Sunday, August 8, 2010

शुद्घ आहार

               सम्पूर्ण आरोग्यता का आधार-शुद्घ आहार
          आज भागदौड़ की जिन्दगी के मायने की बदल गए हैं। व्यक्ति कष्टदायक वस्तुओं में सुख तलाश कर रहा है, जबकि सुखदायक आचरण को कष्टकारक समझता है। इसलिए मनुष्य को न खाने की फुर्सत है और न ही जीवन में कुछ अच्छा करने की लालसा है! यदि मनुष्य की दिनचर्या पर ध्यान डाला जाए तो उससे यह नही लगता कि वह निरोग रह सकता है। आज व्यक्ति का लाईफ स्टाईल तनाव से ग्रसित मिलता है। बिस्तर से उठते ही उसे तैयार होने की टैंशन, बच्चों को स्कूल छोड़ने की टैंशन, काम पर जाने की टैंशन, अॅफिस या दुकान में जाकर काम होने या न होने की टैंशन, घर वापिसी पर राशन की टैंशन, बाजार जाने की टैंशन, सांय को बीवी बिमार मिली तो उसके ईलाज की टैंशन वैगरा, वैगरा...इत्यादि। मनुष्य के जीवन में सुबह से सांय तक टैंशन ही टैंशन रह गई है।
            टैंशन की इन घडि़यों में व्यक्ति अपने खानपान अर्थात आहार पर ध्यान नही दे पाता। अनेक बार हम अॅफिस में बैठे हुए, गाड़ी में चलते हुए, काम में व्यस्त रहते हुए तथा अन्य आवश्यक कार्यों की निवृती के दौरान भी कुछ न कुछ खाकर अपनी क्षुधा मिटाने का प्रयास करते है। ऐसे समय पर व्यक्ति कोई पोष्टिक या स्वास्थ्यवर्धक खाना नही खा पाता बल्कि वह अपनी अमूल्य भूख को शांत करने के लिए चिप्स, बर्गर, पीजा, ईडली, ढोसा, चिकन, अंडा, चाय, समोसा या कोल्ड़ ड्रिंक इत्यादि जंक फूड का ही सेवन करता हैं। इनके सेवन से व्यक्ति कितना स्वस्थ रह सकता है यह तो हम सब जानते है।
          आहार व्यक्ति के जीवन का आधार स्तम्भ होता है। शुद्घ और रोगनाशक आहार द्वारा हम अपने शरीर से लम्बे समय तक कार्य ले सकते हैं। शुद्घ आहार जहां व्यक्ति को संपूर्ण स्वस्थ्य प्रदान करता है, वहीं दूषित खानपान व्यक्ति की प्रकृति को बिगाड़ देता है। यह भी कहा जा सकता हैं कि भगवान ने सभी प्राणियों का भोजन उनकी प्रकृति के आधार पर ही तय किया है। प्रकृति ने मांसाहारी जीव शेर, चीता व भेडि़या जैसे प्राणियों का खानपान मांस तय किया है, जबकि मनुष्य, गाय, भैंस, भेड़, बकरी जैसे जीव, प्रकृति से ही शाकाहारी होते हैं। वे प्राणी जो मांसाहारी व शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन का भक्षण करते हैं, ऐसे सर्वाहारी जीवों की श्रेणी में कुत्ता, बिल्ली इत्यादि शामिल हैं। अब तो स्वयं व्यक्ति भी इस श्रेणी में कदम रख चुका है।
          खानपान पर ये सामाजिक अवधारणाएं तो सुनी ही होगी कि- ‘जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन, जैसा पीओगे पानी, वैसी होगी वाणी।’ इससे पता चलता ही है कि हमारे खानपान अर्थात आहार का सीधा सम्बन्ध हमारे अन्तःकरण से होता है। आहार का प्रभाव मन पर, मन से बुद्घि, बुद्घि से विचार, विचारों से कर्म तथा कर्मों से मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास या विनाश होता है। अतः मनुष्य के विकास या विनाश को उसके द्वारा किये जाने वाला आहार से ही आंका जा सकता है।
        हमारा शरीर, आहार एवं विचारों का दर्पण होता है। महर्षि चरक ने अपनी पुस्तक चरक संहिता में आरोग्यता के तीन मूलक बताए है। ‘त्रयः उपष्टम्भा आहार-निद्रा-ब्रह्मचर्यमिति।’                              व्यक्ति का स्वास्थ्य ‘आहार, निद्रा, और ब्रह्मचर्य’ तीन अंगों पर निर्भर करता है। ये तीनों अंग व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करने में रामबाण का कार्य करते हैं। शुद्घ, पवित्र, स्वास्थ्यवर्धक व रोगनाशक खानपान को ‘आहार’ की श्रेणी में गिना जाता है। स्वस्थ रहने का दूसरा साधन ‘निद्रा’ है, गहरी नींद व्यक्ति को स्वस्थ रखने में सहायक होती है। ‘ब्रह्मचर्य’ में वीर्य की रक्षा और ब्रह्म विद्या का अध्ययन करना समाहित होता है।
