गुरुवार, 26 जून 2025

मेरा देश

 

मेरा देश

आओ भारत भूमि की, तुम्हें कथा सुनाता हूँ। 

वो मेरा देश है, जो मैं तुम्हें बताता हूँ ।।

    जम्मू कश्मीर से कन्या कुमारी, 

    है कौन वह नही जिसने जाना, 

    विविधताओं की क्यारी में, 

    है मानुष बन सब जग माना, 

उसी भेद को आज, मैं तुम्हें बतलाता हूँ । 

    पठार की धरती और तुमने, 

    चाय बागान को नहीं देखा, 

    कुदरत की मनमोहकता और,

    झरनों के कलरव को नहीं देखा, 

उसी मोहकता का गान, आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ,

    छत्तीस प्रदेशों का देश यह,

    जिन पर केंद्र करता है राज,

    सरकार यह करें सुनिश्चित, 

    कैसा हो हमारा समाज, 

उसी समाज की परिकल्पना, आज मैं तुम्हें बताता हूँ।

    तय समय पर तय हो वर्षा,

    फसल लहलाए खलियानों में,

    अन्न, धन से होवे पूर्ण,

    रस रहे भरा जुबानों में,

उसी रस की महत्ता, आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

    जहाँ रही मानव की महानता, 

    आपस में रही बेहद समानता, 

    जिस कारण हम रहे विश्वगुरु,

    उन को क्यूँ जाते हैं भूल, 

उन्हीं गुणों की महानता, आज मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

    शौच, सन्तोष, तय, स्वाध्याय,

    जहाँ अपनाते नित प्रणिधान,

    सत्य, अहिंसा, अस्ते, ब्रह्मचर्य, 

    जहाँ अपरिग्रह का नित हो पालन,

जीवन उच्च आदर्शों को, आज ‘केके’ तुम्हें सुनाता हूँ। 

    आओ भारत भूमि की, तुम्हें कथा सुनाता हूँ। 

    वो तेरा भी देश है, जो मैं तुम्हें बताता हूँ ।।


                                                                            डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’ 


गुरुवार, 12 जून 2025

मैं आदमी हूँ!


मैं आदमी हूँ!

भावनाओं के समर में, मैं खड़ा अकेला हूँ,

सोच विचार थकता रहूँ, मैं ही सब झेला हूँ।

रात गुजर जाए यूँ ही, ना कुछ मैं कहूँ,  

सुबह दिखूं वैसा ही, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

गरीबी हो या अमीरी, घर से रोज निकलता हूँ,

दिहाड़ी करूँ या नौकरी, पेट बच्चों का भरता हूँ।

दिन ढ़ले घर मैं आऊँ, सब गम सह लेता हूँ,

फिर स्नेह की आस करूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

परिवार का बोझ उठाऊँ मैं, पत्नी गले लगाता हूँ,

माँ-बाप संग बैठ अकेला, दिल की टीस सुनाता हूँ।

इष्ट-मित्रों के आने पर मैं, जिम्मेदारी निभाता हूँ,

फिर तिरस्कार पी जाता हूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ।

देख बच्चों का फूहड़पन, मनमानी उनकी सहता हूँ,

सह अनादर अपने घर में, फिर हँसने लग जाता हूँ।

पत्नी मित्र जब आए घर, घूंट जहर की भरता हूँ,

भय से न कुछ कह सकूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

मार्गदर्शक बन पत्नी का, उसे समझाने लगता हूँ,

गैर पुरुष घर आने के, नुकसान बताने लगता हूँ।

आबरू तेरी मेरी एक समान, यह सिखाने लगता हूँ,

मन ही मन में डरता हूँ, क्योंकि मैं आदमी हूँ॥

आज आहार कैसा तुम्हारा, घोर तामसिक बनाता है,

अपने सुख की खातिर वो, हत्यारिन बन जाती है।

कभी सांप से डंसवा कर, कभी ड्रम में चिनवाती है,

‘केके’ बड़ाई करें तुम्हारी, क्योंकि तूं आदमी है॥


                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’

