कुछ नही कर सकता है उसी प्रकार प्राण के बिना शरीर भी व्यर्थ हो जाता है और उसे ‘भस्मान्तम् शरीरम्’ भस्म कर दिया जाता है। शरीर व प्राण दोनों जीवात्मा द्वारा किए गए कर्मों का प्रतिफल होते है। अच्छे व शुभ कर्म करने से शरीर सुन्दर व आयु लम्बी मिलती है, जबकि बुरे कर्मों के फलस्वरूप शरीर कुरूप व अल्पायु प्राप्त होती है।
         इस संसार में कर्म के द्वारा बड़ी से बड़ी वस्तुओं को प्राप्त किया जा सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि यदि कर्म करते हुए भी व्यक्ति लक्ष्यित वस्तु को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है तो इसके पीछे भी कर्म की न्यूनता और कर्ता के प्रारब्ध कर्मों का परिणाम ही होता है। शास्त्रों , ऋषि, मुनियों और कवियों तक ने कर्म की महानता पर बल दिया है। शास्त्रों में कर्म से जी चुराने वाले व्यक्ति को ‘अकर्मा दस्यु’ कहा गया है यानि कर्महीन व्यक्ति राक्षस के समान होता है। कर्म से भागने वाले व्यक्ति को शास्त्रय भी अच्छा नही मानते क्योंकि कर्म ही व्यक्ति के जन्मजन्मान्तरों का आधार होता है। इसकी शुन्यता से संसार चक्र थम सकता है और सृष्टि का ह्रास होने लगता है। इसलिए कर्म करना प्रत्येक जीव के लिए अति आवश्यक है।
कर्म जीवन का आधार है। कर्म के द्वारा ही व्यक्ति बड़ी से बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। कर्महीन व्यक्ति कभी अपने लक्ष्य की प्राप्ती तो दूर उसके आसपास भी नही पहुंच सकते है। कर्म के विषय में एक कवि ने कहा है कि
‘सकल पदार्थ सब जग माही, कर्महीन नर पावत नाही’
अथार्थ इस संसार में सभी प्रदार्थ विद्यमान है परन्तु कर्महीन व्यक्ति उसे कभी प्राप्त नही कर सकते है। इसलिए कर्म प्राणी के जीवन की ज्योति है, जोकि कर्म करने से जलती रहती है और कर्महीन होने से यह ज्योति भी मन्द पड़नी शुरू हो जाती है।
        कर्म की गति बड़ी सूक्ष्म होती है। इसको समझना इतना आसान नही है। कर्मफल का ज्ञान तो ओर भी कठिन है। कभी-कभी बड़े-बड़े साधू, संत और उच्च श्रेणी के योगी इसमें मात खा जाते हैं और कर्मों के चक्करव्यूह में फंसकर, जन्म मरण के चक्कर काटते रहते है। यह तो सभी जानते है कि सभी प्राणियों में आत्मा का निवास होता है, जो अपने कर्मों से भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है। इसे कर्मों का ही परिणाम माना जाएगा कि एक व्यक्ति जन्म से अंधा, काना, लंगड़ा, लूला और अनेक भंयकर बिमारियों से ग्रसित पैदा होता है, जबकि दूसरा सम्पूर्ण स्वस्थ होकर जीवन के सभी सुखों का उपभोग करता रहता है। कर्मों के परिणामस्वरूप ही आत्मा गधे, कुत्ते, सुअर तथा स्थागवर इत्यादि अनेक निम्न योनियों (जातियों) में पैदा होता है और दुःखों को भोगता है। इसे भी कर्मों का ही परिणाम कहेंगे की मानव योनि में जन्म लेकर एक आत्मा पूरा जीवन सड़क किनारे झुठे पत्ते खाकर गुजारा करता है, वहीं एक कुत्ते की योनि (जाति) में पैदा हुआ आत्मा एसी गा‌ड़ियों में चलता हैं।
         कर्म की महानता किसी से छिपी नही है। भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता में कर्मयोग की महानता पर प्रकाश डाला है। गीता में कहा गया ‌है कि पातंजलि योग के आठ अंग तो शरीर का शोधन कर आत्मा को पवित्र करते है, जबकि कर्मयोग द्वारा व्यक्ति का प्रारब्ध बनाता है। यही प्रारब्ध कर्म आत्मा को सुन्दर शरीर व उत्कृष्ट परिस्थितियां प्रदान करता है। प्रारब्ध के आधार पर ही आत्मा को उसका भला या बुरा जन्म प्राप्त होता है। इसलिए कर्मयोग की महत्ता योगदर्शन में समाहित योग से भी ज्यादा प्रभावी होता है। ऋषियों ने कर्म को मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभिक्त किया है। इन्हीं तीन प्रकार के कर्मों से आत्मा जन्मों से लेकर मोक्ष तक पहुंचने के लिए गति करता रहता है। ये तीन प्रकार के कर्म इस प्रकार हैं- 1. क्रियमाण 2. प्रारब्ध 3. संचित
1. क्रियमाणः ये ऐसे कर्म होते हैं, जिन्हें हम इस जन्म में करते है। प्रतिदिन किए जाने वाले कर्मों को क्रियमाण कर्म कहा जाता है। क्रियमाण कर्मों को चार भागों में बांटा गया है।
• अकर्मः अपने लिए किए गए कर्मों को अकर्म कहते है यानि ऐसे कर्म जिनसे किसी दूसरे को न लाभ हो और न ही हानि हो वे अकर्म की श्रेणी में आते हैं। जैसे भूख लगने पर भोजन करना, प्यास लगने पर पानी पीना या अपनी दिनचर्या में शामिल अन्य कर्म करना होता हैं। इन कर्मों को नित्य कर्म भी कहा जाता है। इन कर्मों का प्रभाव भी आत्मा पर पड़ता है।