            महर्षि दयानन्द ने अपनी जगत प्रसिद्घ पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में मनुष्य के स्वस्थ रहने, वैचारिक उत्तमता और आत्मिक उन्नति के लिए भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों को दो श्रेणियों में बांटा है। ये हैं- धर्मशास्त्रोक्त तथा वैद्यकशास्त्रोक्त। धार्मिक ग्रर्न्थों एवं आप्त पुरूषों द्वारा निर्देशित आहार को ‘धर्मशास्त्रोक्त’ आहार माना गया है। इसमें मलिन, मल-मूत्रादि व गंदगी आदि के संसर्ग से उत्पन्न अंडा, मांस, शाक, फल, फूल, सब्जियां व औषध इत्यादि पदार्थों का सेवन करना निषिद्घ माना गया है। ऐसे पदार्थ व्यक्ति की बुद्घि का नाश करने वाले होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘आहार शुद्घौ, सत्व शुद्घि, सत्व शुद्घौ, ध्रूवास्मृति।’ अर्थात आहार के शुद्घ होने से बुद्घि का शौधन होता है और बुद्घि के शुद्घ होने से हमारी स्मरण शक्ति चीर स्थाई बन सकती है।
         वैद्यक शास्त्रों में बताए गए खानपान और शरीर की प्रकृति के अनुकूल आहार को ‘वैद्यकशास्त्रोक्त’ आहार बताया गया है। वैद्यक शास्त्रों में भी तीन बातों का ध्यान रखने की आवश्यकता पर बल दिया है। इसमें ‘ऋतभुक, मितभुक, हितभुक’ के सिद्घांत पर खानपान करना लाभकारी माना गया है। वैद्यकशास्त्रों में मौसम व ऋतु के अनुसार आहार का सेवन करना ‘ऋतभुक’ कहलाता है। भूख से कम खाना ‘मितभुक’ तथा शरीर, बुद्घि और आत्मा की उन्नति के लिए हितकारी भोजन करना ‘हितभुक’ आहार कहलाता हैं।
           वैसे देखा जाए तो कोई भी व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार ही भक्ष्याभक्ष्य पदार्थो का सेवन करता है। प्रकृति उसके शरीर व बुद्घि का सम्मिलन होता है। प्रकृति = शारीरिक बनावट + बौद्घिक स्तर। व्यक्ति को प्रकृति ही आहार का चयन के लिए प्रेरित करती है और उसे विभिन्न भक्ष्याभक्ष्य प्रदार्थों की ओर आकर्षित करती है। व्यक्ति के तीन शारीरिक दोष भी इस आर्कषण का कारण बनते हैं। ‘वात, पित्त व कफ’ नामक ये दोष शरीर में आरोग्यता के परिचायक है। इन दोषों के समावस्था में रहने पर शरीर निरोग रहता है, जबकि इनकी विषमता व्यक्ति को बिमारी का शिकार बना देती है। शरीर में वायु विकार से उत्पन्न दोष को ‘वात दोष’ कहते है, जबकि जठराग्नि में ऊष्णता व अग्नि तत्च की वृद्घि होना ‘पित्त दोष’ को उत्पन्न करता है तथा खांसी, नजला और जुकाम की बढोतरी ‘कफ दोष’ कहलाता है। इन तीनों दोषों को समावस्था में लाने वाला आहार ग्रहण करना ही स्वस्थ रहने का मूलमन्त्र माना गया है।
          शरीर के तीन दोषों की तरह ही, बुद्घि में तीन गुण माने गए हैं। सत्व, रजो व तमो गुणों से विभूषित बुद्घि को अपने सद्गुणों के विकास के लिए सात्विक आहार का पान और दूषित खानपान का त्याग करना होता है। शुद्घ विचारों, वेदादि ज्ञान, सहयोगी मानसिकता और पवित्र आचारण से बुद्घि में ‘सत्व गुण’ प्रभावी होता है, जबकि सत्य, धर्म और सदाचार की उपेक्षा करना, ईष्या तथा दूसरों को नुकसान पहुंचाने के विचार ‘तमो गुण’ के द्योतक है। कर्तव्य, जोश, रक्षा व नेतृत्व की भावना ‘रजो गुणी’ कहलाती हैं। इनमें सत्व गुण को सर्वोपरि तथ तमो गुण को निकृष्ट माना गया है।