 

बुधवार, 21 मई 2025

भारत माता की जय

 

                         भारत माता की जय

        देश की शान ये देश का गान है,
        बिन परिचय के ही देश की पहचान है, 
        दुश्मन में समाये हुए भय की धमक है,
        भारती के भाल की यह अनुठी चमक है,
        पापी को छलनी करता यह एक उद्घोष है, 
शत्रु की छाती पर जब बोले, भारत माता की जय। 
हमारे वीर सेनानी जब, मैदान में डट जाते हैं,
भारत की मर्यादा पर, शीश काट कर लाते हैं,
सिंहासन भी हिलने लगता, जहां पांव जमाते हैं, 
खून की गर्मी से उनके, धरती सिमट जाती है,
रण में भरी हुंकार से, सर-ताज सिहर जाते हैं,
दुश्मन का कलेजा यह सुन कांपे, भारत माता की जय।
निहत्थों पर गोली चला, नापाक वीरता दिखलाते हैं,
पहलगांव घाटी में कायर, बहनों का सिंदूर मिटाते हैं,
चोरी और सीना जोरी, फिर वे कर इतराते हैं,
ड्रोन, मिसाइल, वारहेड से, करके वार दिखाते हैं,
मिट्टी में मिल गए तब, सेना हिन्द से टकराते हैं,
आकाश भी बोले अब ये आवाज, भारत माता की जय।
न्यूक्लियर की हवा निकाली, हमारे वीर जाबांजों ने,
नौ ठिकाने असुरों के, ग्याहर ऐयरबेस उजाड़े हैं,
आसमां में उड़ते जहाज, ला धरती पर पछाड़े हैं,
गोली बदले गोला खाते, फिरते मुहं छिपाते हैं,
दहाड़ मारकर रोने लागे, अपनी मौत बुलाते हैं,
खून की गर्मी शांत हुई यह सुन, भारत माता की जय।
सिंदूर का बदला लेने को, सिंदूर ऑपरेशन चलाते हैं,
आधी रात के तारों में, जलता सूरज दिखलाते हैं,
सीना छलनी किया वैरी का, नही भाग वो पाते हैं,
देश करे नमन उन्हें, जो पाक को पाताल दिखाते हैं,
‘केके’ सेना माँ भारती, अद्भुत शौर्य है दर्शाती,
ब्रह्मोस की गर्जना से सुन वे कांपे, भारत माता की जय।


                                                                                    डॉ. के कृष्ण आर्य ‘केके’


शुक्रवार, 2 मई 2025

तुलना


                                       तुलना

         एक दिन मैं बैठ अकेला, 

        चाहता था पुस्तक पढना,

        चलता-चलता मन चला, 

तो लगा करने किन्ही, दो में तुलना।

पहले तुलना की मैने, 

        तराजू के दो पलडों की,

        इनकी भी क्या मजबूरी है,

एक ही रस्सी से बंधना,

फिर भी मैं कर रहा क्यूं, दोनों की तुलना।

पलडों का हुआ निर्माण समान, 

        एक बड़ा न दूसरा दयावान,

        दोनों करते एक दूसरे का मान,

        मजबूरी है उनकी अलग रहना,  

यूं ही मैं करने लगा उन, दोनों की तुलना।

एक मूल संग रहते दोनों,

स्वभाव है उनका दूरी पर रहना, 

एक की चाहत रहती है लेना,

दूसरा चाहता है हमेशा कुछ देना,

इसलिए मैं कर रहा हूं इन, दोनों की तुलना।

सरल निगाहें देख रही,

        तुला तो है एक ही,

        किसे बताऊ अच्छा, 

        यह समझ मैं पाया ना,

हां फिर क्यूं मैंने चाहा करना, दोनों की तुलना।

दो हाथ दिये हम सबको,

इनका प्रयोग तुम ऐसे करना,

एक को लेने की ना पड़े जरूरत,

दूसरे की चाह रहे कुछ देना,

तभी तो ‘केके’ कर रहा है इन, दोनों में तुलना।

          