• कर्मः वे कर्म जो दूसरों की भलाई के लिए किए जाते हैं, जिनमें अन्य जीवों का लाभ समाहित होता है उन्हें कर्म कहा जाता है। जैसे दूसरों की सहायता करना इत्यादि।
• विकर्मः ऐसे कर्म जिनसे अन्य प्राणियों की हानि होती है, उनको किसी भी तरह की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है उन्हें विकर्म की श्रेणी में शामिल किया गया है।
• सुकर्मः जो कर्म जीवात्मा को मोक्ष मार्ग पर ले जाने व आत्मा को बन्धन मुक्त करने वाले होते है उन्हें सुकर्म कहा जाता है।
2. प्रारब्धः उक्त सभी कर्मों का अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव आत्माो पर पड़ता है, जो भावी जन्मों का कारण बनते है। इसे आत्मा का प्रारब्ध कहा जाता है। इसी प्रारब्ध के प्रतिफलस्वरूप आत्मा को अगला जन्म प्राप्त होता है। शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप अच्छा और अशुभ कर्मों से निम्न कोटि का शरीर प्राप्त होता है।
प्रारब्ध को उच्चकोटि का बनाने के लिए तीन प्रकार के कर्म और किए जाते हैं। इसमें ‘नित्य कर्म, नैमितिक कर्म तथा काम्य कर्म’ शामिल हैं।

नित्य कर्मः उक्त अकर्मों को ही नित्य कर्मों की श्रेणी गिना जाता है। ये कर्म प्रतिदिन किए जाने वाले कर्म होते हैं।

नैमितिक कर्मः किसी त्यौहार या विशेष अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों को नैमितिक कर्म कहा जाता है। जैसे दीवाली, दशहरा इत्यादि पर किए जाने वाले कर्म इत्यादि।
काम्य कर्मः किसी विशेष कामना को लेकर ‌किए जाने वाले कर्मों को काम्य कर्म कहते है। जैसे लग्न उत्सव, नामकरण संसकार, पूत्रे‌‌‌ष्टि यज्ञ, वृष्टि यज्ञ इत्यादि।
3. संचितः आत्मा द्वारा जन्मजन्मान्तरों में किए गए सभी शुभाशुभ कर्मों के अंश मात्र उसके सुक्ष्म शरीर के साथ जमा होते जाते है, जिन्हें संचित कर्म कहा जाता है। ये कर्म आत्मा का बैंक बलैन्स है। जब आत्मा के संचित कर्म, फल देने लायक नही रहते तक आत्मा मोक्ष का सुख प्राप्त करने के लिए मुक्त हो जाती है। परन्तु जब तक आत्मा के संचित कर्म शेष रहते है तो वह जन्मों के बन्धन से घिरा रहता है और उसे उक्त सभी कर्म करते रहना पड़ता है।
      आत्मा को उर्ध्व गति प्रदान करने के लिए कर्म का विशेष स्था न होता है इसलिए स्वयं के उत्था न के लिए शुभ कर्म ही करने चाहिए, जिससे जीव, समाज व राष्ट्र सभी का भला होगा।                                                                           कृष्‍ण के. आर्य



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