              प्राणियों के प्रकृति की विषमता पर महर्षि दयानन्द ने भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों के सेवन का उपदेश किया है। उन्होंने खाने योग्य पदार्थों को ‘भक्ष्य व अभक्ष्य’ दो श्रेणियों में विभिक्त किया हैं। अहिंसा, सत्य, धर्मादि कर्मों से प्राप्त भोजन ‘भक्ष्य’ कहलाता है। कन्ध, मूल, फल, फूल, औषधियां युक्त पदार्थ ‘भक्ष्य पदार्थ’ होते है। ऐसे खाद्य पदार्थ जो स्वास्थ्यवर्धक, रोगनाशक, बुद्घिवर्धक तथा बल, पराक्रम व आयु में बढोतरी करने वाले हो, उन्हें ‘भक्ष्य’ भोजन कहते है। इनमें गोदूध, घी, दही, लस्सी व मिष्ठादि पदार्थ शामिल हैं। ये सत्व गुण को बढाने वाले होते हैं।
         जो पदार्थ चोरी, हिंसा, विश्वासघात, छल, कपट इत्यादि से प्राप्त किए जाते हैं उन्हें ‘अभक्ष्य’ पदार्थ कहा गया है। विपरित प्रकृति व शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों को भी अभक्ष्य माना गया है। अंडा, मांस, मदिरा, जंक फूड इत्यादि भी अभक्ष्य पदार्थो की श्रेणी में आते हैं। ये तमो गुण वर्धक होते हैं।
उच्छिष्ट (जूठन) का निषेध- शास्त्रों में उच्छिष्ट खाने का निषेध किया है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि आपसी जूठन खाने से स्नेह बढता है, जिसको ऋषियों द्वारा नकारा गया है। इससे प्यार बढ़ने की बजाय रोग बढने की बात कही गई है। हाथ, मुहं इत्यादि से निकली वस्तु ‘उच्छिष्ट’ कहलाती है, जोकि सामने वाले की प्रकृति पर विपरित प्रभाव डालती है। इससे बिमारी बढने की ज्यादा सम्भावना होती है। मल-मूत्र त्याग के बाद बिना हाथ धोए खाना पकाना, खाना, जूठन खाने में मिलाना तथा पसीना आटे में टपकना इत्यादि भी इसी श्रेणी में गिने जाते हैं।
मांसाहार त्याज्य- भगवान ने व्यक्ति को स्वभाव से ही शाकाहारी बनाया है। उसका चलना, उठना, बैठना, शारीरिक बनावट, दांतों का आकार तथा जीभ से खाने व पीने के तरीके सब कुछ शाकाहारी प्राणियों की भांति ही है। इस लिए व्यक्ति की प्रकृति शाकाहारी ही है। अतः मनुष्य के लिए अंडा, मांस, मद्य, ध्रूमपान व नशीले पदार्थों का सेवन शास्त्रों में त्याज्य बताया है। इनसे तमो गुण में वृद्घि होती है। अब तो चिकित्सक भी मांसाहार को हानिकारक मानते हैं।
हानिकारक जंक फूड- पराठा, बर्गर, पीजा, इडली, ढोसा, समोसा, पकौडा, आईसक्रीम, कोल्डड्रिंक, तैलीय तथा मसालेदार पदार्थों को जंक फूड माना जाता है। वैद्यक शास्त्रों में इन्हें पित वर्धक बताया गया है। इनके अतिरिक्त गले, सडे, बिगडे़, दूर्गन्धयुक्त तथा अच्छे से न बने खाद्य पदार्थों का सेवन भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना है।
इनका रखें ध्यान- भूख होने पर ही खाना खाएं, बिना चबाए या जल्दी-जल्दी नही खाना चाहिए, भूख से अधिक या बार-बार न खाना नुकसानदायक, प्रकृति के प्रतिकूल आहार न करना तथा उत्तेजना, भय, शोक, घृणा, क्रोध, चिंता या तनाव में भोजन नही करना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक सिद्घ होता है।
हमारे आहार का प्रभाव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारे बौद्घिक गुणों पर पड़ता है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण स्वयं, परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति बदल जाता है। जब आहार व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है तो क्यों ना हमें ऐसे आहार का त्याग कर देना चाहिए, जो कि व्यक्ति को अपराधी, कामचोर, असभ्य तथा समाज व राष्ट्र का विरोधी बनाने वाला होता है। ऐसा करने से हम शारीरिक, मानसिक, बौद्घिक व आत्मिक रूप से स्वस्थ होकर सम्पूर्ण आरोग्यता को प्राप्त करने में सफल होंगे।   
                                                              कृष्ण कुमार ‘आर्य’

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