                                                                     डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’

 

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

पंछी की दुनिया

पंछी की दुनिया


        उल्लास भरे और भोर भए,

        चहचहाहट सी आवाजें करते हैं।

        पंखों की फडफ़ड़ाहट से,

        आसमां में खूब मचलते हैं

ऐसा है कौन बताओ, ये पंछी की दुनिया है।।

        नीलांबर में उडक़र जाते, 

        पेड़ों पर भूख मिटाते हैं।

        प्रकृति के आंगन में वे,

        खुशियां खूब लुटाते हैं।

फिर बतलाओ कैसी, ये पंछी की दुनियां हैं।।

        कुदरत की मोहकता में,

        वास वृक्ष पर बनाते है।

        अपने चूजों की सेहत खातिर, 

        स्नेह का ग्रास खिलाते हैं।

ऐसा हैं कौन बताओ, ये पंछी की दुनियां है।।

        पंख फैला और दिन ढ़ला,

        घोंसले में अपने आते हैं।

        शांति का पढ़ा पाठ वे,

        भोर भए उड़ जाते हैं।

क्या जान न पाए, ये पंछी की दुनियां है।।

        वे गाते गीत सुरीले अपने,

        और अपनी धुनें बजाते हैं।

        अपनी दुनिया में रहकर वे,

        दुनिया को जीना सिखाते है।

क्या तुम न जानो, ये पंछी की दुनियां है।।

        सुख-दुख का अहसास उन्हें भी,

        सबका आभार जताते हैं।

        दाना कोई डाले उनको,

        नतमस्तक हो जाते हैं।

अब तुम भी जानो, ये पंछी की दुनियां है।।

        आजादी से वह रहना चाहें,

        पिंजरा कब ठिकाना है।

        आसमां मापने वाले को,

        बंधन कब सुहाना है,

दासतां में रोने लागे, ये पंछी की दुनिया है।।

        दिनभर दाना चुनकर लाते,

        चूजों संग रात बिताते हैं।

        तोड़ घोंसला मार दे कोई,

        तो बहुत रुदन मचाते हैं।

केके अब समझो उनको, ये पंछी की दुनिया है।।

     

                                                                                                डॉ0 के कृष्ण आर्य


 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

इन्सान हूँ ?


इन्सान हूँ ? 

इन्सान बनना चाहता हूँ !

लाखो कि भीड़ में इंसानियत को तलाश रहा हूँ ...

पर कोई है जो डरा हुआ है , सहमा हुआ है

और अपने वजूद को बचाने के लिए दर-दर भटक रहा है ...,

आखिर मिल गया वो , पर निराश है , नाराज है , दुखी है ,

आसमान कि ओर निहार रहा है 

परन्तु आसमान से किसी बदलाव की उम्मीद ने आँखे मैली कर दी है .

सच्चाई के थपेड़ो ने चेहरे की लालिमा हर दी है .

अब तो वह दुखी है सच बोल कर, 

तंग आ चुका है झूठ को नकार कर,

लाचार है, बेबस है, 

किसे सुनाये सच, 

रहा नहीं कोई सुनने वाला, 

सब बिकाऊ है, न कोई टिकाऊ है, 

इन्सान और उसका ईमान बिक रहा है, 

फिर भी इसी उम्मीद के सहारे चला जा रहा हूँ, चला जा रहा हूँ... 

कि शायद इस भीड़ में कोई मिल जाये, 

जो हो इन्सान, 

जानता हो उस इन्सान को, 

जो ये कह दे कि... 

मै इन्सान हूँ !

                                                                      डॉ0 के कृष्ण आर्य ‘केके’ 



 

मेरा देश